— किशन पटनायक —
आधुनिक मनुष्य के कालबोध का एक नमूना पिछले दिनों हमारे अनुभव में आया। मनुष्य जाति के आगामी समय को कुछ लोगों ने 21वीं सदी के रूप में देखना शुरू किया, बाद में शताब्दी का स्थान सहस्राब्दी ने ले लिया। दुनिया के शासक वर्गों ने और उनके बुद्धिजीवियों ने सहस्राब्दी का साथ दिया। इसलिए शताब्दी का प्रायः लोप हो गया।
दोनों में गुणात्मक अंतर था। आगामी समय का वास्तविक बोध सहस्राब्दी में नहीं हो सकता है। मनुष्य के पास जितने ज्ञान तथा बोध की क्षमता है, उसके सहारे आनेवाले एक हजार सालों की कोई मोटी तस्वीर भी नहीं अंकित की जा सकती है। समझदार और संवेदनशील लोग अवश्य आनेवाले एक सौ साल का मोटा अनुमान लगा सकते हैं। इतना ही नहीं जिनकी दीर्घकालीन दृष्टि है और संकल्प वृत्ति है वे आगामी सौ साल के लिए मानव कल्याण की योजनाएं बना सकते हैं। हजार सालों में क्या होगा इसका उत्तर कोई कुछ भी दे सकता है। उसके खंडन का उपाय नहीं है, उसकी पुष्टि के लिए कोई पद्धति नहीं है।
डेढ़ दशक पहले जब शताब्दी की शब्दावली चल रही थी, तब 21वीं सदी को एक सुनहरे युग के रूप में पेश करने की कोशिश हुई थी, लेकिन भविष्य की जो झलक मिली, उससे उत्साह घट गया। आनेवाले सौ सालों को स्वर्ण युग कहकर विश्व के जनसाधारण को, युवा पीढ़ी को बहकाया नहीं जा सकता था, क्योंकि सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी 30-40 साल के भविष्य के बारे में अंदाजा कर ही लेता है, यह जरूर समझ जाता है कि उसके अपने जीवनकाल में सुख-दुख की स्थितियों में कितना सुधार संभव है। सच पूछे तो 21वीं सदी या उसके प्रथमार्ध की अवधि का चित्र निराशापूर्ण है, संकटमय है, यह समय मानव इतिहास का सबसे बर्बरतम युग भी हो सकता है। जितनी सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी, कंगाली, बीमारी, जीविका की अनिश्चयता, हिंसा, अपराध, औरत का शोषण इस अर्धशताब्दी में होनेवाला है उतना पिछले छह हजार सालों की चर्चित सभ्यताओं के समाजों में नहीं हुआ था।
एक औसत व्यक्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों की इतनी कमी कभी नहीं हुई थी। और सबसे अधिक कमी ज्ञान की होने जा रही है। ज्ञान की विश्वसनीयता में इतनी कमी कभी नहीं थी।
जनसाधारण के लिए कभी ज्ञान धर्म के रूप में आया, फिर कभी शास्त्र के रूप में और विचारधारा के रूप में आया। अब सूचना को ही ज्ञान के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है। सूचना और ज्ञान पर्यायवाची नहीं हैं। हालांकि कुछ शक्तिशाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा दोनों को समानार्थक करने की कोशिश की जा रही है। ताकि ज्ञान अनेक न होकर एक हो जाए और उसके द्वारा सारे मनुष्यों को एक ही ढंग से विचारबद्ध करना संभव हो जाए। हर समाज में एक युग दृष्टि होती है। उपलब्ध सूचनाओं को जब इस दृष्टिकोण के तहत व्यवस्थित किया जाता है, तब शास्त्र का निर्माण होता है। एक ही शास्त्र में अलग-अलग धाराएँ हो सकती हैं, परंतु उनमें एक ही युग दृष्टि प्रवाहित होती है।
