प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री विवाद का विषय क्यों है

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— शशि शेखर प्रसाद सिंह —

विगत 31 मार्च को गुजरात उच्च न्यायालय ने अपने एक अजीबोगरीब फैसले में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की एमए की डिग्री के संबंध में 2016 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के द्वारा लिखे गए पत्र को सूचना अधिकार कानून 2005 के तहत जानकारी हेतु प्रश्न मानकर उसके उत्तर में केंद्रीय सूचना आयोग के एम श्रीधर आचार्युलु के द्वारा उनकी डिग्री की जानकारी के संबंध में गुजरात विश्वविद्यालय तथा दिल्ली विश्वविद्यालय को दिए गए आदेश को न सिर्फ निरस्त कर दिया बल्कि सूचना मांगने वाले अरविंद केजरीवाल के ऊपर ₹25000 का जुर्माना लगा दिया। उच्च न्यायालय ने कहा कि अरविंद केजरीवाल ने गुजरात विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर तथा सोशल मीडिया पर डिग्री के उपलब्ध होने के बावजूद ऐसे तुच्छ प्रश्न उठाकर न सिर्फ भ्रम पैदा किया बल्कि अदालत का कीमती समय बर्बाद किया है। मजे की बात यह है कि गुजरात उच्च न्यायालय में केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले को गुजरात विश्वविद्यालय ने चुनौती दी थी ना कि अरविंद केजरीवाल ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था।

मोदी जी जबसे देश के प्रधानमंत्री बने हैं उनकी शैक्षिक डिग्री के विवाद का मामला उनका पीछा नहीं छोड़ रहा जबकि कभी गुजरात यूनिवर्सिटी उनके बचाव में आ जाती है तो कभी गुजरात उच्च न्यायालय डिग्री मांगने वाले पर जुर्माना लगा देता है। लेकिन किसी भी विषय पर घंटों बोलने वाले प्रधानमंत्री मोदी आजतक अपनी शैक्षिक डिग्री के संबंध में एक शब्द नहीं बोलते। कितना अच्छा होता कि प्रधानमन्त्री मोदी अपनी डिग्री दिखाकर सारे विवादों का तत्काल अंत कर देते।

जब तक वे प्रधानमंत्री नहीं बने थे कोई भी उनकी डिग्री पर सवाल नहीं उठा रहा था। यहां तक कि वे 2001 से लेकर 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री लगभग 14 साल रहे लेकिन कोई उनकी शैक्षिक डिग्री देखने या पूछने में रुचि नहीं ले रहा था जबकि उन्होंने 2007 तथा 2012 के गुजरात विधानसभा के चुनाव में अपने नामांकन फॉर्म में अपनी शैक्षिक योग्यता के तहत अपनी बी.ए. तथा एम.ए.की डिग्री का उल्लेख किया था।

इधर काफी लंबे समय से मीडिया में उनके एक पुराने इंटरव्यू या अखबार में शैक्षिक डिग्री के संबंध में कई बातें घूम रही हैं…उन्हीं का एक इंटरव्यू है जिसमें गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए 2005 में खुद कह रहे हैं कि वे हाईस्कूल के समय ही घर छोड़कर निकल गए थे और कोई शिक्षा नहीं ली। फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार विभाग से 1978 में बी.ए. करने की बात सामने आई किंतु डिग्री नहीं मिली, फिर गुजरात विश्वविद्यालय से 1983 में एम.ए. करने की बात सामने आ गई। एक बार लोगों को लगा कि शायद खुले स्कूल और पत्राचार के माध्यम से बी.ए. कर लिया होगा और फिर गुजरात विश्वविद्यालय से पत्राचार कोर्स के द्वारा एम.ए. कर लिया होगा क्योंकि 1971 से संघ में जाने के बाद प्रचारक पद का कार्य करने के अलावा शिक्षा पूरी कर ली होगी। हालांकि बी.ए. और एम.ए. की डिग्री की जानकारी बाद में सामने आयी।

अब कन्नड़ के 1992 के एक अखबार के हवाले से खबर आ रही है कि उन्होंने उसमें कहा था कि वे मैकेनिकल इंजीनियर हैं…। खैर, सच्चाई तो अभी सवालों के घेरे में है किंतु ये सारे विवाद बेमानी हो जाते अगर मोदी जी चुनावी हलफनामे में अपनी शैक्षिक योग्यता के संबंध में नहीं लिखते क्योंकि उदार लोकतान्त्रिक देश के संविधान में सामान्यतः न तो मतदाता के लिए शैक्षिक योग्यता कोई शर्त होती है और न जनप्रतिनिधियों के लिए कोई न्यूनतम शैक्षिक योग्यता आवश्यक होती है। फिर मोदी जी के लिए भी विधायक या सांसद और मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनने के लिए शैक्षिक योग्यता कोई बाधा नहीं थी। वैसे भी वो पहले राजनीतिज्ञ तो होते नहीं जिनके पास कोई शैक्षिक डिग्री नहीं होती। ऐसे कितने नेता हुए जो अधिकृत रूप से शिक्षित नहीं थे।

