— शैलेन्द्र चौहान —
वर्ष की शुरुआत में ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी ‘करप्शन परसेप्शन इंडेक्स 2021’ के अनुसार भारत की भ्रष्टाचार रैंक 85 रही। 2020 में भारत 180 देशों की सूची में 86वें पायदान पर था। गौरतलब है कि हर साल दुनिया भर में भ्रष्टाचार की स्थिति को बताने वाला यह इंडेक्स ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी किया जाता है। विशेषज्ञों और व्यवसायियों के अनुसार यह सूचकांक 180 देशों और क्षेत्रों को सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार के कथित स्तरों के आधार पर रैंक करता है। इस इंडेक्स में भारत को कुल 40 अंक दिए गए हैं। भारत के बारे में ‘ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल’ का कहना है कि भारत में स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है। वहीं 2019 के लिए जारी इंडेक्स को देखें तो उसमें भारत को 41 अंकों के साथ 80वें पायदान पर रखा था जो दिखाता है कि देश में भ्रष्टाचार की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। भारत दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में बना हुआ है।
यदि अन्य दक्षिण एशियाई देशों की बात करें तो भूटान की स्थिति सबसे बेहतर है, वो 68 अंकों के साथ 24वें स्थान पर है। इसके बाद मालदीव का नंबर है जो 43 अंकों के साथ 75वें स्थान पर है। इसके बाद भारत (86), श्रीलंका (94), नेपाल (117), पाकिस्तान (124) और फिर बांग्लादेश (146) का नंबर आता है जो कि दक्षिण एशिया का सबसे भ्रष्ट देश है। “भारतीय गरीब हैं लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा” – ये कहना था स्विस बैंक के पूर्व डाइरेक्टर का। हाल ही में स्विट्जरलैंड के केंद्रीय बैंक ने वार्षिक डाटा जारी किया है जिसमें बताया गया कि साल 2020 में स्विस बैंकों में भारतीयों का पैसा बढ़कर 20700 करोड़ रुपए जमा हुआ है। जो पिछले 13 सालों में सबसे अधिक है। कोरोना के समय अमीरों के यहां मूसलाधार धन वर्षा हुई। जरा सोचिए … हमारे भ्रष्ट राजनेताओं, चंद उद्योगपतियों और नौकरशाहों ने देश को कैसे लूटा है। और ये लूट का सिलसिला जारी है।
भारत में राजनीतिक एवं नौकरशाही का भ्रष्टाचार बहुत ही व्यापक है। ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल ने देश में लोकतांत्रिक स्थिति को लेकर चिंता जताई है। इतना ही नहीं उनके अनुसार पत्रकार और कार्यकर्ता विशेष रूप से खतरे में हैं। जो पुलिस, राजनैतिक उग्रवादियों, आपराधिक गिरोहों और भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों के हमलों के शिकार हुए हैं।
चुनावों में काले धन का उपयोग बहुत गंभीर मामला है। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, लोकसभा चुनाव के उम्मीदवार 70 लाख रुपये की कानूनी सीमा के खिलाफ कम से कम 30 करोड़ खर्च करते हैं। पिछले 10 वर्षों में लोकसभा चुनावों के लिए घोषित खर्च में 400% से अधिक की वृद्धि हुई है। जबकि उनकी आय का 69% अज्ञात स्रोतों से आया है। ध्यातव्य है कि देश के 30% से अधिक विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। जब कानून तोड़ने वाले कानून निर्माता बन जाते हैं, तो कानून का शासन में भ्रष्टाचार सबसे पहले होता है।
इसके अलावा न्यायपालिका, मीडिया, सेना, पुलिस आदि में भी भ्रष्टाचार व्याप्त है। विगत में भ्रष्टाचार, चर्चा और आन्दोलनों का एक प्रमुख विषय रहा है। लेकिन अब लगता है कि भारतवासियों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। अब मुद्दे हैं धर्म-संप्रदाय विरोध और देशद्रोह। लेकिन भ्रष्टाचार तो बड़े पैमाने पर है। जानकारों ने राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को ठीक से समझने के लिए ने उसे दो श्रेणियों में बाँटा है। सरकारी पद पर रहते हुए, उसका दुरुपयोग करने के जरिये किया गया भ्रष्टाचार और राजनीतिक या प्रशासनिक हैसियत को बनाये रखने के लिए किया जाने वाला भ्रष्टाचार।
