— राममनोहर लोहिया —
स्वभावतः दोहरे काम के साथ कई प्रकार की कठिनाइयाँ और खतरे आएंगे और इस वर्ग-संघर्ष का चौखट भी पूरी तरह बदलेगा। साम्यवादी का वर्ग-संघर्ष आसान है। उसके सामने एक ही लक्ष्य होता है और वह अपना पूरा ध्यान उसपर लगा सकता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के प्रयास में समाज के किसी व्यापक लक्ष्य का त्याग करना पड़े तो कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी इसकी चिंता नहीं करता। मुझे इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। प्रमाण समाने है। वास्तव में ये लोग जहाँ तक सिद्धांत की बात है काफी ईमानदार थे और अपने सिद्धांत में उन्होंने ईमानदारी से स्वीकार किया कि क्रांति के लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए छल, झूठ, हत्या आदि का सहारा लेना आवश्यक है। इन लोगों द्वारा की गयी वास्तविक हत्याएँ और झूठ इस मूल सिद्धांत के मद्देनजर अधिक क्रूर बन जाते हैं कि क्रांति सबसे महान और सर्वभक्षी गुण है। जब क्रांति आती है तो सबके पाप धुल जाते हैं, सब कुछ अपने आप सुधर जाता है। पूँजीवादी संपत्ति-संबंधों को खत्म करो, बस आदमी सुधर जाएगा, शोषण खत्म हो जाएगा, वस्तुओं का नियंत्रण हो जाएगा तथा स्वर्णयुग आ जाएगा।
इस स्वर्णयुग को लाने के लिए जिसमें महान नैतिक गुण और वैयक्तिक मूल्य हैं, यदि झूठ बोलना और हत्या करना जरूरी हो तो वह बड़े और महान लक्ष्य के प्रयोजन से होने के कारण औचित्यपूर्ण है। सभी नैतिक मूल्य सापेक्ष हैं, निरपेक्ष कुछ भी नहीं है। विश्व-क्रांति जिस भी तरीके से मिले, वह औचित्यपूर्ण है और इसलिए लेनिन ने छल-कपट की शक्ति का समर्थन किया है, हालांकि मार्क्स ने ऐसा नहीं किया।
मार्क्स, पूँजीवाद के अपने सामान्य सिद्धांत के कारण अंत तक लोकतंत्र समर्थक बना रहा। सारतः और मूलतः यही उसके मन की प्रकृति थी क्योंकि वह अपने सिद्धांत के संदर्भ में सोचता था और उसका सिद्धांत था कि क्रांति वहाँ आएगी जहाँ उत्पादन की शक्तियाँ उन्नत अवस्था में होंगी। उसे उन देशों की तरफ नहीं देखना पड़ा जिन्हें आर्थिक दृष्टि से बर्बर या पिछड़े कहा जा सकता है या भारत, रूस, चीन की तरह अर्ध-बर्बर या अर्ध-विकसित कहा जा सकता है। उसने जर्मनी और इंग्लैण्ड के संदर्भ में ही सोचा जहाँ यह क्रांति आ सकती थी और जहाँ लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूती से चलती रह सकती थी। यद्यपि मार्क्स ने कुछ मौकों पर शक्ति के प्रयोग की बात की होगी लेकिन उसने लेनिन की तरह झूठ, छल-कपट और दुराचार को क्रांति की रणनीति नहीं कहा। लेनिन को शायद यह इसलिए करना पड़ा क्योंकि उसे पिछड़ेपन की स्थितियों में काम करना पड़ा था।