अगर स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत में बहुत बड़े राजनीतिज्ञ का ऐसा नाम ढूंढ़ें तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रसिद्ध नेता तथा मद्रास के तत्कालीन मुख्यमंत्री के. कामराज का नाम स्वतः सामने आ जाएगा। वे (औपचारिक रूप से) शिक्षित नहीं थे लेकिन राजनीतिज्ञ के तौर पर उनकी योग्यता और क्षमता पर कभी सवाल नहीं उठे। पंजाब के मुख्यमंत्री तथा देश के राष्ट्रपति रह चुके ज्ञानी जैल सिंह के पास कोई अधिकृत शैक्षिक योग्यता नहीं थी। इतना ही नहीं, निकट अतीत में बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती राबड़ी देवी का उदाहरण सामने है जो जब मुख्यमंत्री बनीं तो उनकी कोई शैक्षिक योग्यता नहीं थी। यूं तो देश में करोड़ों उच्चशिक्षा-प्राप्त लोग रहे थे और हैं लेकिन वे सभी विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री तो नहीं बने अर्थात लोकतंत्र में मतदाता से लेकर जनप्रतिनिधि बनने के लिए शैक्षिक योग्यता नहीं, राजनीतिक पार्टी का समर्थन, जनसमर्थन या धनबल ही चुनावी योग्यता है।

यदि सोशल मीडिया में उपलब्ध मोदी जी की स्नातकोत्तर डिग्री की तहकीकात की जाए तो कुछ बातें खुले तौर पर डिग्री के प्रामाणिक होने पर संदेह पैदा करती हैं-
पहली बात यह कि डिग्री में अंग्रेजी में लिखित यूनिवर्सिटी की स्पेलिंग (Unibersity) गलत लिखी हुई है।

गुजरात विश्वविद्यालय की डिग्री में यूनिवर्सिटी शब्द का स्पेलिंग गलत होना अपने आप में हास्यास्पद दिखाई देता है यद्यपि नीचे एक जगह उसी प्रमाणपत्र में यूनिवर्सिटी की स्पेलिंग (University) सही लिखी हुई है। दूसरी बात जो डिग्री की प्रामाणिकता को संदेह के दायरे में लाती है वह यह है कि स्नातकोत्तर के विषय का नाम “एनटायर पॉलिटिकल साइंस” है जबकि दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय में इस नाम का कोई विषय पढ़ाया जाता नहीं है। गुजरात विश्वविद्यालय में भी पॉलिटिकल साइंस तो पढ़ाया जाता है किंतु एनटायर पॉलिटिकल साइंस विषय के रूप में पढ़ाया जाता है इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

एक और बात जो इस डिग्री की प्रामाणिकता पर सवाल पैदा करती है वह यह है कि “मास्टर ऑफ आर्ट्स” अंग्रेजी के जिस फोंट में लिखा है वह 1983 के आसपास इस्तेमाल में ही नहीं होता था; 1992 के बाद में यह फोंट इस्तेमाल में आया है।

यहां यह भी बताने की आवश्यकता है कि प्रधानमंत्री मोदी की स्नातक की डिग्री दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार विभाग से है और मजे की बात यह है कि इसमें भी यूनिवर्सिटी की स्पेलिंग (Unibersity) उसी प्रकार लिखा है जिस प्रकार गुजरात विश्वविद्यालय की डिग्री में लिखा है। इतना ही नहीं, फोंट भी वही है। यहां प्रश्न यह उठता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय और गुजरात विश्वविद्यालय दोनों की डिग्री में यूनिवर्सिटी लिखने में एक ही प्रकार की अशुद्धि कैसे हो सकती है लेकिन सच्चाई है कि दोनों डिग्रियों में अशुद्धि एक ही प्रकार की है।

एक और बात जो डिग्री के संबंध में संदेह पैदा करती है कि आखिर गुजरात विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय को प्रधानमंत्री मोदी की एम.ए. तथा बी.ए. की डिग्री दिखाने में परेशानी क्या है?

