— आनंद कुमार —
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की रोमांचक महागाथा में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की 1934 में स्थापना और कांग्रेस सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं की 1942 के ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आंदोलन में शानदार भूमिका एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है. इसके चार महत्त्वपूर्ण केंद्र थे – बनारस (आचार्य नरेंद्रदेव और डा. संपूर्णानंद), पटना (प्रो. अब्दुल बारी और जयप्रकाश नारायण), बंबई ( यूसुफ़ मेहर अली और अशोक मेहता), और दिल्ली (सत्यवती देवी, सुचेता कृपालानी और अरुणा आसफ़ अली).
इस दौरान प्रसिद्ध चिंतक और स्वराज नायक आचार्य नरेंद्रदेव (1889-1956) के इर्द-गिर्द काशी विद्यापीठ और काशी विश्वविद्यालय के अध्यापकों और विद्यार्थियों का एक तेजस्वी समूह विकसित हुआ जिसने भारतीय समाजवादी आंदोलन, किसान आंदोलन और विद्यार्थी-युवजन आंदोलन की धुरी की भूमिका निभाई. इन स्वराजी समाजवादियों को महात्मा गांधी का आशीर्वाद और जवाहरलाल नेहरू और सुभाष बोस का स्नेह -समर्थन था. कांग्रेस सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं ने गांधीजी के मार्गदर्शन में के व्यक्तिगत सत्याग्रह और 1942 के निर्णायक आंदोलन में पूरे देश में साहस और पराक्रम का बेमिसाल प्रदर्शन किया. ‘गूंजे धरती और आकाश – अरुणा, लोहिया, जयप्रकाश !’ और ‘अच्युत, लोहिया, जयप्रकाश – इंक़लाब ज़िंदाबाद!’ से देश की धरती और आकाश गूंजने लगे.
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इस अध्याय में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की नयी पीढ़ी का विशेष योगदान था. गाजीपुर के प्रतिष्ठित ग्रामीण परिवार में जनमे और बनारस और इलाहाबाद में सुशिक्षित सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह इस पीढ़ी की पहली कतार के नायक थे. पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘अजातशत्रु’ के रूप में सर्वसम्मानित सिद्धेश्वर जी की जिंदगी तीन दौर से गुजरी – 1930 से 1947 के बीच आजादी के सिपाही, 1948 से 1960 के दौरान नव-स्वाधीन भारत में समाजवादी प्रतिपक्ष के शिल्पी और 1960 से 1980 के दो दशकों में कांग्रेस के नायक. उन्होंने अपने पाँच दशक लंबे सार्वजनिक जीवन में 1930 से 1947 तक स्वराज के लिए सत्याग्रह और 1948 से 1980 के बीच लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण के लिए समाज संगठन के लक्ष्य के लिए पूर्ण समर्पण का आदर्श अपनाया. 1930, 1932, 1940 और 1942 के सत्याग्रह में भाग लेकर अपनी जवानी स्वतंत्रता की साधना में समर्पित कर दी. जब वह पहली बार सत्याग्रही बने तो कुल 19 साल की आयु थी और 1945 में अंतिम सत्याग्रह की 4 बरस लंबी और कठिन कैद से छूटे तो 35 बरस के हो चुके थे. इन 15 बरसों में उनकी सैद्धांतिक निष्ठा और राजनीतिक कर्मठता ने उनकी लोकप्रियता को विस्तार मिला और वह 1946 में हुए ऐतिहासिक चुनाव में गाजीपुर से संयुक्त प्रांत (बाद में उत्तर प्रदेश) की विधानसभा के लिए चुने गए. इसी चुनाव में समाजवादी आंदोलन के मार्गदर्शक आचार्य नरेंद्रदेव फैजाबाद से चुनकर आए.
आचार्य नरेन्द्रदेव की प्रेरणा से कांग्रेस से अलग होकर 1948 से 1960 तक विपक्षी राजनीति की नींव मजबूत की. इसमें 1948 में कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना करने पर राजनीतिक नैतिकता के नाते विधायक पद से इस्तीफा देने की ऐतिहासिक घटना का अलग महत्व था. आचार्य नरेंद्रदेव के 1956 में निधन के बाद पैदा शून्य के समाधान के लिए कांग्रेस को ही समाजसेवा का वाहन बनाने का निर्णय लिया और गाजीपुर जिले की राजनीति में तीन दशकों तक नवस्वाधीन राष्ट्र के हृदयप्रदेश के पूर्वांचल के एक शिखर पुरुष के रूप में सम्मानित रहे.