लेनिन महान व्यक्ति था : ऐतिहासिक अर्थ में ये लोग महान ही होते हैं। वह ऐसी स्थितियों में काम कर रहा था जो मार्क्स की स्थितियों से भिन्न थीं अतः उसे क्रांति के लिए छल-कपट और झूठ आदि का भी समर्थन करना पड़ा। उसके शब्द इस प्रकार हैं : संसदीय संस्थाओं को चलाना ताकि उन्हें नष्ट किया जा सके, श्रमिक वर्ग की सफलता के लिए झूठ बोलना और सांयोगिक हत्या-हिंसा के बारे में न सोचना और न बात करना। अगर इस प्रकार के वर्ग-संघर्ष को जारी रखना संभव हो फिर भी परिणाम बाँझ क्रूरता हो तो मेरा यह कहना कितना उचित है कि हम बेमजा पाप के रास्ते पर चले होते। आदमी कभी-कभी पाप के रास्ते को भी अपना लेता है अगर उसमें कुछ सुख मिलता हो।
अगर बुरे साधनों को वर्ग-संघर्ष तथा क्रांति का आवश्यक हिस्सा मानने के बाद भी सफलता न मिले तो हमें वर्ग-संघर्ष और पूँजीवादी विकास के ऐसे व्यापक सिद्धांत को अपनाना पड़ेगा जिसमें तात्कालिकता के सिद्धांत को सम्मिलित किया गया हो। कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत में तात्कालिकता को शामिल नहीं किया गया है। वह जर्मनी और इंग्लैण्ड के वर्ग-संघर्ष के संदर्भ में सोच रहा था। उसके सामने भारत या चीन के वर्ग-संघर्ष का मसला नहीं था। अब चूंकि हमें भारत-चीन के वर्ग-संघर्ष पर सोचना है अतः हमें इस बात की गंभीरता से जाँच करनी पड़ेगी कि मृग-मरीचिका सिद्ध होने वाले आर्थिक लक्ष्यों के लिए समाज के व्यापक लक्ष्यों की हत्या करना कहाँ तक उचित है।
यहाँ हमें समाज के व्यापक लक्ष्यों और आर्थिक लक्ष्यों के टकराव को समझ लेना चाहिए। मार्क्स के सिद्धांत में यह टकराव नहीं दिखाई देता क्योंकि यह स्वतःचालित सिद्धांत है किंतु यह गलत आर्थिक अनुमानों पर आधारित है। यदि सिद्धांत आर्थिक दृष्टि से मजबूत होगा तो आदमी कम से कम यह तो कह सकता है कि प्रक्रिया के दौरान जो भी हो, अंत में तो ऐसा आर्थिक समाज बनेगा जिसमें शोषण नहीं होगा और ऐसा समाज भी बनेगा जिसमें सत्य, अच्छा आचरण और पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण संबंध सुनिश्चित होंगे। ये समाज के व्यापक लक्ष्य हैं : लोकतंत्र, सत्य-प्रेम, अच्छा आचरण, मन की शांति और विश्व-शांति आदि और संस्कृति की सामान्य स्थिति।
मार्क्स का कहना था कि समाज के ये व्यापक लक्ष्य स्वतः प्राप्त हो जाएंगे जब साम्यवाद या समाजवाद के आर्थिक लक्ष्य प्राप्त हो जाएंगे। चूंकि साम्यवाद या मार्क्सवादी समाजवाद के आर्थिक लक्ष्य दो-तिहाई दुनिया में प्राप्त नहीं किए जा सकते, इन वायवी आर्थिक लक्ष्यों के पीछे भागते जाना और इस प्रक्रिया में समाज के व्यापक लक्ष्यों की हत्या करते जाना नितांत मूर्खता होगी। यह इस प्रकार का काम होगा जिसमें अज्ञान के कारण आदमी अच्छाई के एक पक्ष को इस झूठी उम्मीद में कुर्बान कर देता है कि दूसरे पक्ष की प्राप्ति से कुर्बान किया हुआ पक्ष फिर लौट आएगा। इसके अलावा कि आर्थिक सिद्धांत में व्यापक सुधार आवश्यक है, एक समेकित सिद्धांत की भी जरूरत है जिसमें आर्थिक लक्ष्यों और सामान्य (व्यापक) लक्ष्यों का अलग-अलग विवेचन हो।