आखिर दोनों विश्वविद्यालयों ने सूचना अधिकार कानून के तहत मांगी गई सूचना के संबंध में ना सिर्फ सूचना देने से इनकार किया बल्कि दोनों ने अलग-अलग उच्च न्यायालय में डिग्री के संबंध में जानकारी मुहैया कराने के लिए दिए गए केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश को चुनौती दे दी। दिल्ली विश्वविद्यालय का यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में अभी भी लंबित है।

अब एक और प्रश्न उठता है कि क्या सामान्यतः विश्वविद्यालय किसी विद्यार्थी की डिग्री के संबंध में आरटीआई के उत्तर में इसी प्रकार का कदम उठाता है जो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री के संबंध में उठाया है?

सच तो यह है कि इसी दिल्ली विश्वविद्यालय ने भाजपा के ही सांसद निशिकांत दुबे के दिल्ली से पार्टटाइम एम.बी.ए. की डिग्री के संबंध में मांगी गई सूचना के जवाब में सीधे तौर से कहा कि इस नाम के किसी व्यक्ति को ऐसी कोई डिग्री नहीं दी गई। फिर दोनों विश्वविद्यालयों (दिल्ली विवि और गुजरात विवि) का समान रूप से प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री के संबंध में सूचना देने से इनकार करना और केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती देने के पीछे की मंशा क्या है? इसलिए इस प्रकार के प्रयास सवालों के घेरे में आ जाते हैं।

एक बात और जो जनतांत्रिक व्यवस्था की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है- राजनीतिक जीवन में जनता के द्वारा चुने जाने के बाद उसके जनप्रतिनिधि के संबंध में शैक्षिक योग्यता का विषय कोई गोपनीय विषय कैसे माना जाएगा?

सच तो यह है कि उम्मीदवार के द्वारा जो नामांकन-पत्र भरा जाता है उसमें भी शैक्षिक योग्यता की जानकारी छिपाना या गलत जानकारी देना क्या उस उम्मीदवार का नामांकन पत्र (परचा) खारिज होने के लिए कानून-सम्मत नहीं है? या जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद उनकी सदस्यता समाप्त करने के लिए काफी नहीं है?

एक समय था जब विधानसभा से लेकर लोकसभा के सदस्यों के निर्वाचन के लिए शैक्षिक योग्यता, संपत्ति तथा आपराधिक मामलों के संबंध में जानकारी नहीं पूछी जाती थी किंतु ए.डी.आर. (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स) समेत नागरिक समाज की तरफ से चुनाव सुधारों की मांग उठने के पश्चात और चुनाव आयोग के द्वारा उसे सन् 2000 में स्वीकार करने के बाद ऐसी जानकारियां हलफनामे के रूप में उम्मीदवार से मांगी जाती हैं।

इसलिए यह कानूनी बाध्यता के अलावा सार्वजनिक जीवन में नैतिकता का प्रश्न भी है कि उम्मीदवारों को अपने संबंध में तमाम जानकारियां जनता को देनी चाहिए और यदि उम्मीदवारों के द्वारा जनता को झूठी जानकारी दी जाती है तो निस्संदेह उम्मीदवार के खिलाफ चुनाव आयोग के द्वारा इस संबंध में कानून-सम्मत कार्रवाई करने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में मोदी जी जनता के समक्ष अपने शैक्षिक प्रमाणपत्र को शान के साथ दिखाते, क्योंकि सांच को आंच क्या! लेकिन मोदी जी इसपर कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं! हां, उनके दलीय साथियों, चाहे वह गृहमंत्री अमित शाह हों या स्वर्गीय अरुण जेटली साहब, दोनों ने सार्वजनिक तौर पर जिस डिग्री को मीडिया के समक्ष दिखाया था उसी डिग्री में ये खामियां हैं।

अतः यह जनतंत्र में जनता के प्रतिनिधियों के प्रति विश्वास को मजबूती प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि ऐसी तमाम सूचनाओं को चुनाव आयोग ना सिर्फ जनता के समक्ष रखे बल्कि उसकी प्रामाणिकता की जांच कराए और चुनाव आयोग में दाखिल हलफनामे की विश्वसनीयता को स्थापित करे अन्यथा मात्र एक कागजी हलफनामे की अपनी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता सच्चाई से कोसों दूर होगी।

ऐसे विवादों का अंत चुनाव आयोग को भी पारदर्शिता के साथ करना चाहिए। वैसे भी सार्वजनिक जीवन में भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में पारदर्शिता का होना जरूरी है।