यह नहीं भुलाया जा सकता कि 1946-48 की अवधि पूरे देश के लिए भारी उथल-पुथल का काल था. कांग्रेस के नेतृत्व ने भारत-विभाजन की मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की अंग्रेजों द्वारा प्रोत्साहित माँग के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था. बिना वयस्क मताधिकार से चुनी संविधान सभा में शामिल हो गए थे. देशी रजवाड़ों की जमात भारत के कई टुकड़े करने का षड्यंत्र करने में जुटी थी. देश के कई हिस्से सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा गृहयुद्ध के अखाड़े बना दिए गए थे. सांप्रदायिक आग को बुझाने में जुटे महात्मा गांधी की हिंदुत्ववादी गिरोह द्वारा हत्या कर दी गयी. यह समाजवादी आंदोलन के लिए कठिन परीक्षा का समय था.
नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, राजेंद्र प्रसाद, राजागोपालाचारी जैसे वरिष्ठ नेताओं और महात्मा गांधी के सोच में बहुत फासला आ गया था. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने भारत के बँटवारे का विरोध किया. इसमें सिर्फ ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का समर्थन मिला. लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति और महासमिति में समाजवादी अल्पमत में थे. दूसरे, समाजवादी जमात ने संविधान सभा का बहिष्कार किया क्योंकि यह कुल 15 प्रतिशत भारतीयों के वोट से चुनी गयी थी. गांधीवादी और कम्यूनिस्ट ने भी संविधान सभा से अपने को अलग रखा. तीसरे, गांधी हत्या के बाद पैदा अविश्वास के कारण कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने सरकारी व्यवस्था के समानांतर लोकतान्त्रिक प्रतिपक्ष की रचना की जिम्मेदारी उठायी और नरेंद्रदेव, जयप्रकाश और राममनोहर लोहिया की अगुवाई में जनजागरण और आंदोलन की धारा के भगीरथ बने. सत्ता के लिए सिद्धांतों से समझौता न करके लोकतंत्र रचना का जनपथ चुना. सरकारी सुख-सुविधाओं के बजाय वंचित भारत की आवाज बनने का संकल्प किया. अपने नाम से ‘कांग्रेस’ हटाकर सोशलिस्ट पार्टी को जन्म दिया.
1952 के पहले आम चुनाव के नतीजों से पैदा हताशा के समाधान के लिए स्वतंत्रता सेनानियों के एक अन्य दल ‘किसान मजदूर प्रजा पार्टी’ के साथ विलय करके प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का निर्माण किया. लेकिन शीघ्र ही समाजवादी आंदोलन में विघटन की शुरुआत हो गयी और 1957 में हुए दूसरे आमचुनाव की पराजय और कांग्रेस द्वारा 1959 के राष्ट्रीय सम्मेलन (अवाडी) में समाजवादी मार्ग की तरफ कदम बढ़ाने के निर्णय ने सिद्धेश्वर प्रसाद जैसे राष्ट्रसेवकों को अपने पुराने घर कांग्रेस की तरफ आकर्षित किया. प्रधानमंत्री नेहरू और जयप्रकाश नारायण के बीच वार्ता हुई. कांग्रेस में वापसी में अशोक मेहता और गेंदा सिंह जैसे बड़े नेता और चंद्रशेखर, नारायण दत्त तिवारी, रामायण राय और गौरीशंकर राय जैसे समवयस्क समाजवादी भी शामिल थे. सिद्धेश्वर जी के लिए यह समझदारी का निर्णय सिद्ध हुआ. वह 1963 से 1977 तक गाजीपुर जिला परिषद के कर्णधार बने रहे. इस दौर में उनका दरवाजा सभी प्रगतिशील समाजसेवियों के लिए खुला रहा. इससे गाजीपुर में प्रगतिशील राजनीति को मजबूती मिली.
सिद्धेश्वर प्रसाद जी का सार्वजनिक जीवन एक तरफ आजादी के लिए पूर्ण समर्पण की प्रेरक कहानी है और दूसरी तरफ आजादी के बाद लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्मांण की जिम्मेदारी से जूझने की यशोगाथा रही. उनका निर्मल जीवन संतति और संपत्ति के संवर्धन की वासना से मुक्त रहा. कंचन और कामिनी के दोषों से दूर रहा. इसीलिए महाप्रस्थान के पाँच दशक बाद भी उनकी स्मृतियों का प्रवाह है. उन्होंने अपने त्याग से आचार्य नरेंद्रदेव जैसे अतुलनीय गुरु का सम्मान बढ़ाया. अपने सादगीमय सार्वजनिक जीवन से समाजवादी परंपरा को आकर्षक बनाया. अपनी मेधा और दूरदर्शिता का सदुपयोग करके लोकसेवा का कीर्तिमान बनाया. उनकी जीवनयात्रा अनुकरणीय और स्मरणीय बनी. यह हमारा सौभाग्य था कि सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह जी से हमारे परिवार का पाँच दशकों का आत्मीय संबंध रहा और उनके सुपुत्र श्री अखिलेश्वर प्रसाद सिंह के माध्यम से आज भी यह घनिष्ठता कायम है.
सिद्धेश्वर बाबू की प्रेरक स्मृति को हमारा विनम्र नमन….