— डॉ. सुरेश खैरनार —
आज से 175 साल पहले की मुक्त महिला सगुणाबाई क्षीरसागर की स्मृति में. ज्योतिबा – और सावित्रीबाई फुले की मूल प्रेरणादायी सगुणाबाई क्षीरसागर आज स्री – मुक्ति के दिन आजसे 175 साल पहले की सगुणाबाई क्षीरसागर का ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन को आकार देने में सबसे अधिक योगदान रहा है. ज्योतिबा फुले की बचपन से ही मां की मृत्यु होने के कारण और गोविंदराव ज्योतिबा के पिता ने अपने बेटे के लिए दुसरी शादी नहीं की थी. उनके करीबी रिश्ते में सगुणाबाई क्षीरसागर, जो सातारा जिले के नायगाव के पास धनकवडी की रहने वाली थी. और बाल – विधवा थी, इसलिए सगुणाबाई ज्योतिबा फुले का लालन-पालन करने वाली मां की भूमिका में आनेके कारण आज ज्योतिबा और सावित्रीबाई के नाम और काम को हम सभी जान रहे हैं.
सगुणाबाई क्षीरसागर ने बाल – विधवा होने के कारण, पूणे के ख्रिश्चन मिशनरी मिस्टर जॉन के घर में, घरेलू कामकाज में मदद करने का काम करती थी. और मिस्टर जॉन अपने साथ कुछ अनाथ बच्चों को रखने के कारण, सगुणाबाई भी उन्हें मदद करने का काम करती थी. और इस कारण उन्होंने अंग्रेजी में बोलना सीख लिया था. गोविंदराव फुले ने अपने बेटे ज्योति को भी सम्हालने की विनती सगुणाबाई को की. और सगुणाबाई ने मिस्टर जॉन को उसके लिए इजाजत मांगी जो उन्होंने खुशी से देने के कारण सगुणाबाईने ज्योति को अपने बेटे के जैसे लालन-पालन किया. एक मिशनरी के घर में रहने के कारण, ज्योति को शुरू से ही अंग्रेजी बोलने का अभ्यास, और समय पर काम करने से लेकर अनुशासन और सेवा भाव से काम करने के लिए विशेष रूप से अध्ययन करने का मौका मिला.
लेकिन गोविंदराव के ब्राम्हण क्लर्क ने उनके कान फुकंकर “कहा कि ज्योति को पढ़ने के लिए भेजने का धर्मभ्रष्ट कार्य को तुरंत रोकना चाहिए, अन्यथा आपकी सात पिढियो को नर्क में जाना पडेगा.” और उनका सुनकर गोविंदराव ने ज्योतिबा को स्कूल से निकाल लिया था. लेकिन सगुणाबाई ने एक प्रभावशाली अंग्रेज अफसर लेगिट और गफ्फार बेग को गोविंदराव फुले को समझाने के लिए कहा. और गोविंदराव मान गये. अन्यथा ज्योतिबा फुले पढाई पूरी होने से वंचित रह जाते. सगुणाबाई के देखरेख में ही उन्हीं की पहचान की नायगाव की नौ साल की सावित्रीबाई के साथ ज्योतिबा की शादी 1840 में हुई है. और उन्हें पढ़ाने के लिए विशेष रूप से घर में ही ज्योतिबा और सगुणाबाई के सहयोग से पढने को मिला है. यह ज्योतिबा फुले की व्यक्तिगत जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी. जिस कारण तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ काम करने की प्रेरणा से लेकर अध्ययन का भी मौका मिला है. और सगुणाबाई ने ज्योति को अच्छी शिक्षा – दिक्षा देने के लिए मिस्टर जॉन की भी मदद ली है. सगुणाबाई ने ज्योति – सावित्रीबाई फुले के जीवन को आकार देने में बहुत बडी भूमिका निभाई है. और इसलिए सावित्रीबाई ने अपने बावनकशी सुबोध रत्नाकर नाम के कविता संग्रह में “मेरी प्यारी आऊँ के नाम से कविता लिखी है. और कहा कि ” हमारी-आपकी आऊँ अथक परिश्रम करने वाली और दया की मूरत तथा समुद्र भी उसके सामने कुछ नहीं, इतनी विशाल हृदय की है. और आकाश भी उसके सामने छोटा है. वह हमारे पढ़ने की देवता हैं. जिसे हमारे हृदय में हमेशा स्थान रहेगा .”
उसी तरह ज्योतिबा फुले ने “निर्मिक की खोज ” नामक अपनी किताब की अर्पण पत्रिका में लिखा है “कि आऊँ- मां तू सत्य की मूर्ति हो, तुमने मुझे मानवीय मूल्यों के प्रति परिचित कराने के कारण ही मै आज अन्य लोगों को और बच्चों को प्रेम कर पा रहा हूँ इसलिये यह किताब तुम्हें अर्पित कर रहा हूँ”. ऐसी सगुणाबाई क्षीरसागर ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले की माँ जैसी आऊँ 6 जुलै 1854 के दिन इस दुनिया से चल बसी. लेकिन उन्होंने स्री – शुद्रो के लिए विशेष रूप से शुरू किया हुआ कार्य को अच्छी तरह चलाने का काम, ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले करते रहे. यही सगुणाबाई क्षीरसागर को सही श्रद्धांजली उन्होंने कृति के रूप में दी है.
