हमें ‘आप’ से कोई भी मतलब क्यों होना चाहिए?

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— श्रवण गर्ग —

म आदमी पार्टी के एक ख़ास नेता और दिल्ली के पूर्व उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इस समय सीबीआई की हिरासत में हैं। शराब नीति से संबंधित एक मामले में जाँच एजेंसी द्वारा कथित तौर जुटाए गए अनियमितताओं के सुबूतों के आधार पर उनकी गिरफ्तारी हुई है। कहा जा रहा है कि कार्रवाई की तलवार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सिर पर भी लटक रही है।

जाँच एजेंसियों के जरिए जिस तरह की राजनीति देश में इस समय चलाई जा रही है उसमें अब कुछ भी नामुमकिन नहीं बचा है!

सवाल यह है कि ‘आप’ के मामले में उस ‘आम’ आदमी की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए जिसने कोई बारह साल पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में तब 74-वर्षीय किशन बाबूभाई हजारे उर्फ़ अन्ना हजा शरे की अगुवाई में भ्रष्टाचार के खिलाफ चले आंदोलन (‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’) का अपनी संपूर्ण सामर्थ्य से समर्थन किया था और इंडिया गेट पर उम्मीदों की मोमबत्तियाँ जलाईं थीं? क्या नागरिकों को 2011 की तरह ही ‘आप’ नेताओं पर हो रही कार्रवाई के खिलाफ भी फिर से खड़े हो जाना चाहिए? (शायद) नहीं ! चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटना होगा :

बारह साल पहले की दिल्ली और उसके रामलीला मैदान का नजारा अगर याद किया जाए तो एक ऐसा माहौल बन गया था कि 1974 के बाद देश में एक नई जनक्रांति की शुरुआत होने जा रही है और उसके नायक केजरीवाल हैं।मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने जब करतल ध्वनि के बीच अन्ना आंदोलन की अधिकांश माँगें संसद में मंज़ूर कर लीं तब रामलीला मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के बाद मैंने लिखा था :
‘’27 अगस्त 2011 का दिन स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक अप्रतिम अध्याय बनकर एक सौ बत्तीस करोड़ नागरिकों के हृदयस्थलों पर अंकित हो गया है। सत्ता के अहिंसक और शांतिपूर्ण हस्तांतरण की यह गूंज अब दूर-दूर तक सुनाई देगी। शर्त केवल यह है कि परिवर्तन की अगुवाई करने वालों की आँखों में बेईमानी का काजल नहीं बल्कि ईमानदारी का साहस होना चाहिए।’’

क्या अंत में ऐसा ही हुआ? अन्ना कहाँ गायब हो गए? अन्ना और केजरीवाल हकीकत में किन उद्देश्यों (या लोगों!) के लिए काम कर रहे थे? क्या केंद्र से मनमोहन सिंह की सरकार को अपदस्थ करने में संघ-भाजपा की मदद के लिए? खुद की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए?

आंदोलन की समाप्ति के बाद केजरीवाल ने सुझाव दिया था कि मुझे भी ‘आप’ के साथ जुड़ जाना चाहिए। मैंने सहमति भी व्यक्त कर दी। हमारी दो बैठकें भी हुईं। इसी बीच ‘आप’ से जुड़े प्रमुख लोगों की (शायद) हिमाचल के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पालमपुर में कोई महत्त्वपूर्ण बैठक हुई जिसमें आगे के काम की रूपरेखा पर विचार-विमर्श होना था। पालमपुर बैठक से लौटने के बाद केजरीवाल ने मुझे फोन किया और अपने काम के साथ जोड़ने से पहले एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर मेरी राय जानना चाही! राय जानने का मुख्य मुद्दा यह था कि ‘आप’ को चुनावी राजनीति में भाग लेना चाहिए या नहीं?