संभवतः छोटी इकाई के औजार के द्वारा भारत जैसे देश अपनी अर्थव्यवस्था को पुनः साधन-संपन्न बना सकते हैं और अपने साधनों का विस्तार कर सकते हैं। किंतु उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें किस प्रकार का वर्ग-संघर्ष चलाना चाहिए?क्या हमारे लिए यह उचित होगा कि हम छल-कपट और झूठ के रास्ते पर चलते रहें? जहिर है, नहीं। मैं अपने सिद्धांत की पुष्टि में नैतिक तर्क प्रस्तुत नहीं करूँगा। मैं स्पष्ट आर्थिक तर्क दूँगा कि उन सभी हथकंडों का इस्तेमाल करने के बाद भी हमें विफलता ही मिलने वाली है। यह स्पष्टतया लौकिक, अनैतिक और क्रूर तर्क ही है कि मैं इसलिए झूठ नहीं बोलना चाहता हूँ क्योंकि मैं सफल नहीं हो सकता और अभीष्ट परिणाम नहीं प्राप्त कर सकता, या मैं किसी की हत्या इसलिए नहीं करना चाहता हूँ क्योंकि उसके अंत में मैं नयी अर्थव्यवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। यह मेरा पहला तर्क है हालांकि यह एकमात्र तर्क नहीं है। मैं इतना क्रूर नहीं हूँ।
किसी कम्युनिस्ट से यह कहना कि वह झूठ न बोले, व्यर्थ है। उसे यह कहना भी व्यर्थ होगा कि वह छल-कपट का आचरण न करे। वह अपने को उस व्यक्ति से श्रेष्ठ मानता है जो उसे अच्छे आचरण का उपदेश देता है क्योंकि उसने अपने को एक बड़े और महान आदर्श के लिए (उसकी अपनी कल्पना के अनुसार) समर्पित कर रखा है।
इसी तरह का रवैया धार्मिक क्षेत्र में भी देखा जा सकता है जहाँ अपने पूज्य देव या ईश्वर की सेवा में आदमी हर प्रकार के गलत काम कर सकता है। वह तर्क करता है : क्या भगवान कृष्ण ने झूठ, छल-कपट और हत्या आदि बुरे कामों का सहारा नहीं लिया और क्या भारत की जनता ने उन्हें महान प्रेमी और ऋषि नहीं माना क्योंकि उसने जो भी किया सत्य और प्रेम की रक्षा के लिए किया? कम्युनिस्ट मानता है कि वह सत्य की सेवा के लिए झूठ बोलता है, स्वास्थ्य के लिए हत्या करता है, विश्व क्रांति के लिए लोकतंत्र को ध्वस्त करता है और राष्ट्रों की स्वतंत्रता का त्याग विश्व सर्वहारा की एकता के लिए करता है। अपने महान आदर्श की सेवा के लिए वह झूठ और छल-कपट के गहरे गड्ढे में गिरता है। लेकिन कम्युनिस्ट को ऐसा नहीं लगता कि वह गड्ढे में गिर रहा है। वह सोचता है कि उसके तरीके उस ऊँचाई पर पहुँचने के लिए जरूरी हैं कि जिसे एक दिन दूसरे लोग भी महान ऊँचाई कहेंगे। इसलिए एक कम्युनिस्ट के साथ नैतिक बहस करना व्यर्थ होता है। यदि उसे बताया जा सके कि उसके छल-कपट का कोई फल नहीं निकलेगा तो शायद वह तर्क को मानने लगे। ये आर्थिक तर्क दिए जा चुके हैं कि यदि भारत मार्क्सवादी रास्ते पर चला तो अंत में विफलता ही मिलेगी, यहाँ की आर्थिक, औद्योगिक और कृषि संबंधी स्थितियों के चलते।
(जारी)