पेशवाई भले खत्म हो गई थी. लेकिन सामाजिक भेदभाव की कुरीतियों को धक्का भी नहीं लगा था. वह बदस्तूर जारी थी. शूद्रों को गले में मटका लगाकर चलने वाली, तथा कमर के पिछे झाडू बांधकर चलने वाली प्रथा जारी थी. वैसे ही सार्वजनिक पानी के लिए घंटों इंतजार करना पडता था. क्योंकि शूद्रों को कुआं या तालाब तक स्पर्श करने की मनाही थी. कोई सवर्ण पानी देगा तब शूद्रों को पानी मिलेगा. इसी को देखते हुए ज्योतिबा फुले ने अपने खुद के घर के पानी के हौद को सभी के लिए खोलने का फैसला किया था. वहीं बात शिक्षा के क्षेत्र में स्री – शुद्रो को अक्षरों को देखने से लेकर उनके उच्चारण करने की मनाही थी. ज्योतिबा और सावित्री बाई, सगुणाबाई क्षीरसागर तथा फातिमा शेख के संयुक्त प्रयासों से 1848 को पहली पाठशालाओं की शुरुआत की गई है. हालांकि सगुणाबाई क्षीरसागर ने 1846 में खुद महारवाडा में सबसे पहले पाठशाला की शुरुआत की है. लेकिन तत्कालीन तथाकथित उंची जाती के लोगों के विरोध के कारण, कुछ महिनों के बाद बंद करना पड़ा. फिर दो साल के पस्चात 25 दिसंबर 1848 के दिन ज्योतिबा ने ब्राम्हणो के षडयंत्र का पर्दाफाश करते हुए बहुत प्रभावी भाषण दिया था. जिससे भिड़े नाम के एक ब्राम्हण ने प्रभावित होकर खुद का घर स्कूल चलाने के लिए देने की घोषणा की.
और इस तरह भारत के इतिहास में पहली पाठशालाकी शुरुआत पुणे के भीडेवाडा में स्रि-शुद्रो के लिए हुई हैं. उसके लिए सवर्ण समाज के लोगों द्वारा, हररोज पाठशाला में जाने के रास्ते पर, गोबर – किचड तथा पत्थरों के हमले सहते हुए, सावित्रीबाई के साथ सगुणाबाई तथा फातिमा शेख तीनों महान महिलाओं के अदम्य साहस और लगन की दाद देनी होगी. वह अपने साथ थैले में अलग साडी लेकर जाती थी और पाठशाला में पढाई शुरू करने के पहले गंदगी से भरी हुई साड़ी को बदल कर पढाने के काम को पूरा करने के लिए जुटना, कल्पना से भी रोंगटे खड़े होते हैं. कैसे जीवट की तीनों महिलाएं होगी ? कि जो घर से बाहर निकल कर रास्ते पर गंदे शब्दों से लेकर गोबर – किचड और कंकडो की मार झेल कर पाठशालामे अपने साथ लाए हुए साडीयो को बदल कर पढ़ाई के काम में सक्रिय होने के लिए अपनी खुद की मानसिकता को तैयार करना, कोई साधारण बात नहीं है. उसके लिए जो अदम्य साहस और लगन के सिवाय असंभव है.
आज वर्तमान राष्ट्रपति से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की संख्या दिखाई देती है. लेकिन इसके लिए 175 साल पहले सगुणाबाई क्षीरसागर, सावित्रीबाई फुले तथा फातिमा शेख और उनके साथ देने वाले ज्योतिबा फुले तथा उस्मान शेख, तथा पहले स्कूल के लिए खुद का घर देने वाले भीडे जैसे लोगों के कारणही स्री – शुद्रो के लिए शिक्षा की शुरुआत हुई है. और उसके बावजूद कुछ लोग, आज भी मनुस्मृति का महिमामंडन करने की कोशिश करते हुए देखकर उनकी मानसिकता पर तरस आता है.
हिंदू धर्म में सेवा करने की कोई परंपरा का प्रावधान नहीं है. क्योंकि आज कोई तकलीफ़ में रह रहा है, तो वह पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोग रहा है. इसलिए उसे वैसे ही रहने देना है.