केजरीवाल को मैंने उत्तर दिया कि ‘आप’ को चुनावी राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए। रामलीला मैदान में चले आंदोलन के जरिए युवाओं की जो अभूतपूर्व शक्ति प्रकट हुई है उसे संगठित करके एक देशव्यापी आंदोलन में परिवर्तित किए जाने की जरूरत है। यह काम कोई राजनीतिक दल नहीं कर सकता। केजरीवाल ने मेरी बात पूरी सुनी और अंत में जवाब दिया कि वे शीघ्र ही फिर संपर्क करेंगे। यह उनसे आखिरी संवाद था। उन्होंने कोई संपर्क नहीं किया। बाद में जानकारी मिल गई कि पालमपुर बैठक में तय किया जा चुका था कि ‘आप’ चुनावी राजनीति में भाग भी लेगी और सरकारें भी बनाएगी। बाद में स्थितियां ऐसी बना दी गईं कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव जैसे सिविल सोसाइटी के कई प्रतिष्ठित लोगों को केजरीवाल का साथ छोड़ना पड़ा।

यह सबकी जानकारी में है कि किस तरह दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार को गिराने में कांग्रेस-विरोधी ताकतों की मदद करके केजरीवाल दिसंबर 2013 में पहली बार मुख्यमंत्री बने। उसके कुछ ही महीनों बाद केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार भी चली गई और मोदी सत्ता में आ गए। आरोप है कि यूपीए सरकार की बर्खास्तगी के उद्देश्य से अन्ना के आंदोलन पर संघ-भाजपा से जुड़े लोगों का कब्जा हो गया था। दिल्ली विजय के बाद केजरीवाल एक-एक कर उन तमाम राज्यों में पहुँचते गए जहां भाजपा के मुकाबले में खड़ी कांग्रेस को कमजोर किया जा सकता था। गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब, गुजरात इसके उदाहरण हैं। आरोप है कि पंजाब से लगे हिमाचल को छोड़ केजरीवाल इसलिए चुनाव लड़ने गुजरात पहुँच गए कि ‘आप’ की हिमाचल में उपस्थिति से नुकसान कांग्रेस के बजाय भाजपा को पहुँच सकता था।

शाहीन बाग का शांतिपूर्ण आंदोलन हो या तबलीगी जमात के धार्मिक लोगों के खिलाफ किया गया दक्षिणपंथी संगठनों का दुर्भावनापूर्ण प्रचार और सरकार की द्वेषपूर्ण कार्रवाई ! या फिर दिल्ली के दंगों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ कथित पुलिस ज्यादतियाँ ! केजरीवाल हरेक मौके पर केंद्र के एजेंडे के साथ ही खड़े नजर आए।

भाजपा से लड़ने के लिए विपक्षी दलों के बीच एकता की कोशिशों से भी वे हमेशा दूरी बनाते हुए दिखे। भाजपा के सत्ता में आने के बाद जाँच एजेंसियों द्वारा कुल जितने मामले दर्ज किए गए आरोप है कि उनमें 95 प्रतिशत से अधिक में विपक्षी नेताओं को ही निशाना बनाया गया। आम आदमी पार्टी पर आरोप है कि उसने कभी विपक्ष का बचाव नहीं किया। स्वयं के मामले में पार्टी अब ‘विक्टिम कार्ड’ खेलकर जनता की सहानुभूति प्राप्त करना चाह रही है !

पूछा जा सकता है कि इस समय जब केजरीवाल की हुकूमत पर प्रहार हो रहे हैं, दिल्ली की जनता 2011 की तरह ‘आम आदमी पार्टी ‘ के साथ क्यों खड़ी नजर नहीं आ रही है? अंत में सवाल यह है कि क्या ‘आप’ के कमजोर पड़ने से देश में विपक्ष की राजनीति पर कोई विपरीत असर पड़ सकता है? अगर ‘नहीं’ तो फिर हमें और विपक्षी दलों को ‘आप’ से कोई भी मतलब क्यों होना चाहिए?

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