पहली श्रेणी में निजी क्षेत्र को दिये गये ठेकों और लाइसेंसों के बदले लिया गया कमीशन, हथियारों की खरीद-बिक्री में लिया गया कमीशन, फर्जीवाड़े और अन्य आर्थिक अपराधों द्वारा जमा की गयी रकम, टैक्स-चोरी में मदद और प्रोत्साहन से हासिल की गयी रकम, राजनीतिक रुतबे का इस्तेमाल करके धन की उगाही, सरकारी प्रभाव का इस्तेमाल करके किसी कम्पनी को लाभ पहुँचाने और उसके बदले रकम वसूलने और फायदे वाली नियुक्तियों के बदले वरिष्ठ नौकरशाहों और नेताओं द्वारा वसूले जाने वाले अवैध धन जैसी गतिविधियाँ पहली श्रेणी में आती हैं।
दूसरी श्रेणी में चुनाव लड़ने के लिए पार्टी-फण्ड के नाम पर उगाही जाने वाली रकमें, वोटरों को खरीदने की कार्रवाई, बहुमत प्राप्त करने के लिए विधायकों और सांसदों को ख़रीदने में खर्च किया जाने वाला धन, संसद-अदालतों, सरकारी संस्थाओं, नागर समाज की संस्थाओं और मीडिया से अपने पक्ष में फैसले लेने या उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए खर्च किये जाने वाले संसाधन और सरकारी संसाधनों के आबंटन में किया जाने वाला पक्षपात आता है। राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार को समझने के लिए जरूरी है कि इन दोनों श्रेणियों के अलावा एक और विभेदीकरण किया जाए। यह है शीर्ष पदों पर होने वाला बड़ा भ्रष्टाचार और निचले मुकामों पर होने वाला छोटा-मोटा भ्रष्टाचार।
सूज़न रोज़ एकरमैन ने अपनी रचना ‘करप्शन एंड गवर्नमेंट : कॉजिज़, कांसिक्वेसिंज़ एंड रिफ़ॉर्म’ में शीर्ष पदों पर होने वाले भ्रष्टाचार को ‘क्लेप्टोक्रैसी’ की संज्ञा दी है। किसी भी तंत्र के शीर्ष पर बैठा कोई बड़ा राजनेता या कोई बड़ा नौकरशाह एक निजी इजारेदार पूँजीपति की तरह आचरण कर सकता है। हालाँकि एकरमैन ने भारत के उदाहरण पर न के बराबर ही गौर किया है, पर भारत में पब्लिक सेक्टर संस्थाओं के मुखिया अफसरों को ‘सरकारी मुगलों’ की संज्ञा दी जा चुकी है। न्यायाधीशों द्वारा किये जाने वाले न्यायिक भ्रष्टाचार की परिघटना भारत में अभी नयी है लेकिन उसका असर दिखाई देने लगा है। लेकिन दूसरी तरफ भारतीय उदाहरण ही यह बताता है कि भ्रष्टाचार का यह रूप न केवल शीर्ष पदों पर होने वाली कमीशनखोरी, दलाली और उगाही से जुड़ता है, बल्कि दोनों एक-दूसरे को शह देते हैं।
पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों से भारतीय लोकतंत्र में राज्य सरकारों के स्तर पर सत्तारूढ़ निजाम द्वारा अगला चुनाव लड़ने के लिए नौकरशाही के जरिये नियोजित उगाही करने की प्रौद्योगिकी लगभग स्थापित हो चुकी है। इस प्रक्रिया ने क्लेप्टोक्रैसी और सुविधा शुल्क के बीच का फर्क काफी हद तक कम कर दिया है। भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने और उसमें जीतने-हारने की प्रक्रिया अवैध धन के इस्तेमाल और उसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत बनी हुई है। यह समस्या अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण के दिनों में भी थी, लेकिन बाजारोन्मुख व्यवस्था के जमाने में इसने पहले से कहीं ज्यादा भीषण रूप ग्रहण कर लिया है।
एक तरफ चुनावों की संख्या और बारम्बारता बढ़ रही है, दूसरी तरफ राजनेताओं को चुनाव लड़ने और पार्टियाँ चलाने के लिए धन की जरूरत। नौकरशाही का इस्तेमाल करके धन उगाहने के साथ-साथ राजनीतिक दल निजी स्रोतों से बड़े पैमाने पर खुफिया अनुदान प्राप्त करते हैं। यह काला धन होता है। बदले में नेतागण उन्हीं आर्थिक हितों की सेवा करने का वचन देते हैं।
