— विमल कुमार —
यूं तो देश में ‘अमृत काल’ चल रहा है लेकिन अगर यह कहा जाए कि यह ‘अंधा युग’ है तो इसमें शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सुप्रसिद्ध नाटककार रामगोपाल बजाज ने पिछले दिनों ‘अंधा युग’ जैसे क्लासिकल नाटक के मंचन के अवसर पर आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि सतयुग, द्वापर युग और कलयुग के बाद हम ‘अंधा युग’ में जी रहे हैं क्योंकि हम गहरे मानवीय संकट से गुजर रहे हैं; विश्व में युद्ध और अशांति का माहौल है, शायद उनका इशारा यूक्रेन युद्ध और वर्तमान भारतीय राजनीति तथा सत्ता व्यवस्था की ओर भी था। उन्होंने यह भी कहा कि अभिनय तो सबसे अधिक भारतीय राजनीति में है यानी आज देश में जिस तरह की राजनीति हो रही है उसमें एक तरह का झूठ, छल, पाखंड अधिक व्याप्त है। ‘अभिनय’ से उनका इशारा शायद इस तरफ ही था।
दरअसल ‘अंधा युग’ का संदर्भ यहां यह है कि देश का प्रतिष्ठित रंगमंच संस्थान नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा एक बार फिर तीन दशकों के बाद ‘अंधायुग’ का मंचन कर रहा है। यह नाटक 1954 में लिखा गया और अब इसको 70 वर्ष हो गए। हमारी आजादी के भी 75 वर्ष हो गए। इस तरह से यह नाटक आजाद भारत के छल-प्रपंच और सत्ता-संघर्ष तथा मोहभंग का भी प्रतीक बन गया और देखते-देखते यह भारतीय साहित्य का एक ‘कालजयी’ नाटक माना जाने लगा है। शेक्सपियर, इब्सन, बर्नार्ड शा, ब्रेख्त, चेखव के नाटकों की तरह अंधा युग भी क्लासिक नाटक बन गया। आखिर इसकी लोकप्रियता और श्रेष्ठता का कारण या पैमाना क्या है।
प्रख्यात नाटककार गिरीश कर्नाड तो इसे गत 5 हजार सालों का सर्वश्रेष्ठ नाटक मानते थे। वैसे श्री बजाज ने यह भी कहा, गिरीश कर्नाड ने एक बार एनएसडी के समारोह में ऑन रिकॉर्ड कहा था कि शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’ के बाद ‘अंधा युग’ सबसे महत्त्वपूर्ण नाटक है। श्री बजाज ने टैगोर और अज्ञेय के नाटक का भी जिक्र किया कि उन्हें टैगोर और अज्ञेय के नाटक भी कम पसंद नहीं।
एनएसडी रंगमंडल विश्व थिएटर दिवस के मौके पर इस कालजयी नाटक ‘अंधा युग’ का मंचन कर रहा है।
महाभारत के युद्ध पर आधारित यह नाटक ऐसे समय में हो रहा है जब रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध एक साल से चल रहा है और दुनिया बेबस तमाशा देख रही है। महाभारत के समय भी ऐसी ही स्थिति थी। इसलिए महाभारत की स्थितियां मानव इतिहास में हमेशा रहीं पर सबसे अधिक नुकसान आम मनुष्य को हुआ। युद्ध से कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
यूँ तो इस नाटक का पहला प्रदर्शन 1962 में मुंबई में सत्यदेव दुबे के निर्देशन में टेरेस पर हुआ था जबकि एनएसडी के संस्थापक निदेशक इब्राहम अलका जी ने 8 अक्टूबर 1963 को फिरोजशाह कोटला में इसे किया था जिसे देखने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आए थे। उस समय यह नाटक एक बड़े शो के रूप में भव्य अंदाज में किया गया था। आज तक उस भव्यता की चर्चा नाट्यजगत में होती है। उसे एक मील का पत्थर माना जाता है।
एनएसडी रंगमंडल 26, 27 और 28 मार्च को यह नाटक कर रहा है। गौरतलब है कि रंगमंडल अगले साल अपनी स्थापना के 60 वर्ष पूरे करेगा। इस दृष्टि से भी इस नाटक का मंचन महत्त्वपूर्ण है।
हिंदी के प्रख्यात लेखक तथा ‘धर्मयुग’ के संपादक स्व धर्मवीर भारती द्वारा लिखित इस नाटक का निर्देशन सुप्रसिद्ध अभिनेता एवं एनएसडी के पूर्व निर्देशक राम गोपाल बजाज कर रहे हैं। उन्होंने 1982 में भी इस नाटक का निर्देशन किया था।
‘मिर्च मसाला’, ‘मासूम चांदनी’ और ‘परज़ानिया’ जैसी फिल्मों में काम कर चुके श्री बजाज ने पत्रकारों से कहा कि जब तक दुनिया में युद्ध, अशांति और मानवीय संकट बना रहेगा विवेक की हार होगी यह नाटक खेला जाता रहेगा। उन्होंने कहा कि आज सबसे अधिक अभिनय राजनीति में हो रहा है। यह राजनीति के अंधा युग का समय है और भारतीय मीडिया को भी दवाब में काम करना पड़ रहा है।वहः भी पाबंदियों और मजबूरियों का शिकार है। पत्रकार जो कहना चाहते हैं नहीं कह पाते। यह सूचना का अंधायुग है।”
पद्मश्री और कालिदास पुरस्कार से सम्मानित बजाज ने बताया कि वह इस नाटक को असमिया और तेलुगु भाषा में भी निर्देशित कर चुके हैं। यह नाटक लाल किले और तालकटोरा स्टेडियम में भी हो चुका है। 1963 में उन्होंने भी इस नाटक में अभिनय किया था।
एनएसडी के कुलसचिव ज्वाला प्रसाद ने बताया कि इस नाटक पर करीब 18 लाख रुपए खर्च होंगे। पिछले साल विश्व थिएटर दिवस पर अभिज्ञान शकन्तुलम नाटक किया गया था।
सबसे बड़ी बात है कि इस नाटक के शो के टिकट अभी से ही बिक चुके और एनएसडी इसका अतिरिक्त शो करने जा रहा है।
बजाज से पूछा गया कि क्या इस नाटक में वर्तमान सत्ता व्यवस्था और राजनीति की तरफ कोई संकेत किया गया है? श्री बजाज ने कहा कि हमने अंधा युग के मूल पाठ में कोई बदलाव नहीं किया है लेकिन दर्शक खुद इस नाटक को अपने समय से जोड़ लेंगे। हमने कोई संकेत अलग से नहीं दिया। हमने रचना की स्वतंत्रता को बरकरार रखा है।
क्या ‘अंधायुग’ हमेशा अपने युग की बात कहता है और वह भी अतिरिक्त भाव भंगिमा तथा कथन से नहीं बल्कि अपने टेक्स्ट से कहता है? बजाज साहब ने इस टेक्स्ट पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया है।
क्या यह नाटक मौजूदा समय में दर्शकों को नए अर्थ भरेगा?