— हिमांशु जोशी —
आप बैठकर लोगों से बहस करते हैं, बिना मतलब बिना किताबी ज्ञान प्राप्त किये। इस किताब में यानी जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता में लेखक यानी जे सुशील को यह महसूस होता है कि बिना पढ़े कुछ भी सम्भव नहीं है और वह ‘किताब’ पढ़ने जेएनयू की तरफ रुख करते हैं। यह बात आज हमारे देश में करोड़ों लोगों को सीख दे सकती है कि पढ़ो, विचार करो और फिर किसी की बातों से भ्रमित होने की जगह खुद कोई निर्णय लो।
किताब पढ़ने से कुछ समय पहले मेरा जेएनयू से पीएचडी किए हुए कमल अटवाल के नानकमत्ता स्थित स्कूल जाना हुआ था। वहां मैंने फिल्म फेस्टिवल होते हुए देखा, स्कूल के छात्र आसपास हो रहे पुस्तक मेले में जा रहे थे, अपने आसपास हो रही घटनाओं पर शानदार रिपोर्टिंग कर रहे थे, वे छात्र रविवार को अपनी मर्जी से स्कूल में आकर अभिनय, लेखन के विशेषज्ञों से वर्कशॉप ले रहे थे। तब मुझे समझ नहीं आया कि अन्य शिक्षा संस्थानों से अलग नए विचारों के साथ चल रहे इस संस्थान को चलाने की प्रेरणा कमल अटवाल को कहां से मिली होगी।
किताब पढ़ने के बाद मुझे यह समझ आया कि कमल अटवाल, जेएनयू दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर अपना एक स्कूल खोलकर यह सब कैसे कर पा रहे हैं। जैसा कि मैंने किताब में पढ़ा जेएनयू के छात्र का मुख्य उद्देश्य सिर्फ अपने कैरियर को ही चमकाना नहीं होता अपितु वह वहां रहकर अपने समाज की बेहतरी के लिए कार्य करना सीखता है।
जे सुशील की लिखी किताब ‘जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता’ प्रतिबिंब प्रकाशन से प्रकाशित होकर आई है। मी जे द्वारा बनाए गए आवरण चित्र को देखकर लगता है कि किताब जेएनयू में मिलने वाली शिक्षा के ढांचे पर केंद्रित होगी। आदर्श भूषण की आवरण सज्जा प्रभावित करने वाली है। पिछले आवरण पर प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार और लेखक प्रवीण झा ने किताब पर अपनी टिप्पणियां दी हैं, जिन्हें पढ़कर किताब पढ़ने को लेकर आतुरता बढ़ती ही जाती है।
डॉक्टर दुष्यंत की लिखी भूमिका जेएनयू के बारे में इस किताब के जरिए सब कुछ समझने का सुझाव देती है।
लेखक किताब की शुरुआत में ही लिखते हैं कि यह किताब उनकी सोशल मीडिया पोस्टों की वजह से अस्तित्व में आई। लेखक का जेएनयू से अपना रिश्ता नाभिनाल सा बताना, पाठकों को यह समझाने के लिए काफी है कि उनका जेएनयू के साथ कितना गहरा लगाव है।
पृष्ठ 38 पर एक पंक्ति है ‘वहां मैंने पहली बार चाउमीन देखी’। यह कहानी आज भी भारत के कई युवाओं की कहानी है, लेखक की तरह उनका सपना भी है कि वह दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आकर अपने ऊंची उड़ान के सपनों को पंख लगाएं और यही वजह है कि किताब भारत के हर हिस्से में रहने वाले युवाओं को पसन्द आएगी।
लेखक ने सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह किया है कि जेएनयू को लेकर आमजन में जो भ्रांति बन गई हैं, उन्हें वह दूर कर देते हैं। जैसे किताब के ‘आवासीय कैम्पस’ हिस्से में लेखक ने मेस बिल में सरकारी सबसिडी न होने के बारे में लिखा है। किताब पढ़ते आप जेएनयू के चुनावों के बारे में भी पढ़ते हैं, ये चुनाव देशभर में होने वाले अन्य चुनावों के तरीके पर सवाल उठाने का कार्य करते हैं। जेएनयू में चुनाव की प्रक्रिया अन्य चुनावों के लिए एक मिसाल है।
