मार्क्सवाद और समाजवाद : सातवीं व अंतिम किस्त

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— राममनोहर लोहिया —

भारत के साम्यवादियों ने मेरी यह कहकर बड़ी निंदा की है कि मैं अमरीकी एजेंट हूँ और मैंने अमरीकी डॉलर खाये हैं। एक-दो बार मैंने निरी झल्लाहट में उन्हें जवाब दिया और उलटे उन पर आरोप लगाया कि ये रूस और चीन से धन तथा अन्य सुविधाएँ प्राप्त करते हैं। लेकिन जब मेरा मन शांत होता है तो मैं मानता हूँ कि कम्युनिस्टों को अपनी कल्पना की विश्वक्रांति के लिए झूठ, छल-कपट का सहारा लेना पड़ता है। वह सोचता है कि इस तरह के कामों से अगर वह सोशलिस्ट पार्टी के आधार को नष्ट कर सकता है तो यह उसका बहुत बड़ा काम होगा और यहीं बात खत्म हो जाती है। यही चलता रहता है और इसलिए तर्क से कम्युनिस्टों के झूठ से लड़ना बिल्कुल व्यर्थ हो जाता है क्योंकि वे तुरंत कूदकर दूसरे झूठ को पकड़ लेते हैं और यह सिलसिला खत्म ही नहीं होता। क्रांति के समाज के महान लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए यह उनकी रणनीति का हिस्सा है।

पूँजीवादी विकास का जो विश्लेषण यहाँ किया गया है उससे मेल खाते वर्ग-संघर्ष को, तात्कालिकता के सिद्धांत को अपने में शामिल करना होगा और उसका औचित्य सिद्ध करना होगा। इस वर्ग-संघर्ष की प्रत्येक कार्रवाई को अपना औचित्य स्वयंसिद्ध करना चाहिए। हमें झूठ से सत्य का, हत्या से स्वास्थ्य का औचित्य सिद्ध नहीं करना चाहिए। अगर भारत में तथा अन्य देशों में समाजवादी विचारधारा सुसंगत और आक्रामक तरीके से वर्ग-संघर्ष के इस सिद्धांत को रखे जिसमें प्रत्येक कार्य में उसका औचित्य निहित हो तो समाजवादी वर्ग-संघर्ष लोगों को आकृष्ट करेगा।

इस समय दो प्रकार के वर्ग-संघर्ष चल रहे हैं। एक है कम्युनिस्ट वर्ग-संघर्ष जो मार्क्सवाद का अनुसरण और कुछ मात्रा में उसकी विकृति है। समाजवादी वर्ग-संघर्ष को क्रांतिकारी गतिविधि के आक्रामक स्वरूप में जरा भी कमी नहीं करनी चाहिए। उसे आक्रामक होना चाहिए। यदि अहिंसा का मतलब संघर्ष-त्याग या उसकी शिथिलता हो जाए तो वह जंगली हिंसा की आड़ बन जाएगा। यह कठिनाई हमारे सामने रहेगी। जो लोग तात्कालिकता के सिद्धांत को अपनाते हैं वे प्रायः नरमी और समझौते की तरफ झुकते हैं और तालमेल बिठाने की कोशिश करते हैं। हमें जरूरत होगी नए प्रकार के व्यक्तियों की, जो आक्रामक तथा तेज होंगे, जो पूँजीवाद और सामंतवाद तथा वर्तमान सरकारों के विरुद्ध संघर्ष में गलतियाँ भी करेंगे, जो इस बात की ज्यादा परवाह नहीं करेंगे कि उन पर क्या बीतेगी किंतु यह सुनिश्चित करेंगे कि वर्ग-संघर्ष में उनका प्रत्येक काम अपना औचित्य स्वयं सिद्ध करे। हड़ताल, सिविल नाफरमानी, कानून का उल्लंघन यहाँ तक कि विशाल जनता द्वारा भूमि पर कब्जा करना, इन सब कामों को इस प्रकार चलाया जाए जिसमें न तो झूठ बोलना पड़े और न हत्या का सहारा लेना पड़े।

यह नए प्रकार का वर्ग-संघर्ष पूँजीवादी विकास के सच्चे सिद्धांत से संगत होगा। पुराने किस्म का वर्ग-संघर्ष जो गलत सिद्धांत से निकला था, उसे खत्म किया जाए तथा समाज के व्यापक लक्ष्यों और आर्थिक लक्ष्यों पर अलग-अलग विचार किया जाए। निस्संदेह, व्यापक लक्ष्यों और आर्थिक लक्ष्यों के बीच संगति स्थापित करनी पड़ेगी। एक के ऊपर दूसरे को आरोपित करना खतरनाक होगा। उनके बीच समाकलन स्थापित करने की दृष्टि से उनमें काट-छाँट और परिवर्तन करने होंगे।