19वीं सदी और 20वीं सदी में यूरोप में आधुनिक शास्त्रों का चरमोत्कर्ष हुआ, शास्त्रों के आधार पर एक समग्र समझ बनाने की कोशिश हुई। इस समग्र समझ को हम विचारधारा कह रहे हैं। शास्त्रों और विचारधाराओं का जो दबाव सामान्य सचेत नागरिक की चेतना पर होता है उसी से उसकी एक समझ बनती है तथा वह समाज में या राज्य में या मानवीय स्थिति में सुधार की कोशिशों में हिस्सेदारी करता है। मानव विकास के लिए ज्ञान और विचारधारा की यह एक भूमिका है।
प्राचीनकाल तथा मध्ययुग के समाजों के बारे में कहा जा सकता है कि उनमें धार्मिक और आध्यात्मिक शास्त्रों की विश्वसनीयता थी। आधुनिक काल में धर्मशास्त्रों की विश्वसनीयता गौण हो गई है, फिर भी अधिकांश मनुष्यों के अवचेतन में जो धार्मिक आस्थाएं या पारंपरिक नीतिगत आस्थाएं बनी हुई हैं उन्हीं के साथ जोड़कर आधुनिक मनुष्य़ समकालीन सूचनाओं से अपनी एक विचारदृष्टि विकसित करता है।
उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय शास्त्रों की, सामाजिक और भौतिक विज्ञानों की विश्वसनीयता चरम शिखर पर थी। 20वीं सदी का बहुतांश विचारधाराओं का युग था। जब राष्ट्रवाद, उदारवाद, साम्यवाद, समाजवाद आदि सामाजिक-राजनैतिक विचारधाराएं दुनिया में सर्वत्र प्रभावी हो गई थीं। बुद्धिजीवियों पर इन विचारधाराओं का इतना जबरदस्त प्रभाव था कि वे साहित्य, कला आदि के सृजन कार्य में इनसे प्रेरणा लेते थे। अस्तित्ववाद जैसे दार्शनिक विचार को उदारवाद और साम्यवाद का सहारा मिला। कुछ कलाकारों, कवियों का तो फासीवादी विचारधारा से भी जुड़ाव रहा। बल्कि साहित्यकारों-कलाकारों का एक अंश हमेशा रहा है जो ‘शक्ति’ से अभिभूत होता है और सर्वसत्तावादी शासकों में अवतार का दर्शन करता है। इन बातों का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक है कि सृजन कार्य किसी विचार केंद्र से उत्पन्न होता है, या विचार केंद्र को उद्भासित करता है।
धर्म यानी धार्मिक विचारधाराओं ने मनुष्य के मन और मस्तिष्क को जितनी गहराई में जाकर प्रभावित किया था, आधुनिक काल की सामाजिक-राजनैतिक विचारधाराओं का प्रभाव उतना गंभीर नहीं था, फिर भी वह विश्वव्यापी था। ज्ञान तथा विचारधाराओं पर जब लोगों का विश्वास होता है तब भविष्य निर्माण के लिए और परिस्थितियां बदलने के लिए मनुष्यों में आशा और प्रेरणा होती है। 19वीं सदी से 20वीं सदी के प्रथमार्ध तक शास्त्रों के प्रति अटूट विश्वास था, तब शिक्षित जनों की यह समझ थी कि शास्त्रों के बल पर समाज के संबंधित विषयों की समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
औसत नागरिक की यह समझ थी कि विशेषज्ञों को समस्याओं के निदान का पता रहता है। ज्ञान पर यह भरोसा था। विश्वास के और आत्मविश्वास के इस माहौल में बड़ी संख्या में लोग अपने अल्पकालिक सुख और स्वार्थ से ध्यान हटाकर मनुष्य जाति के लिए एक कल्याणकारी भविष्य निर्माण के कार्यकलाप में शामिल होते थे।
कुछ विचारधाराएं अधिक आशा और उत्तेजना पैदा करती थीं। तो दुनिया के लाखों लोग उनसे प्रेरित होते थे। इसी तरह से 20वीं सदी का बहुतांश महा आंदोलनों का युग बन गया। शताधिक राष्ट्रों को राजनैतिक आजादी मिली, कई मुल्कों में साम्यवादी क्रांति की विजय हुई, समाजवादियों ने यूरोप के कई देशों में लोक कल्याणकारी राज्य का माडल बनाया। 1980 के दशक में इन सारे आंदोलनों और विचारधाराओं का बिखराव शुरू हो गया था। 