20 मार्च। ‘ग्लोबल कमीशन ऑन इकनोमिक्स ऑफ वॉटर’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले वर्षों की अभूतपूर्व बाढ़, सूखा और बेतहाशा पानी से होने वाली घटनाएं अप्रत्याशित नहीं, बल्कि मानव द्वारा दशकों से चले आ रहे पानी के कुप्रबंधन से होने वाली व्यवस्थित संकट (सिस्टेमेटिक क्राइसेस) का नतीजा है। वैश्विक स्तर पर भारत 2019 में पानी की कमी का सामना करने के मामले में 13वें स्थान पर था, और तब से इस रेटिंग में साल दर साल लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ प्रभावी ढंग से नियमों को लागू करने की सीमाएं और उद्योग में पानी की बढ़ती खपत, कृषि, थर्मल पावर जेनरेशन में पानी की बढ़ती जरूरत ने भारत को सबसे अधिक जल-तनावग्रस्त देशों में से एक बना दिया है।
हर दिन पानी की जरूरतें तेजी से बढ़ रही हैं, जबकि इस्तेमाल के लायक साफ पानी की मात्रा तेजी से घट रही है। भारत में उपलब्ध जल आपूर्ति 1100-1197 बिलियन क्यूबिक मीटर(बीसीएम) के बीच है, और यह बढ़ते प्रदूषण की वजह से लगातार कम हो रहा है। इसके विपरीत वर्ष 2010 में 550-710 बीसीएम की माँग 2050 में बढ़कर लगभग 900-1400 बीसीएम तक होने की उम्मीद है। शहरी इलाकों में 22.2 करोड़ से ज्यादा भारतीय पानी की भारी किल्लत का सामना कर रहे हैं। ‘पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च’ के निदेशक जोहान रॉकस्ट्रॉम के मुताबिक, पानी के बिना जलवायु परिवर्तन का हर नजरिया अधूरा है। जल-संकट ग्लोबल वार्मिंग और जैव विविधता के नुकसान से बंधा हुआ है, जो खतरनाक रूप से एक दूसरे को मजबूत कर कर रहे हैं।
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