2005 में भारतीय संसद के द्वारा जो आरटीआई कानून लाया गया था उसका मकसद था कि कैसे सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाई जाए और साथ ही साथ उनमें उत्तरदायित्व की भावना भी विकसित की जाए तथा सरकारी संस्थाओं में काम करने वाले व्यक्तियों को नागरिकों के प्रति उत्तरदायी बनाया जाए। अब सवाल उठता है कि संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री शासन का प्रमुख होता है तो जनता के पास अपने प्रधानमंत्री के संबंध में सभी जानकारियां जरूर होनी चाहिए। उससे न सिर्फ जनता में प्रधानमंत्री के प्रति विश्वास बढ़ेगा बल्कि प्रधानमंत्री भी जनता के प्रति उत्तरदायी होंगे। जनतंत्र महज चुनाव नहीं है, यह जनता और चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच एक विश्वास का रिश्ता बनाता है और परस्पर विश्वास जितना मजबूत होगा जनतंत्र उतना मजबूत होगा। क्या प्रधानमंत्री मोदी भारतीय जनतंत्र को मजबूत करना नहीं चाहते? और यदि हां, तो फिर डिग्री दिखाने में देरी क्यों?

अब यह प्रश्न भी ध्यान देने योग्य है कि यदि उम्मीदवारों के लिए भारतीय संविधान और जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के तहत कोई शैक्षिक योग्यता अनिवार्य नहीं, तो किसी उम्मीदवार के द्वारा शैक्षिक योग्यता के संबंध में झूठा हलफनामा क्यों?

उम्मीदवार में इतना नैतिक साहस तो होना ही चाहिए कि जनता के समक्ष यह स्वीकार कर सके कि वह जनता का विश्वास अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर जीतने नहीं आया है बल्कि वह अपने कार्य, अपने चरित्र और जनता के सपनों को पूरा करने के संकल्प के बल पर जनता से मत मांगने आया है। यों सभी जानते हैं कि यदि जनतंत्र में शैक्षिक योग्यता को अनिवार्य माना जाता तो कानूनी तौर पर संविधान ‌से लेकर जन प्रतिनिधित्व कानून में योग्यता का प्रावधान होता किंतु यह माना जाता है कि शासन के लिए सिर्फ शैक्षिक डिग्री बहुत उपयोगी नहीं क्योंकि ज्ञान का संबंध सिर्फ शैक्षिक डिग्री से नहीं होता। व्यक्ति अपने अनुभव से, अपने विवेक से, स्वाध्याय से भी ज्ञान हासिल करता है और ऐसी स्थिति में शैक्षिक योग्यता को किसी प्रकार से कोई अतिरिक्त योग्यता ना मानकर या उसके अभाव को अयोग्यता ना मानकर उसके संबंध में गलत सूचना देने की आवश्यकता नहीं।

मोदी जी की शैक्षिक योग्यता के संबंध में विश्वविद्यालय द्वारा सच्चाई को पारदर्शिता से सामने नहीं लाने से उसकी गरिमा गिरी है बल्कि न्यायालय ने भी अपनी गरिमा के अनुरूप आचरण नहीं किया क्योंकि ये संस्थाएं किसी व्यक्ति के संबंध में पक्षपातपूर्ण तरीके से जानकारियों को छिपाने और कमियों को दबाने के लिए नहीं हैं बल्कि जनता की नजरों में संस्था को सच्चाई सामने लाकर अपनी गरिमा बनाए रखने की जरूरत है। यदि इस पूरे प्रकरण में दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर गुजरात विश्वविद्यालय के द्वारा किए गए व्यवहार को देखें तो साफ महसूस होगा कि इन संस्थाओं ने निष्पक्ष आचरण न करके अपनी गरिमा गिराई है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी शैक्षिक योग्यता के संबंध में पारदर्शिता न दिखाते हुए प्रधानमंत्री पद की गरिमा को चोट पहुंचाई है। यह बार-बार कहा जा रहा है कि ज्ञान डिग्री का मोहताज नहीं है, और जब संविधान ने विधानसभा से लेकर संसद के सदस्यों के लिए कोई शैक्षिक योग्यता की बाध्यता नहीं रखी है तो जनप्रतिनिधि बनने की कामना रखने वाले खुलेआम सच्चाई के साथ चुनाव में हिस्सा लें।