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ, जो आधुनिक इतिहास का एक निर्णायत्मक मोड़ है। यह समय विचारधाराओं के पतन का था। केवल साम्यवादी विचार की नहीं, यूरोपीय ज्ञान से निर्गत जितनी भी मानव कल्याणकारी, समत्ववादी, स्वातंत्र्यवादी विचारधाराएं थीं, सबका मानो मध्यस्थल धॅंस गया। इससे जिनको विजय का अनुभव हुआ, उन्होंने घोषणा कर दी कि विचारधाराओं का अंत हो गया है। बाजार सर्वोपरि है। पूंजीवाद में संकट आ सकता है। लेकिन उसकी पराजय नहीं हो सकती। बाजार के तर्कों को अमान्य करके कोई मानव कल्याणकारी व्यवस्था नहीं बन सकती है। अतः विचारधारा का अंत हमेशा के लिए हो गया है।
जिन सारी समत्ववादी, स्वातंत्र्यवादी, मानव कल्याणकारी विचारधाराओं का विश्वव्यापी प्रभाव हो गया था, उनकी उत्पत्ति का स्थल यूरोप था। यूरोप का वह अंश जहां औद्योगिक क्रांति का प्रारंभ सघन रूप से हुआ था औद्योगिक क्रांति ने यूरोप में नए प्रकार की समृद्धि पैदा कर दी, यंत्रों की क्रांति आ गई और यंत्रों के बल पर समृद्धि की असीम कल्पनाएं आ गईं। उससे प्रेरित होकर पश्चिम के मनीषियों, विचारकों ने सोचा कि इसी समृद्धि के सहारे मानव समाज से गरीबी, अन्याय और शोषण को दूर किया जा सकेगा। इस सोच ने उदात्त कल्पना का रूप ले लिया। विचारधाराओं का निर्माण इस मूलधारणा के इर्द-गिर्द हुआ। इस विचार से जुड़ना पश्चिम के लोगों के लिए स्वाभाविक था।
एशिया, अफ्रीका, लातीन अमरीका के नेता जब अपनी उच्च शिक्षा के लिए यूरोप के देशों में गए तो वे भी वहां के वैभव से और चमत्कारी यंत्रों से अभिभूत हुए। अपने देशों में वापस आकर इस मूल धारणा को उन्होंने प्रचारित किया कि टेकनोलॉजी के द्वारा अपार समृद्धि पैदा हो सकती है और समृद्धि के साथ-साथ गरीबी और अन्याय से मुक्ति मिल सकती है। किसी को पूंजीवाद में वह मुक्ति दिखाई दी, किसी को साम्यवाद में, किसी को राष्ट्रवाद में- मूल धारणा सिर्फ यह थी कि औद्योगीकीकरण अनंत समृद्धि का उत्स है और समृद्धि से समस्याओं के अंत का उपाय निकलेगा।
गांधीवाद को भी एक विचारधारा के रूप में गढ़ने की कोशिश की गई थी। यह कोशिश सफल नहीं हुई। इसको गढ़ने के लिए बुद्धिजीवियों का कोई समूह तैयार नहीं था। ज्ञान की प्रचलित मूल धारणाओं से गांधी-विचारों का टकराव था। आधुनिक विज्ञान और टेकनोलॉजी के बल पर किसी देश को समृद्ध से लेकर अति समृद्ध बनाया जा सकता है- यह विश्वास कितना गहरा था इसका अंदाजा रूस और चीन के कम्युनिस्ट शासकों की घोषणाओं से मिलता है।
सोवियत रूस के शासकों का दावा था कि सोवियत संघ कुछ ही दशकों में अमरीका से अधिक संपन्न हो जाएगा। चीन के कम्युनिस्ट शासकों का कहना था कि हम बीस साल बाद रूस के बराबर हो जाएंगे और उसके तीस सालों बाद अमरीका जैसे हो जाएंगे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जब द्वितीय पंचवर्षीय योजना के औद्योगिक परियोजना की नींव डालने जाते थे तो इन स्थलों को आधुनिक मंदिर कहते थे जहां से समृद्धि का उदय होने पर बाद में सबके बीच उसका बंटवारा हो सकेगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जितने देश आजाद हुए उनके नेतृत्व ने इसी तरह सोचा। जिन देशों का नेतृत्व जितना अधिक आधुनिक विद्या में शिक्षित था, उन देशों में आधुनिक समृद्धि की उतनी ही अधिक उम्मीद होती थी।
(बाकी हिस्सा कल)