— श्रवण गर्ग —
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पवन खेड़ा को 23 फरवरी के दिन रायपुर अधिवेशन में भाग लेने जाने से रोकते हुए विमान से उतरवाकर असम पुलिस के हवाले किए जाने के विरोध में जब उनके साथ यात्रा कर रहे पार्टी के अन्य नेता-कार्यकर्ता इंडिगो के पास ही धरने पर बैठ नारेबाजी करने लगे तो कुछ मुखर सहयात्री नाराज हो गए। इन यात्रियों की नाराजगी खेड़ा की कथित तौर पर अनुचित तरीके और आनन-फानन में की गई गिरफ्तारी अथवा कानून के राज की खुलेआम भर्त्सना को लेकर कतई नहीं थी। न ही वे खेड़ा के प्रति सार्वजनिक तौर पर समर्थन व्यक्त करने की हिम्मत सरकार को दिखाना चाहते थे। इन सहयात्रियों का गुस्सा इस बात को लेकर था कि खेड़ा की गिरफ्तारी के खिलाफ उनके साथियों के विरोध-प्रदर्शन से विमान के प्रस्थान में देरी हो रही है जबकि रायपुर में घरों पर बच्चे उनका बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
कौन थे ऐसे नागरिक-सहयात्री जो कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ उस विमान में रायपुर तक यात्रा करने का जोखिम उठा रहे थे? क्या वे वही थे जो राहुल गांधी को उनकी बहु-चर्चित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान सड़कों पर प्राप्त हुए थे? या कि विमान पर सवार इन संभ्रांत नागरिकों के चेहरे सड़क पर चलने वाले उन हाड़-मांस के शरीरों से अलग थे? तो फिर इन यात्रियों के चेहरे किनसे मेल खाते होंगे?
याददाश्त अगर धोखा नहीं दे रही है तो रायपुर जाने वाले इन मुखर मुसाफिरों की नाराजगी का उन सैकड़ों यात्रियों के परिवारजनों के चेहरों से मिलान किया जा सकता है जिनके विमान को 24 दिसंबर 1999 की सुबह पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा काठमांडू से हाईजैक कर अमृतसर, लाहौर और दुबई होते हुए अंत में कंधार (अफगानिस्तान) में उतारा गया था। बंधक यात्रियों की नए साल की पूर्व-संध्या (31 दिसंबर) पर रिहाई के पहले देश ने सात-आठ दिनों तक जो अभूतपूर्व हंगामा और ड्रामा देखा था उसकी अखबारी कतरनें आज भी तलाश की जा सकती हैं। सौभाग्य से आज जैसा गोदी मीडिया उस समय देश में नहीं था।
अपहरणकर्ताओं ने बंधक बनाए गए यात्रियों की आजादी के बदले भारत की जेलों में कैद अपने तीन खूंखार आतंकी साथियों को रिहा कर उन्हें अफगानिस्तान लाने की माँग की थी। अटल जी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार उस समय केंद्र की सत्ता में थी और बंधकों की मुक्ति के लिए हर संभव विकल्प पर काम कर रही थी। यात्रियों के परिजन सरकार की कार्रवाई पर यकीन करने को तैयार नहीं थे। उनका धैर्य टूटता जा रहा था।
ऐसे तनावपूर्ण वक्त के दौरान जब एक दिन विदेशमंत्री जसवंत सिंह की प्रेस कान्फ्रेंस चल रही थी, बंधक यात्रियों के कुछ रिश्तेदार उसमें घुस गए। इन रिश्तेदारों का कहना था कि उन्हें इस बात से मतलब नहीं कि यात्रियों के बदले में किसे छोड़ना, नहीं छोड़ना है। उन्हें तो बस अपने संबंधितों की अपहरणकर्ताओं से मुक्ति चाहिए। वे उनके घर लौटने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं।
इतिहास गवाह है कि बंधक यात्रियों के रिश्तेदारों और नागरिकों के प्रभावशाली वर्ग ने अटल सरकार पर तब तक इतना दबाव बना दिया था कि जसवंत सिंह तीनों खूंखार आतंकियों की भारतीय जेलों से रिहाई करवा उन्हें एक विशेष विमान से साथ लेकर कंधार पहुँचे और उसके बाद वहाँ बंधक बने विमान यात्रियों को आजाद कराया गया। कारगिल युद्ध के हीरो अटल बिहारी वाजपेयी को उनके ही देशवासियों ने हरा दिया था।
समूचे घटनाक्रम की इतने अप्रिय तरीके से हुई समाप्ति के बाद के विश्लेषणों में कहा गया था कि परिणामों की चिंता न करते हुए देश के नागरिक अगर कारगिल युद्ध की तरह ही अटल जी का बहादुरी से साथ दे देते और सरकार आतंकियों की माँगें मानने से इनकार कर देती तो सीमापार के आतंकवाद की समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाती। ऐसा नहीं हुआ। हुआ यह कि चार साल बाद 2004 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो इन्हीं नागरिकों ने अटल जी की सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। इस पराजय से लगे सदमे के बाद अटल जी ने भी अपने आपको सत्ता की राजनीति से आजाद कर लिया।
आतंकवाद और अधिनायकवाद के प्रवेश द्वार अकेले शासकों द्वारा ही नहीं खड़े किए जाते ! नागरिक भी इस काम में तत्कालीन तानाशाही प्रवृत्तियों की मदद करते हैं। उल्लेखनीय यह है कि नागरिकों को पता ही नहीं चल पाता है कि वे किस तरह की तानाशाही को आमंत्रित कर रहे हैं। अधिनायकवाद की तरफ बढ़ती हुकूमतें जब नहीं चाहतीं कि लोग अपने पैरों पर खड़े हो सकें तो वह उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं में लगातार इजाफा करती जाती हैं। इन सुविधाओं में मुफ्त में बॅंटने वाले अनाज को भी शामिल किया जा सकता है। बिना संघर्ष किए प्राप्त होने वाली सुविधाओं में ज़रा सी कमी नजर आते ही ये नागरिक बेचैन होने लगते हैं। शिकायतें और नाराजगी जाहिर करने लगते हैं।
असम राज्य के किसी व्यक्ति की शिकायत पर वहाँ की पुलिस द्वारा ताबड़तोड़ तरीके से दिल्ली पहुँचकर रायपुर जाते पवन खेड़ा को विमान से उतारकर गिरफ्तार किए जाने के विरोध में धरने पर बैठे कांग्रेसी नेताओं ने दबी जुबान से भी एक महत्त्वपूर्ण सवाल का संज्ञान नहीं लिया होगा ! सवाल यह था कि अपनी सुविधाओं की कीमत पर जनता का एक बड़ा और प्रभावशाली वर्ग लोकतंत्र की लड़ाई में न सिर्फ कांग्रेस का साथ देने के लिए कभी तैयार नहीं होगा, थोड़ी सी भी असुविधा होने पर विरोध अवश्य जाहिर करने लगेगा। सरकार के खिलाफ लड़ाई के लिए कांग्रेस को अपनी जनता का चुनाव काफी सोच-समझकर करना पड़ेगा। मानकर चला जा सकता है कि राहुल और कांग्रेस से लड़ने के लिए प्रधानमंत्री तो अपनी जनता की भर्ती काफी पहले पूरी कर चुके हैं!