सभी जानते हैं कि जनप्रतिनिधियों की सहायता के लिए स्थायी नौकरशाही की व्यवस्था होती है जो अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर नौकरशाही में होते हैं और उनकी जिम्मेदारी होती है कि वे चुने हुए प्रतिनिधियों को, मंत्रियों को तथा प्रधानमंत्री को संविधान और कानून के संबंध में सही जानकारी दें और उन्हें नीति निर्माण तथा कानून निर्माण के संबंध में समय-समय पर संविधान-सम्मत उचित सलाह देते रहें। इसका अर्थ होता है कि शैक्षिक डिग्री के अभाव से जनप्रतिनिधि की कार्यक्षमता पर कोई प्रभाव पड़ेगा ऐसा जरूरी नहीं।

हमारे संविधान निर्माताओं ने यदि जनप्रतिनिधियों के लिए शैक्षिक योग्यता का प्रावधान नहीं रखा तो इसके पीछे यह स्पष्ट था कि वे मानते थे कि जनता के प्रतिनिधि यदि शिक्षित नहीं भी हैं तो भी जनता के लिए काम ईमानदारी से कर सकते हैं और इसलिए ना तो उन्होंने मतदाताओं के लिए कोई शैक्षिक योग्यता रखी और ना जनप्रतिनिधियों के लिए ही। ऐसी स्थिति में यदि कोई नेता सच्चाई तथा पारदर्शिता के साथ अपनी शैक्षिक योग्यता का सही विवरण नहीं देता है तो यह संविधान निर्माताओं की उस भावना का अनादर है जो उन्होंने आने वाली पीढ़ियों में व्यक्त किया था।

संविधान निर्माताओं को विश्वास था कि देश के नागरिक जनता का विश्वास जीतकर ईमानदारी से जनप्रतिनिधि की भूमिका निभाएंगे, देश का शासन चलाएंगे और जो सत्तापक्ष में नहीं होंगे वे विपक्ष में रहकर सरकार के ऊपर अंकुश लगाएंगे और आने वाले समय में जनता के सामने एक वैकल्पिक सरकार का स्वरूप रखेंगे।

किंतु आजादी के 75 वर्ष बीतने के बाद क्रमशः इस तरह के आरोप विधानसभा या लोकसभा के सदस्यों, मंत्रियों, प्रधानमंत्री पर लग रहे हैं, देश के विश्वविद्यालयों के कई प्रोफेसर से लेकर कई कुलपतियों तक पर इस तरह के आरोप लगे हैं कि उन्होंने फेक (फर्जी) डिग्री के द्वारा उच्च पदों को प्राप्त किया है और फेक डिग्री पाए जाने के बाद कई मामलों न सिर्फ उनकी नौकरियां गईं बल्कि उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी हुई‌ है। इतना ही नहीं, इस देश में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति के गलत प्रमाणपत्र बनाकर कई लोगों ने न सिर्फ शैक्षिक संस्थानों में दाखिला लिया बल्कि आगे चलकर कई नौकरियों में, यहां तक कि देश की प्रशासनिक सेवाओं में उसी फेक प्रमाणपत्र के आधार पर नौकरियां प्राप्त कीं। कभी मध्यप्रदेश के कांग्रेस के नेता और आगे चलकर छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री रहे तथा पूर्व में आला प्रशासनिक अधिकारी रहे अजीत जोगी पर भी आरोप ही नहीं लगा था बल्कि जांच समिति ने अनुसूचित जनजाति के उनके प्रमाणपत्र को नकली पाया था। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं।

कभी मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की स्नातक डिग्री को लेकर भी सवाल उठे थे क्योंकि उन्होंने अपने 2004 के चुनाव के हलफनामे में अपनी शैक्षिक योग्यता बी.ए. बताई थी जबकि वो दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार विभाग से सिर्फ बी.कॉम. में फर्स्ट ईयर की थीं। आगे चलकर उनके बाद के मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक पर भी बिना पीएच.डी. की डिग्री के अपने नाम के आगे डॉक्टर लिखने का आरोप लगा था। अभी कुछ दिनों पहले झारखंड के एक भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के संबंध में उनकी एम.बी.ए. की फेक डिग्री के संबंध में आयी जानकारी सबके सामने है।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार के फर्जी व नकली प्रमाणपत्रों की जांच भी होनी चाहिए और यदि जांच में यह गलत पाया जाए तो उनके खिलाफ आवश्यक कार्रवाई भी हो ताकि आने वाले कल में ऐसे कदम उठाने के पूर्व लोग एक बार सोचें। अंत में, प्रधानमंत्री मोदी जी नैतिक साहस का परिचय देते हुए दूध का दूध, पानी का पानी कर दें; यदि डिग्री है तो दिखा दें और यदि डिग्री नहीं है तो दुनिया को बता दें कि डिग्री नहीं है। फिर अगर कोई कानूनी कार्रवाई हो तो हो।

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