राहुल की संसद से बर्खास्तगी से जुड़े 10 बड़े सवाल

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— योगेन्द्र यादव —

प लोग बिना बात का बतंगड़ क्यों बनाते हो? बड़ी सीधी सी बात है। राहुल गांधी ने किसी का अपमान किया। उसने मुकद्दमा ठोंक दिया। जज ने राहुल गांधी को दोषी पाया और 2 साल की सजा सुनाई। ऐसी सजा मिलने पर संसद की सदस्यता बर्खास्त हो जाती है, इसलिए हो गई। इसमें मोदी सरकार को दोष देने की क्या बात है? अडानी से इसका क्या संबंध है? आप लोग बिना बात हर चीज में षड्यंत्र क्यों ढूॅंढ़ते रहते हो?

पार्क में घूमते हुए एक बुजुर्ग ने मुझे यह सवाल पूछा। सीधे-सादे आदमी लग रहे थे, किसी पार्टी के कार्यकर्ता या समर्थक नहीं। सवाल भी सीधे-सादे थे, वाजिब भी। मैंने कहा कि आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ कि हमें बेवजह षड्यंत्र नहीं ढूॅंढ़ते रहना चाहिए। राजनीति में यह बीमारी हो जाती है कि हर छोटी-बड़ी बात में कुछ गहरे षड्यंत्र के आरोप जड़ दिए जाते हैं। इससे बचना चाहिए। लेकिन संसद से राहुल गांधी के निलंबन के मामले में 10 ऐसी विचित्र बातें हैं जो किसी गहरे खेल की तरफ इशारा करती हैं।

पहली विचित्र बात तो यह कि राहुल गांधी ने भाषण दिया कर्नाटक के कोलार में, लेकिन उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर हुआ गुजरात के सूरत शहर में। आप कहेंगे कि यह तो मुकदमा करने वाले की इच्छा है कि वह मुकदमा कहां करे। लेकिन याद रखिए मुकद्दमा करने वाला कोई साधारण नागरिक नहीं था बल्कि भाजपा का विधायक पूर्णेश मोदी था। आपको नहीं लगता इसके पीछे कोई इशारा रहा होगा?

अजीब बात यह कि मुकदमा शुरू होने पर जब उस समय के जज कपाड़िया ने हर पेशी पर राहुल गांधी को हाजिर होने का आदेश देने से इनकार कर दिया तो शिकायतकर्ता ने हाईकोर्ट में जाकर अपने ही मुकदमे को रुकवा दिया। आमतौर पर आरोपी मुकदमे को टालने और रोकने की कोशिश करता है, शिकायत करने वाला नहीं। आपको नहीं लगता कि इसके पीछे जज के तबादले का इंतजार करने की मंशा रही होगी? तीसरी अजीब बात यह कि अडानी मामले में संसद में दिए राहुल गांधी के भाषण के एक सप्ताह के भीतर ही अचानक भाजपा के विधायक ने साल भर से ठंडे बस्ते में पड़े हुए केस को दोबारा शुरू करने की कार्रवाई की। इसके पीछे कोई राजनीतिक नीयत नहीं थी?

चौथा संयोग यह देखिए कि शिकायतकर्ता जब अपने मुकदमे को रुकवाना चाहता है हाईकोर्ट रोक देता है, जब दोबारा चालू करवाना चाहता है हाईकोर्ट उसे चालू कर देता है। क्या हाईकोर्ट सामान्य मामलों में इतने उदार होते हैं? पाॅंचवीं अजीब बात जज हनामुखभाई वर्मा से जुड़ी है। जब मुकदमा दोबारा शुरू होता है तो जज बदल चुके हैं। और पिछले छह महीने में वर्मा साहब को एक नहीं, दो प्रोमोशन मिले हैं। क्या यहाँ आपको दाल में कुछ काला नजर नहीं आता है?

अब छठी अजीब बात देखिए। मुकदमा दोबारा शुरू होने के एक महीने के भीतर सुनवाई पूरी हो जाती है और फैसला सुना दिया जाता है। क्या इस देश की अदालतें इतनी ताबड़तोड़ सुनवाई किसी और मामले में करती हैं? क्या कहीं किसी डैडलाइन से पहले फैसला सुनाने की जल्दबाजी थी? चलिए फैसला जल्दी दिया लेकिन क्या दिया इससे जुड़ी सातवीं विचित्र बात देखिए।

राहुल गांधी ने कुछ ठगों का नाम लेकर पूछा था कि सब चोरों का नाम मोदी क्यों है? लेकिन यह नहीं कहा था कि जिसका नाम मोदी है वो चोर क्यों है। यूं भी सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट कर चुका है कि किसी वर्ग या समुदाय का अपमान होने भर से आप यह दावा नहीं कर सकते कि आपकी मानहानि हुई, जब तक उसमें सीधे-सीधे आपकी तरफ इशारा न किया गया हो। अब राहुल गांधी ने तो पूर्णेश मोदी का नाम नहीं लिया, न ही उनकी तरफ कोई इशारा किया। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को नजरअंदाज करते हुए उन्हें दोषी करार कैसे दिया जा सकता है?

आठवाँ विचित्र संयोग सजा की अवधि से जुड़ा है। देश के बड़े-बड़े वकीलों में कोई भी नहीं बता पाया कि मानहानि के मामले में किसी भी दोषी को 2 वर्ष जेल की सजा मिली हो। यह अधिकतम संभव अभूतपूर्व कड़ी सजा राहुल गांधी को ही क्यों सुनाई गई? क्या यह महज एक संयोग है कि 2 साल की सजा के बिना किसी सांसद को अयोग्य करार नहीं दिया जा सकता?

नौवाँ संयोग यह है कि सूरत के जज के फैसला सुनाने के 24 घंटे से पहले ही लोकसभा में राहुल गांधी को अयोग्य करार देने की अधिसूचना जारी कर दी गयी। आज तक ऐसे जितने भी मामले हुए हैं उनमें कार्रवाई करने में कम से कम एक महीना लगा है। इस बार बिजली सी तेजी क्यों? कहीं यह जल्दबाजी इसलिए तो नहीं की गयी कि राहुल गांधी न्यायालय में जाकर इस फैसले के खिलाफ स्टे न ले सकें? यानी कि कहीं किसी ने पहले से योजना तो नहीं बना रखी थी?

दसवॉं विचित्र सवाल संविधान से जुड़ा है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 103 के अनुसार किसी सांसद को अयोग्य घोषित करने से पहले राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी पड़ती है। लेकिन इस मामले में राष्ट्रपति की राय क्यों नहीं ली गयी? कहीं इसलिए तो नहीं कि राष्ट्रपति को अपनी राय के लिए चुनाव आयोग की राय लेनी पड़ती और राहुल गांधी की बर्खास्तगी में देर हो जाती? मेरे सब सवाल सुनकर भाई साहब ने बस हूं की और चुप हो गए। अब आप ही बताओ क्या यह एक सामान्य न्यायिक प्रक्रिया थी? क्या यह किसी ने तय कर लिया था कि राहुल गांधी को अब संसद में बोलने नहीं देना है? क्या इसका अडानी के खिलाफ उनके बोलने से कोई संबंध नहीं था? फैसला आप कीजिए पाठको।

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