1. जीते जी
गले की नाप की रस्सियों को दर्ज़ करना था
शरीर से टहनी तक बल्ली और पंखे तक की
लम्बाई को इंच और सेंटीमीटर में नापकर बाद में आए
दुख और आँसुओं के साथ तुलना में दर्ज़ करना था
क़र्ज़ को हिसाब में ब्याज सहित लिख
अन्य उधारियों के फुटकर को जोड़कर
इस बार की फसल के चौपट के चार को
मुआवज़े की प्रतीक्षा के अनन्त में अन्त को
पढ़ा जा सके की तरह गाढ़ा दर्ज़ करना था
परिजनों की संख्या में एक बूढ़ी बुआ जोड़
दो-चार बूढ़ी गइयों और एक मरियल कुत्ते को
रोटी की आस में गुज़रते खखारते लंगड़ को
खपरैल पर धौल मचाते चार-छह पक्षियों को
भागना, घटाना नहीं जोड़ में दर्ज़ करना था
मरने के बाद दर्ज़ किया जाएगा
बयान, पंचनामा, अफ़सोस, तारीफ़
जीते जी, जी सकने को जी भर दर्ज़ करना था.
2. निःशब्द में भी
शब्द होते हैं
उनके समुच्चय से बनते वाक्य भी
वाक्यों से बनती इबारत
इबारत में डूबी कथा
कथा में छुपा जीवन
जीवन होने की लालसा को उकेरता
कथा जीवन
शब्द तो होते हैं
बहुत सारी अभिव्यक्तियों को
पीठ पर लादे लेकिन सहमे और ठिठके हुए
बोझा उतारने की आतुरता में व्यग्र
हम उन्हें रोक देते हैं
होंठों के पार की दुनिया में
नहीं आने देते
उनके बाहर आने के बाद के
घटित के संशय
उन्हें संदिग्ध बना देते हैं
वे होते हैं
निःशब्द के सतही बहानों के बावजूद
अर्थों से भरे भावों से आपूरित
व्यंजनाओं से समृद्ध
औचक उत्सुक अधीर को प्रकट करते
नहीं रोके जाते यदि वे
तो क्या होता, इससे बेख़बर
हम उन्हें रोकने के अनवरत अभियान में
लगे रहते हैं
हम उन्हें रोक सकते हैं
लेकिन नहीं जानते हम
कि दरअसल इस प्रक्रिया में
हम नहीं वे हमें पूरी तरह
स्थगित कर देते हैं
शब्द
निःशब्द में भी होते हैं.
3. मर्त्य
मरना नहीं था
अमरता के गल्प को ठेलना था
रचना बसना था इतना कि
एक मुकम्मल थकान तो हो सके
बोलना था जोर-जोर से कि
होने का गुमान तो हो सके
तेज़-तेज़ चलना था
ठिठकना था अचानक
सारे सूत्र पास हैं अपने
ऐसा भान तो हो सके
झिड़कना था कुतर्कों को
लपक कर पकड़ना था मौन
बहना था संकटों में रोज़-रोज़
जीते रहने का सम्मान तो हो सके
नग्न समूहों ने पत्थरों पर बैठकर
शब्दों के बिना कह खो दी जब नग्नता
हम चिह्न ढूंढ़ते लोप हो रहे रास्तों में
आवाज़ों ने अलग कर दिया
देह के ताप में ओट हुई आत्मा की लौ
मरना अन्यों के यथार्थ का वाक्यरूप है
अमरता के गल्प को ठेलना था
मरना नहीं थाथा.
4. हम ही कहाँ
प्राप्य अपूर्ण हैं
अधूरी हैं कामनाएँ
द्वार पर ठिठके हुए हैं
मिल रही हैं वंचनाएँ
पात्र हो सकते जिस
अनुराग के अभिसार के
औदात्य जीवन से
प्रकट हो कर सकें उज्ज्वल
किसी की चाहना को
घटित होता नहीं कुछ
इस तरह जीवन में
कि तृप्त होने का
किंचित सम्भव गुमान हो
राग हैं जितने
सभी बिखरे हुए हैं
दैन्य करता अतिक्रमित
उपस्थिति को हमारी
कोई उजली दृष्टि
स्थिर, जड़ होने से
विचलित नहीं करती
हम ही तत्पर कहाँ बैठे?
5. अवान्तर
अकुलाहट में विन्यस्त अटूट का सिलसिला
स्थिर बने रहने के अभिनय में डगमगाता उद्विग्न
निष्कम्प के ठीक आगे की कंपकंपाहट
ज़िद में विलीन क्षोभ
उत्कंठा में श्लथ अवसाद
बेरहमी के उपसर्ग से विलग
उद्यत रहम
6. निर्धारितों की ज्यामिति
ठिठकना कोष से बाहर जीवन में फैल चुका है
आकांक्षा स्थगन के विरुद्ध ठंडे आवेग में जूझती है
सम्मुख की स्मृति अडिग मुँह फेरती कायम है अडिग पर
एक आहट टोकती है
मौन को मेरे.
7. मौन नहीं
कुछ शब्द चाहिए थे, खामोशी नहीं
किसी उर्वर स्वप्न की
फैलती हुई उम्मीद की तरह
भविष्य की ठोस सतह चाहिए थी
अपने भुरभुरे इरादों के विलोम
किसी ठोस आश्वस्ति की उम्मीद चाहिए थी
कम नहीं बहुत ज़्यादा चाहिए था
बहुत ज्यादे के स्वप्न में तैरते हुए को
एक रोशनदान की जब गुजारिश थी
अनसुनी रहीं पंक्तियाँ
प्रतीक्षातुर है बहुत सारा
तुम्हारे स्वप्न रचते हैं अपना आकाश
दूर छिटका टूटा तारा देखो
मेरे होने का अहसास मिले
शायद.
शब्दों के अलावा
कुछ वाक्य प्रतीक्षित हैं
एक ध्वनि कोई पुकार देगी
प्रतीक्षित है ध्वनि
एक दृष्टि साथ की आकांक्षा का
एहसास देगी
कुछ स्पर्श थामने की विह्वलता को
खुरच देंगे
बांहें शिथिल होकर
विश्रांति खोजेगी बांहों में
एक जीवन दूसरे में तिरोहित करेगा खुद को
शब्दों के बाहर फैल चुकी है पुकार
उसका वरण करो.