‘बहस का माहौल, ढाबा संस्कृति और राजनीति’ में लेखक जिस तरह ‘जीएसकैश’ के बारे में रोमांच बनाते हैं, उससे पाठकों की रुचि बिना रुके किताब पढ़ने में बनी रहती है।कई जगह लेखक ने अपनी बात बड़ी ही बेबाकी के साथ लिखी है, जैसे वह आईआईएमसी पर अपनी राय रखते हैं।
‘जेएनयू ने मुझे राजनीतिक आदमी तो नहीं बनाया मगर राजनीतिक रूप से जागरूक जरूर किया है’ पंक्ति देश की राजनीति में जेएनयू के महत्त्व को पाठकों के सामने रखती है। ‘सोलहवें दिन मैंने कमरा साफ किया और ऐसा साफ किया कि रूममेट का गद्दा, तकिया, चादर, जूते, मोजे और ढेर सारे गंदे कपड़े कमरे के बाहर फेंक दिए ताकि बाकी छात्र देखें कि वह कितना गंदा रहता है’ पंक्ति पढ़कर सालों पहले कॉलेज पढ़ चुके पाठक भी अपने कॉलेज के दिनों को जरूर याद करने लगेंगे।
लेखक ने किताब में अपने साथ रहे लोगों के अतीत और वर्तमान के बारे में जो कुछ बताया है उससे यह निष्कर्ष तो जरूर निकलता है कि काबिल व्यक्ति को उसका मनचाहा मुकाम हासिल हो ही जाता है।
किताब में कुछ बातों का जिक्र दो बार है, जैसे पहले ट्रेलर दिखा है तो बाद में पूरी फिल्म। लेखक ने किताब में प्रोफेसर आनन्द कुमार और प्रोफेसर पुष्पेश पन्त को विशेष जगह दी है। लेखक एक जगह प्रोफेसर पुष्पेश पन्त से मिले ज्ञान का जिक्र करते हैं, जो उन्हें ताउम्र याद है। वह लिखते हैं ‘शराब पीना एक कला है, संगीत सुनना भी, लिखना कला है, आलोचना सबसे बड़ी कला है। यह बात उस दिन खाने की मेज पर समझ में आई।’
किताब पढ़ते पाठक बहुत कुछ नया समझ सकते हैं, उनमें इतिहास की ‘सबाल्टर्न’ धारा को समझने की चाह उत्पन्न हो सकती है, वह ‘द रिद्म ऑफ लाइफ एंड डेथ’, ‘मैडनेस एंड सिविलाइजेशन’ जैसी किताबों के नाम पढ़ते हैं। नेरुदा, फूको, मार्क्स, जिजेक जैसे साहित्यिक नामों को ज्यादा पढ़ने की उत्सुकता भी इस किताब को पढ़ने के बाद पाठकों के अंदर बढ़ सकती है।
किताब यह भी सिखाती है कि अंग्रेजी फिल्मों को देखकर, बेहतरीन अंग्रेजी सीखी जा सकती है। पढ़ाई लिखाई से इतर किताब में जेएनयू के अंदर मिली प्रेम की स्वतंत्रता को भी विशेष स्थान मिला है, जिसमें पार्थसारथी रॉक्स एक विशेष स्थान है।
किताब में वामपंथ, दक्षिणपंथ के साथ आज की जेएनयू राजनीति पर बहुत कुछ लिखा गया है, जिसे पढ़ा जाना जरूरी है। वामपंथ कॉलेज से आगे बढ़कर क्यों सफल नहीं हो पाता किताब से यह मालूम हो जाता है।
‘अब तो ऐसे प्रोफेसरों की संख्या बढ़ गई है, जो न तो वामपंथी हैं और न ही दक्षिणपंथी, बल्कि ‘मौकापंथी’ हैं। यह ट्रेंड एकेडेमिक्स के लिए घातक है.’ पंक्ति आज की उच्च शिक्षा की वास्तविक दशा दर्शाती है। ‘वे राजनीति पर कार्ल मार्क्स का नाम नहीं लेंगे, बल्कि प्लेटो, अरस्तू, फूको, नीत्शे जैसे नाम ले रहे होंगे और चर्चा कर रहे होंगे कि इनका प्रैक्टिकल वर्ल्ड में क्या रोल है।’ पंक्ति से यह पता चल जाता है कि आजकल अधिकतर खबरों में जेएनयू की बनाई जा रही छवि से इतर वास्तविक जेएनयू क्या है और वहां के छात्र क्या कुछ करते हैं। जेएनयू आज की उच्च शिक्षा में कितना महत्वपूर्ण संस्थान है यह किताब की एक और पंक्ति से ज्यादा स्पष्ट हो जाता है, जो यह है ‘खड़े होने और सवाल पूछने में लम्बा वक्त लगता है, लेकिन कई विश्वविद्यालयों में यह काम तीन चार साल तक भी नहीं होता। जेएनयू में दो तीन महीनों में ऐसा हो जाता है।’
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प्रकाशक संपर्क : 04446315631
मूल्य : 215 रुपए