कुछ बचकाने किस्म के समाजवादी और गांधीवादी सोचते हैं कि साम्यवाद, गांधीवाद या समाजवाद के बीच मुख्य भेद व्यवहार या फिर अहिंसा या लोकतंत्र का है। इस प्रकार साम्यवाद, गांधीवाद और लोकतंत्रवाद के भेद को इतना सीमित कर दिया जाता है कि मार्क्सवाद और साम्यवाद के सारे सिद्धांत पर किसी प्रकार गांधीवाद की अहिंसा या लोकतंत्रवाद की उदारता के सिद्धांतों को आरोपित किया जा सकता है, या गांधी के अहिंसावादी सिद्धांत अथवा पश्चिम यूरोप के लोकतांत्रिक सिद्धांत को पूँजीवादी विकास, वर्ग-संघर्ष, विश्वक्रांति तथा नयी सभ्यता के इस नए सिद्धांत पर आरोपित किया जा सकता है। यह बिल्कुल हास्यास्पद होगा, यहाँ प्रस्तुत मूल सिद्धांत के अनुसार जिसमें साम्राज्यवादी-पूँजीवादी विकास के अंतर्गत पूँजी का केंद्रीकरण साम्राज्यवादी देशों में होता है और निर्धनता, कष्ट, संकट तथा संघर्ष उपनिवेशों या पिछड़े क्षेत्रों में होते हैं; उत्पादन शक्तियों का विस्तार यूरोप-अमरीका में होता है और उत्पादन के नए संबंधों की उठान अफ्रीका-एशिया के देशों में होती है।

मार्क्सवादी या साम्यवादी सिद्धांत के ऊपर अहिंसा का सिद्धांत या लोकतंत्र का सिद्धांत आरोपित करना मूर्खता से भी बुरा होगा। भारतीय समाजवाद लंबे समय तक इस भयानक बीमारी का शिकार रहा है जिसमें लोकतांत्रिक या गांधीवादी मत की एक मद को साम्यवाद या मार्क्सवाद की एक मद के ऊपर चिपका दिया जाता है। इस प्रकार की निरर्थक कोशिश में, जिसमें आदमी का दिमाग एक धागा मार्क्सवाद से और दूसरा गांधीवाद से लेकर बदसूरत और बेकार रस्सी बुनता है, समाजवाद का आगे कोई संबंध नहीं रहना चाहिए।

इस प्रकार एक आदर्श को दूसरे आदर्श पर आरोपित करने के प्रयासों के खतरनाक परिणाम हुए हैं। दोनों को सुसंगत रीति से इस प्रकार गूँथा जाना चाहिए कि आर्थिक ढाँचा व्यापक लक्ष्यों को अपने में समा सके और समाज के व्यापक लक्ष्यों को इस प्रकार बनाया जाना चाहिए कि वे आर्थिक ढाँचे को बनाये रखें। एक और खतरे को भी यहाँ दिखाए जाने की जरूरत है। समाजवादी और साम्यवादी ही नहीं, लोकतंत्रवादी और गांधीवादी भी सोचते हैं कि वे वैयक्तिक मूल्यों, सांस्कृतिक लक्षणों और सदाचार के नियमों को किसी भी प्रकार की अर्थव्यवस्था के ऊपर थोप सकते हैं। कुछ लोग ऐसा भी सोचते हैं कि बड़े-बड़े कारखानों वाली पूँजीवादी प्रणाली के साथ लोकतंत्र, सदाचरण, नैतिक मूल्यों का, जिन्हें अब सांस्कृतिक मूल्य कहा जाता है, अच्छा तालमेल बैठता है। यह बिल्कुल बेतुकी बात है। इस तरह की कोशिश का परिणाम होगा कि महात्मा गांधी कर्मकांडी उल्लेख की वस्तु बन जाएगा। एक बार जब हम आर्थिक ढाँचे को उसके आधार और प्रेरक शक्तियों के साथ चलने देंगे तो उसके ऊपर विपरीत मूल्यों वाली किसी व्यवस्था को थोपना व्यर्थ होगा। नैतिक शिक्षक की अपील कितनी ही प्रभावशाली हो, यह हो नहीं सकता। हजारों-हजारों पूँजीपतियों को ट्रस्टी नहीं बनाया जा सकता।   

