मार्क्सवाद और समाजवाद : दूसरी किस्त

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— राममनोहर लोहिया —

भी मैं तथ्यों पर न जाकर आपका ध्यान कुछ प्रक्रियाओं की ओर खींचूँगा। सर्वहारा का निर्धनीकरण पूँजीवादी देशों में निश्चय नहीं हुआ। हमने कितनी ही उम्मीद की हो कि औद्योगिक संकट स्वतः ही व्यापक संकट में बदल जाएगा, यह अभी तक नहीं हुआ है और बजाय इसके कि पूँजीवाद का कवच विकसित देशों में फटे, यह घटना उन क्षेत्रों में हो रही है जहाँ पूँजीवादी विकास काफी नीचे स्तर का है। ये निर्णायक तथ्य हैं और किसी भी व्यक्ति के लिए इन्हें सरसरी तौर पर स्वीकार या अस्वीकार करना अत्यंत हास्यास्पद होगा, अगर वे यह नहीं पता लगाते कि मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार इन्हें कैसे व्याख्यायित किया जा सकता है।

अतिरिक्त मूल्य, वर्ग-संघर्ष और क्रांति के इस सिद्धांत के अंतर्निहित तथा आंतरिक तर्क की जाँच की जानी चाहिए। पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि इसमें पूँजीवाद को पश्चिम यूरोपीय घटना मानकर उसका विश्लेषण किया गया है। निश्चय ही पूँजीवाद पश्चिमी यूरोप में उभरा, विकसित हुआ और पूरी परिपक्वता तक पहुँचा। किंतु अपने विकास के दौरान उसे बड़ी ताकत मिली उन क्षेत्रों में जो साम्राज्यवाद के अधीन थे लेकिन पश्चिमी यूरोप का हिस्सा नहीं थे। अतः पूंजीवादी विकास को समझने के लिए जरूरी है कि हम पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था को दो वृत्तों के रूप में देखें। एक पश्चिम यूरोप का आंतरिक वृत्त अपनी अधिकांश गतिशीलता प्राप्त करता है। इसे मैं मार्क्स की ही शब्दावली में अतिरिक्त मूल्य, शोषण आदि कहूँगा।

बहरहाल, पूँजीवाद को केवल पश्चिम यूरोप की घटना या राष्ट्रीय घटना मानना बुनियादी तौर पर गलत होगा। इसे राष्ट्रीय और वैश्विक रूपों में देखना पड़ेगा तथा दोनों के बीच जो शोषक-शोषित संबंध है, उनकी जाँच-पड़ताल करनी होगी। मार्क्स इस बात को भलीभाँति जानता था कि पश्चिम यूरोप की पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को एशिया तथा विश्व के अन्य भागों से बहुत लाभ हुआ है। किंतु यह तथ्य उसके मुख्य सिद्धांत का अनुलग्नक मात्र है। यह उसके सिद्धांत का अभिन्न हिस्सा नहीं है जैसे जानवर की पूँछ होती है।

सिद्धांत कहता है कि साम्राज्यवादी आधिपत्य और शोषण था। किंतु इसे पूँजीवाद के मूल सिद्धांत में शामिल नहीं किया गया जिससे हमें पूँजीवादी विकास की पूरी तस्वीर मिलती। पूँजीवाद, अन्य समाजशास्त्रीय कल्पनाओं की तरह अमूर्त कल्पना मात्र नहीं है। यह ऐतिहासिक परिघटना है और इसे पूरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यदि उदाहरण के लिए ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त मूल्य रहा तो वह ब्रिटिश श्रमिकों से ब्रिटिश पूँजीपतियों को इतना नहीं मिला जितना भारतीय जनता से ब्रिटिश जनता को मिला।

मैं चाहता हूँ कि कोई मुझे अतिरिक्त मूल्य की मार्क्स या एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित परिभाषा बताए जो इस महत्त्वपूर्ण तथ्य के साथ न्याय करे कि अतिरिक्त मूल्य पूर्णतया अमूर्त परिघटना या पश्चिम यूरोपीय परिघटना नहीं है। पूँजीवाद के तीन सौ-चार सौ वर्षों के इतिहास में यह ऐसी परिघटना रही जिसमें भारत, चीन, मलाया, बर्मा का अतिरिक्त मूल्य इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों को मिला। अब रूस और अमरीका भी इस ग्रुप में शामिल हैं। तो, यह पूँजीवादी विकास का मुख्य तथ्य है और यह कहने का मतलब है कि पूँजीवादी विकास की विसंगति को सारतः उत्पादन-शक्तियों और उत्पादन संबंधों में मानना अपर्याप्त है तथा कभी-कभी खतरनाक ढंग से गलत भी। अगर इस कथन के साथ कुछ और शर्तें न जोड़ी गयीं तो लोग यह मानने लगेंगे कि प्रत्येक पश्चिम यूरोपीय अर्थव्यवस्था के भीतर उत्पादन की शक्तियाँ लगातार विकसित हो रही हैं, कारखाने अपने को उन्नत बना रहे हैं, मशीनीकरण पूरी तरह हो रहा है जिससे उत्पादन-लागत कम हो रही है आदि-आदि, जबकि ब्रिटिश, जर्मनी आदि अर्थव्यवस्थाओं के अंदर पूँजी-श्रमिक संबंध ऐसे हैं कि कारखाने लगातार विकसित नहीं हो रहे और उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। उत्पादन की शक्तियों और उत्पादन-संबंधों की विसंगतियों के कोरे वक्तव्य का यही अर्थ होगा। लेकिन स्थिति यह नहीं है क्योंकि ऐतिहासिक परिघटना के रूप में पूँजीवाद ने कई और गंभीर विसंगतियों को जन्म दिया है। ये विसंगतियाँ पश्चिम यूरोप में उत्पादन-शक्तियों की निरंतर वृद्धि और शेष विश्व में उत्पादन-शक्तियों के निरंतर ह्रास की हैं।