निजी पूँजी न केवल उन नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की आर्थिक मदद करती है जिनके सत्ता में आने की सम्भावना है, बल्कि वह चालाकी से हाशिये पर पड़ी राजनीतिक ताकतों को भी पटाये रखना चाहती है ताकि मौका आने पर उनका इस्तेमाल कर सके। राजनीतिक भ्रष्टाचार के इस पहलू का एक इससे भी ज्यादा अँधेरा पक्ष है। एक तरफ संगठित अपराध जगत द्वारा चुनाव प्रक्रिया में धन का निवेश और दूसरी तरफ स्वयं माफिया सरदारों द्वारा पार्टियों के उम्मीदवार बनकर चुनाव जीतने की कोशिश करना। इस पहलू को राजनीति के अपराधीकरण के रूप में भी देखा जाता है।
एक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व (जैसे अमेरिकी चुनावी प्रणाली), दूसरी- फर्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट (जैसे भारतीय चुनावी प्रणाली) के मुकाबले राजनीतिक भ्रष्टाचार के अंदेशों से ज्यादा ग्रस्त होता है। इसके पीछे तर्क दिया गया कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से सांसद या विधायक चुनने वाली प्रणाली बहुत अधिक ताकतवर राजनीतिक दलों को प्रोत्साहन देती है। इन पार्टियों के नेता राष्ट्रपति के साथ, जिसके पास इस तरह की प्रणालियों में काफी कार्यकारी अधिकार होते हैं, भ्रष्ट किस्म की सौदेबाज़ियाँ कर सकते हैं।
इस विमर्श का दूसरा पक्ष यह मानकर चलता है कि अगर वोटरों को नेताओं के भ्रष्टाचार का पता लग गया तो वे अगले चुनाव में उन्हें सज़ा देंगे और ईमानदार प्रतिनिधियों को चुनेंगे। लेकिन, ऐसा अक्सर नहीं होता। वोटर के सामने एक तरफ सत्तारूढ़ भ्रष्ट और दूसरी तरफ विपक्ष में बैठे संदिग्ध चरित्र के नेता के बीच चुनाव करने का विकल्प होता है। तथ्यगत विश्लेषण करने पर यह भी पता चलता है कि फायदे के पदों से होने वाली कमाई, विपक्ष की कमजोरी और पूँजी की शक्तियों के बीच गठजोड़ के कारण सार्वजनिक जीवन में एक ऐसा ढाँचा बनता है जिससे राजनीतिक क्षेत्र को भ्रष्टाचार से मुक्त करना तकरीबन असम्भव लगने लगता है। लेकिन दूसरी प्रणाली जहां कई स्तरों पर जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं और कई दल चुनावी समर में योद्धा बनकर उतरते हैं भ्रष्ट आचरण के मामलों में वह भी आनुपातिक प्रणाली से कमतर साबित नहीं हुई है।
भारत में हर तरह के भ्रष्टाचार का मुख्य सूत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था के हाथ में है। यदि भ्रष्टाचार को समाप्त करने की कभी कोई भी सार्थक पहल हो तो अवश्य ही उसमें राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक बदलाव एक मुख्य आधार होगा।
भ्रष्टाचार (आचरण) की कई किस्में और डिग्रियाँ हो सकती हैं, लेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार समाज और व्यवस्था को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। अगर उसे संयमित न किया जाए तो भ्रष्टाचार मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के मानस का अंग बन सकता है। मान लिया जाता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सभी को, किसी को कम तो किसी को ज्यादा लाभ पहुँचा रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार एक-दूसरे से अलग न होकर परस्पर गठजोड़ से पनपते हैं।
इस भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट पूँजी की भूमिका भी होती है। बाजार की प्रक्रियाओं और शीर्ष राजनीतिक- प्रशासनिक मुकामों पर लिये गये निर्णयों के बीच सॉंठगाँठ के बिना यह भ्रष्टाचार इतना बड़ा रूप नहीं ले सकता। आजादी के बाद भारत में भी राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की यह परिघटना तेजी से पनपी है। एक तरफ शक किया जाता है कि बड़े-बड़े राजनेताओं का अवैध धन स्विस बैंकों के खुफिया खातों में जमा है और दूसरी तरफ तीसरी श्रेणी के क्लर्कों से लेकर आईएएस अफसरों के घरों पर पड़ने वाले छापों से करोड़ों-करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुई है।
राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को ठीक से समझने के लिए अध्येताओं ने उसे दो श्रेणियों में बाँटा है। सरकारी पद पर रहते हुए उसका दुरुपयोग करने के जरिये किया गया भ्रष्टाचार और राजनीतिक या प्रशासनिक हैसियत को बनाये रखने के लिए किया जाने वाला भ्रष्टाचार।
पहली श्रेणी में निजी क्षेत्र को दिये गये ठेकों और लाइसेंसों के बदले लिया गया कमीशन, हथियारों की खरीद-बिक्री में लिया गया कमीशन, फर्जीवाड़े और अन्य आर्थिक अपराधों द्वारा जमा की गयी रकम, टैक्स-चोरी में मदद और प्रोत्साहन से हासिल की गयी रकम, राजनीतिक रुतबे का इस्तेमाल करके धन की उगाही, सरकारी प्रभाव का इस्तेमाल करके किसी कम्पनी को लाभ पहुँचाने और उसके बदले रकम वसूलने और फायदे वाली नियुक्तियों के बदले वरिष्ठ नौकरशाहों और नेताओं द्वारा वसूले जाने वाले अवैध धन जैसी गतिविधियाँ पहली श्रेणी में आती हैं। दूसरी श्रेणी में चुनाव लड़ने के लिए पार्टी-फण्ड के नाम पर उगाही जाने वाली रकमें, वोटरों को खरीदने की कार्रवाई, बहुमत प्राप्त करने के लिए विधायकों और सांसदों को खरीदने में खर्च किया जाने वाला धन, संसद-अदालतों, सरकारी संस्थाओं, नागर समाज की संस्थाओं और मीडिया से अपने पक्ष में फैसले लेने या उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए खर्च किये जाने वाले संसाधन और सरकारी संसाधनों के आबंटन में किया जाने वाला पक्षपात आता है।
चुनावों के बाद नेताओं की संपत्ति बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बढ़ने लगती है। ये पैसा कहां से आता है इसपर सभी दल मौन साधे रहते हैं।
अगर बड़े नेताओं को छोड़ भी दिया जाए जो अगाध संपत्ति के मालिक बन चुके हैं और महज छुटभैयों की बात की जाए तो सिर्फ विधायकों का क्या रंगारंग हाल है यह सभी प्रांतों में देखा जा सकता है। राजाओं, नवाबों के ठाठ इनके सामने पानी भरते नजर आएंगे। यह है विधायकों की स्थिति, फिर सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है.
किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। भारत में राजनीतिक दलों की व्यवस्था चुनाव आयोग के कितने नियंत्रण में है इसका आकलन जन प्रतिनिधित्व कानून की केवल एक धारा-29 से लगाया जा सकता है। इस धारा-29 में नया राजनीतिक दल गठित करने के लिए चुनाव आयोग को पूर्ण विवरण सहित एक आवेदन दिया जाता है जिसमें मुख्य कार्यालय तथा पदाधिकारियों और सदस्यों की संख्या का विवरण दिया जाना होता है। इसी धारा में यह प्रावधान है कि कोई भी राजनीतिक दल व्यक्तिगत नागरिकों या कम्पनियों से दान स्वीकार कर सकता है। इसी धारा में यह प्रावधान है कि हर राजनीतिक दल का कोषाध्यक्ष चुनाव आयोग को अपने दल की वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा जिसमें उन व्यक्तियों या कम्पनियों के नाम शामिल करना आवश्यक होगा जिन्होंने क्रमश: 20,000 और 25,000 रुपए से अधिक दान विगत वर्ष में दिया हो। इस धारा-29 में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिसमें राजनीतिक दल द्वारा वित्त के संबंध में अनियमितता बरते जाने पर सजा या जुर्माने आदि की कोई आपराधिक व्यवस्था हो। इसी कमी का लाभ उठाते हुए भारत के सभी राजनीतिक दल पूरी तरह से गुप्त रहकर कार्य करने में सफल हो जाते हैं जिससे कि उनके वित्तीय लेन-देन जनता के सामने न आ पाएं।
राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाने की आवाज उठी तो सभी राजनीतिक दल अपने सारे मतभेद भुलाकर इस बात पर एकजुट हो गए कि ऐसा नहीं होना चाहिए। स्पष्ट था कि राजनीतिक दल अपनी कार्यप्रणाली को विशेष रूप से वित्तीय लेन-देन को जनता के समक्ष नहीं आने देना चाहते थे।