पूँजीवादी विकास के एक और नियम का उल्लेख भी किया जा सकता है। इंग्लैंड में गरीबी नहीं बढ़ी, यह भारत में बढ़ी जबकि समृद्धि इंग्लैंड में बढ़ी। गैरबराबरी और निर्धनता साथ-साथ चलती हैं। मार्क्सवादी विचार के अनुसार समृद्धि और निर्धनता साथ-साथ चलनी चाहिए, एक ही क्षेत्र या देश में, अपार समृद्धि और अगाध गरीबी साथ-साथ रहनी चाहिए। यहाँ दिए गए पूँजीवादी विकास के नियम के अनुसार यह समझना आसान है कि धनी देशों में पूँजीवादी सभ्यता के अंतर्गत असमानता की गुंजाइश कम हुई है और निर्धन देशों में गैरबराबरी का क्षेत्र बढ़ा है। निर्धन देशों में शक्तिशाली और समृद्ध लोगों के एक छोटे-से वर्ग को पाला जाता है जो आधुनिकीकरण की सुविधाओं कोँ ऊँचे आदर्शों तथा राष्ट्रीय नवनिर्माण के नाम पर हथियाने में कुशल होते हैं।

भारत और इसी प्रकार के अन्य देशों में अमरीका-इंग्लैंड आदि की तुलना में बहुत ज्यादा गैरबराबरी है। यह गैरबराबरी व्यक्तिगत और सामाजिक चेतना को काठ बनाती है। आदमी का दिमाग काम करना बंद कर देता है जब उस पर बर्दाश्त से अधिक दबाव पड़ता है। लगातार दिखाई देने वाले और दिखाई न देने वाले कष्ट दिमाग को एक कवच में बंद कर देते हैं ताकि वह अपने कष्टों को न देख सके, जैसे घोंघा अपने पेट में बालू के कण के गिर्द कवच बना लेता है। इसके बाद यह तंगहाली और मन तथा चेतना की संवेदनशून्यता एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया कर, एक-दूसरे पर पलने और बढ़ने लगती है। यही कारण है कि अफ्रीकी, एशियाई तथा दक्षिण अमरीकी देशों की क्रांति में अमूर्त नारे अधिक होते हैं बनिस्बत ठोस यथार्थ के क्योंकि नारे उम्मीद बनाये रखते हैं जबकि यथार्थ आदमी को पागल बनाता है।

मार्क्सवाद उस पुराने धार्मिक विचार का ही सार तत्त्व है जो निजी संपत्ति के प्रति अरुचि या डर पैदा करता है किंतु दोनों में एक भौतिक अंतर है। पुराना धार्मिक विचार लोगों के दिमागों को प्रभावित कर उनमें निजी संपत्ति के प्रति अरुचि जगाता था जबकि नया मार्क्सवादी विचार निजी संपत्ति को खत्म कर ऐसा समाज बनाने की कोशिश करता है, जिसमें किसी भी व्यक्ति के पास ऐसी संपत्ति न हो जिसके लिए किसी दूसरे को नौकर रखना पड़े। धार्मिक विचार, खासकर ईशोपनिषद, वैयक्तिक रूप से संपत्ति का उन्मूलन करता है, मार्क्सवाद वस्तुगत रूप में इसका उन्मूलन करता है। जब तक निजी संपत्ति का वस्तुगत यथार्थ बना रहता है धार्मिक विचार, कम से कम अपने सामाजिक परिणाम के रूप में, भावनात्मक परिणाम से भिन्न, केवल संशोधन के रूप में काम करता है और संशोधन भी बहुत कमजोर।

जब तक निजी संपत्ति का भावनात्मक प्रलोभन बना रहता है, मार्क्सवाद या इसी प्रकार का कोई अन्य विचार, अपनी ही निर्मितियों के खिलाफ सतत युद्ध करता रहेगा। निजी संपत्ति बड़े रूप में तो खत्म हो जाएगी किंतु असमान सुविधाओं तथा दिखावे की इच्छा सामाजिक व्यवस्था का लगातार क्षरण करती रहेगी। मार्क्सवाद की पूर्व उद्धृत सामाजिक और आर्थिक गलतियों के बावजूद, निजी संपत्ति के वस्तुगत उन्मूलन की उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि को दर्ज किया जाना चाहिए और उम्मीद बनाये रखी जानी चाहिए कि कोई और भी ऊँचा विचार फैलेगा जो निजी संपत्ति के विचार का मानसिक रूप से भी उन्मूलन करेगा और जो व्यक्ति तथा वातावरण दोनों के सुधार को अपना आधार बनाएगा।

(समाप्त)

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