विगत तीन सौ-चार सौ सालों में पूँजीवाद की प्रमुख भूमि पश्चिम यूरोप ने, जिसमें बाद में अमरीका और जापान भी जुड़ते हैं और रूस भी (पूँजीवादी देश के रूप में नहीं बल्कि एक विशेष सभ्यता, आधुनिक सभ्यता, का हिस्सा होने के कारण, हालांकि यह बात बहुत अनर्गल लगती है), इन सभी देशों ने अपने उत्पादन-संसाधनों में लगातार वृद्धि की है। इसके प्रमाण के रूप में मैं कुछ आँकड़े दूँगा। अमरीका में इस समय हर व्यक्ति के पास औसतन दस हजार रुपए के औजार हैं जिससे वह धन का उत्पादन करता है। पश्चिमी यूरोप में यही औसत 5,000 रुपए और भारत में 150 रुपए है। जो भी व्यक्ति पूँजीवाद के विकास को समझना चाहता है उसे ये तीन आँकड़े हमेशा सामने रखने चाहिए। अमरीका में 10,000 रुपए, पश्चिम यूरोप में 5,000 रुपए और भारत में 150 रुपए के औजार औसत आदमी को उपलब्ध हैं जिनसे वह धन का उत्पादन करता है। पिछले 300 सालों में दुनिया में पूँजीवाद के विकास के परिणामस्वरूप उत्पादन शक्तियों की यह स्थिति बनी है।

पश्चिम यूरोप, अमरीका और रूस ने विज्ञान का कृषि तथा उद्योगों में प्रयोग किया है जिससे उन्होंने अपनी प्रौद्योगिकी को बहुत उन्नत किया, अपने वार्षिक उत्पादन में निरंतर वृद्धि की, अपने औजारों में उत्तरोत्तर परिष्कार किया जिससे वहाँ मानव-श्रम की उत्पादन शक्ति अधिक हुई। इसके विपरीत भारत और चीन जैसे देशों को 2000 साल पुराने औजारों पर निर्भर रहना पड़ा, चाहे वह हल हो या चरखा या कोई अन्य। यहाँ प्रौद्योगिकी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और इसका परिणाम प्रतिव्यक्ति पूँजी संसाधनों के आँकड़ों में साफ है।

किंतु सारे विश्व में पूँजीवादी विकास के कुछ और कारक भी रहे। जनसंख्या बढ़ती रही। इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए खासकर यदि हम अपने देश के भविष्य का ठीक तरह से निर्माण करना चाहते हैं। पिछले 200 या 300 सालों में सारे विश्व की आबादी लगभग तिगुनी हुई है। यूरोप ने एक शताब्दी (उन्नीसवीं शताब्दी) में अपनी आबादी चार गुना बढ़ाई है। यदि अकबर के शासनकाल की आबादी के आँकड़े सही हैं तो हमने अपनी आबादी कम से कम दुगुनी या लगभग तिगुनी कर ली है या करने जा रहे हैं और अगले पाँच-छह सालों में यह पिछले चार सौ सालों के मुकाबले तिगुनी हो ही जाएगी। आबादी बढ़ती जाती है लेकिन औजार नहीं बढ़ते और इससे हम ऐसी हास्यास्पद स्थिति में जीते हैं जिससे भारत के नेता जनता से अधिकाधिक मेहनत कर उत्पादन बढ़ाने की जोशीली बातें कर सकते हैं। क्या विचित्र कल्पना है। निश्चय ही उन्हें अधिक बुद्धि प्राप्त करने की जरूरत है।

एशिया और अफ्रीका के लोगों को समय की अधिक कद्र करनी चाहिए, नियमित होना चाहिए, उन्हें अपने काम के प्रति अधिक जिम्मेदार होना चाहिए, लेकिन उन्हें और मेहनत करने के लिए कहने का क्या मतलब है, यह समझना मुश्किल है। जहाँ तक कड़ी मेहनत का सवाल है एशिया का आदमी रिक्शा खींचने में जितनी कड़ी मेहनत करता है उतनी तो दुनिया के किसी हिस्से में कोई नहीं करता होगा। यह एक बर्बर किस्म का काम है जब आदमी को आधा घोड़ा आधा आदमी बनना पड़ता है। यह पिछले 300 सालों में पूँजीवादी विकास का परिणाम है कि एशिया के लोगों को आधे घोड़े और आधे आदमी की हैसियत मिली।

(जारी)

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