क्योंकि ‘कर्मविपाक सिध्दांत’ के अनुसार इस जन्म में वह यह सब प्रायश्चित करने के बाद ही उसे अगले जन्म में मुक्ति मिल सकती है. और अच्छे दिन आयेंगे. इस मिथक के उपर सबसे पहले महात्मा ज्योतिबा फुले ने प्रहार किया है. और उसी कड़ी में, लेकिन महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु के कुछ समय बाद ( 1889 ) पैदा हुए ( 1891 ) डॉ. भिमराव अंबेडकरजी ने तो दलित महिला और सभी पिछड़ी जातियों के लोगों के मन में हजारों सालों से बैठे हुए ‘कर्मविपाक’ के सिध्दांत की वजह से वह मानसिक गुलामी की बेड़ियों में जखडे हुए थे. जिसे बौद्धिक रुप से तोड़ने का ऐतिहासिक काम डॉ. बाबासाहब अंबेडकरजी ने किया है. अन्यथा आज स्री मुक्ती दिवस मनाने की सुविधा नहीं मिलीं होती. और नही कोई द्रोपदी मूर्मूजी इस तथाकथित ‘हिंदू राष्ट्र ‘की राष्ट्रपती हिंदूत्ववादी पाखंडीयो को मनोनीत करने की कल्पना.सिर्फ और सिर्फ दलित, आदिवासी तथा पिछडे और महिलाओं के समुदायों के एक गठ्ठा मतो के लिए विशेष रूप से करना पड रहा है. यही हमारी संसदीय राजनीति का तकाजा जो है ? उत्तर पूर्व भारत में बीजेपी की राजनीति जोडतोड उसका ताजा उदाहरण के लिए पर्याप्त है.
हजारों वर्ष पुरानी हिंदू सभ्यता में सेवाकार्य करने की कृती का उल्लेख नहीं मिलता है. हमारे सभी शंकराचार्य सिर्फ अपने सिंहासन और स्वर्णदंड लेकर देश भर में घुमते रहते हैं. लेकिन किसी के सेवा कार्य करने की परंपरा दिखाई नहीं देती है. स्वामी विवेकानंद अमेरिका जाने के कारण ही. उन्होंने वहां के ख्रिश्चन मिशनरीयो के सेवा कार्य को देखकर ही, ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की है. उसके पहले हिंदू धर्मावलंबियों के तरफसे व्यक्तिगत अध्यात्मिक साधना के अलावा कोई सेवा कार्य करने के संदर्भ सनातन हिंदू धर्म में दिखाई नहीं देता है. और शायद महात्मा गाँधी भी अगर दक्षिण अफ्रीका में 22 साल नहीं रहे होते तो उनके भी मोहन से महात्मा का सफर होने की संभावना नहीं होती.
ज्योति के प्राथमिक जीवन में सगुणाबाई के कारण, मिस्टर जॉन के सेवा कार्य और अंग्रेजी शिक्षा का मौका मिला. और ज्योति का महात्मा ज्योतिबा फुले होने की शुरुआत हुई है. इश्वर चंद्र विद्यासागर से लेकर राजा राम मोहन राय सभी समाजसुधारक, अंग्रेजी शिक्षा के पस्चात ही तैयार हुए हैं. और महाराष्ट्र के दो महत्वपूर्ण समाज सुधारक, गोपाल गनेश आगरकर और विष्णु शास्त्री चिपळूणकर तो अंग्रेजी शिक्षा को बाघिन का दूध की उपमा देते थे. सच देखा जाए तो भारत में सामाजिक सुधार के आंदोलन का सूत्रपात अंग्रेजों के भारत में आनेके बाद ही शुरू हुआ है.
भारत के अतित का गौरव लाख करेंगे. लेकिन आधुनिक समाज और ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में मुख्य रूप से बाष्प शक्ति की खोज करने के बाद युरोपीय देशों में जो औद्योगिक क्रांति के और साथ ही विज्ञान के क्षेत्र में जबरदस्त तेजी से नये-नये खोज करने के कारण रेनॉसा की भूमिका बनने के लिये काफी कुछ मदद हुई है. और हम हमारे अतीत के पोवाडा गाने के अलावा स्री – शुद्र और अतिशूद्रो के साथ अमानवीय व्यवहार करने में ही धर्म कार्य है. ऐसा व्यवहार सदियों तक करते रहे हैं. और उसके बावजूद “गर्व से कहो कि हम हिंदू है” , के नारे लगा रहे हैं.
सगुणाबाई के कारण ही सावित्रीबाई जैसे लड़की के साथ ज्योति की शादी हुई हैं. और उन दोनों के शिक्षा कार्य के पिछे, सगुणाबाई की प्रेरणा रही है. मुझे रह – रहकर आस्चर्य हो रहा है “कि हमारे देश में ढंग से इतिहास लेखन नहीं होने के कारण सगुणाबाई क्षीरसागर जैसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोगों को अनदेखा किया जाना कहाँ तक उचित है ?
क्योकि मुझे हमेशा लगता था ” कि 1818 में पेशवा, भिमा कोरेगांव की लड़ाई में हारने के बाद नौ सालों के भीतर, ( 1827 ) ज्योतिबा फुले का जन्म होता है. और” दोरी जल गई लेकिन बल नही गया” कहावत के जैसा समाज में चल रही सडी – गली परंपरा के रहते हुए किसी एक साधारण किसान परिवार में पैदा हुआ, ज्योति नाम का लड़का इतना बड़ी सामाजिक क्रांति करने के कारणों की, मुझे उत्सुकता थी. जो इस किताब में पामेला सरदार ने अंग्रेजी में सगुणाबाई क्षीरसागर के बारे में लिखा हुआ पढकर मैंने अपने शैली में देने का काम किया है.