जर्मनी में राजनीतिक दलों को अपनी सम्पत्तियां, आय के सभी स्रोत तथा खर्चों का विवरण राष्ट्रपति को प्रस्तुत करना होता है। यह सारा विवरण चार्टर्ड अकाउंटेंट से अनुमोदित होना चाहिए। यदि राष्ट्रपति आवश्यक समझे तो इन खातों की जांच दोबारा भी किसी अन्य चार्टर्ड अकाउंटेंट से करवा सकता है। इस प्रकार अन्तिम रूप से खातों की जांच रिपोर्ट जनता के लिए प्रकाशित की जाती है। जर्मनी में कोई भी राजनीतिक दल किसी कम्पनी आदि से दान नहीं स्वीकार कर सकता। नकद दान स्वीकार करने की सीमा भी 1000 यूरो तक की है। इससे अधिक राशि का दान केवल चैक से ही स्वीकार किया जा सकता है। 500 यूरो तक की राशि का दान किसी गुमनाम व्यक्ति से स्वीकार किया जा सकता है इससे अधिक नहीं।
इंगलैंड में भी भारत की तरह चुनाव आयोग विद्यमान है जो प्रत्येक राजनीतिक दल के वित्तीय ढांचे पर पूर्ण नियंत्रण का अधिकार रखता है जिसमें नियमित रूप से प्रतिवर्ष खातों को चार्टर्ड अकाउंटेंट से अनुमोदित करवाकर चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत करना अनिवार्य है। अमरीका में भी राजनीतिक दलों के लिए वित्तीय खातों को चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत करना और उन्हें अपनी वैबसाइट पर प्रदर्शित करना अनिवार्य है।
फ्रांस के कानून के अनुसार कोई राजनीतिक दल यदि किसी कम्पनी से दान वसूल करता है तो उसे सरकारी खर्च की सहायता प्राप्त नहीं होगी। ऐसी सजा का डर राजनीतिक दलों को खुलेआम अपमानजनक परिस्थिति का सामना करने की धमकी है। इन सब उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि भारत में चुनावी भ्रष्टाचार समाप्त करने का एक सरल उपाय यही हो सकता है कि प्रत्येक राजनीतिक दल के वित्तीय खातों पर निर्वाचन आयोग का नियंत्रण कड़ा किया जाना चाहिए। यह कार्य स्वयं राजनीतिक दल तो कदापि नहीं करेंगे, अत: सर्वोच्च न्यायालय को ही इस प्रकार की व्यवस्था सुनिश्चित कराने के लिए पहल करनी होगी अन्यथा भारतीय राजनीतिक दलों को मिलने वाला गुप्त दान कभी भी चुनावी भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होने देगा।
राजनीतिक दलों पर अंकुश लगाने का एक बहुत साधारण उपाय है कि इनके वित्तीय लेन-देन को चुनाव आयोग के समक्ष प्रत्येक तिमाही अथवा छमाही अवधि के बाद प्रस्तुत करना अनिवार्य बना दिया जाए और ऐसा न करने वाले राजनीतिक दलों के मुख्य पदाधिकारियों पर दंडात्मक कार्रवाई की जाए।
राजनीतिक दलों पर कार्रवाई के लिए भी चुनाव आयोग को ऐसे अधिकार दिए जाने चाहिए। भ्रष्टाचार की कई किस्में और डिग्रियाँ हो सकती हैं, लेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार समाज और व्यवस्था को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। अगर उसे संयमित न किया जाए तो भ्रष्टाचार मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के मानस का अंग बन सकता है। मान लिया जाता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सभी को, किसी को कम तो किसी को ज्यादा लाभ पहुँचा रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार एक-दूसरे से अलग न होकर परस्पर गठजोड़ से पनपते हैं। खास बात यह है कि इस भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट पूँजी की भूमिका भी होती है। बाजार की प्रक्रियाओं और शीर्ष राजनीतिक-प्रशासनिक मुकामों पर लिये गये निर्णयों के बीच सॉंठगाँठ के बिना यह भ्रष्टाचार इतना बड़ा रूप नहीं ले सकता।
आजादी के बाद भारत में भी राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की यह परिघटना तेजी से पनपी है। एक तरफ शक किया जाता है कि बड़े-बड़े राजनेताओं का अवैध धन स्विस बैंकों के खुफिया खातों में जमा है और दूसरी तरफ तीसरी श्रेणी के क्लर्कों से लेकर आईएएस अफसरों के घरों पर पड़ने वाले छापों से करोड़ों-करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुई है।