— श्रवण गर्ग —
राष्ट्रपिता की एक बार फिर हत्या की जा रही है। पहले उनके शरीर का नाश किया गया। फिर उनके आश्रमों और उनकी स्मृतियों से जुड़े प्रतीकों पर हमला किया गया। अब उन्हें मुगलों के साथ-साथ इतिहास और पाठ्यपुस्तकों से या तो बाहर किया जा रहा है या फिर उनकी हत्या और उनके हत्यारों से जुड़े संदर्भों को सत्ता की जरूरतों के मुताबिक संशोधित किया जा रहा है। मानकर चला जा रहा है कि ऐसा निर्विरोध कर दिए जाने के बाद गांधी की समाज से वैचारिक, आध्यात्मिक और नैतिक उपस्थिति पूरी तरह खत्म कर दी जाएगी !
सांप्रदायिक हिंसा के साम्राज्य के प्रति धार्मिक स्वीकृति प्राप्त करने के लिए, ‘सर्व धर्म समभाव’ की बात करने वाले गांधी को, उसके प्रत्येक अवतार में समाप्त किया जाना संघ की सत्ता के लिए आवश्यक हो गया है। बहस का विषय अब यही बचा है कि उक्त उपक्रम विद्यार्थियों का भार कम करने के लिए किया जा रहा है या फिर अपने अपराध बोधों की सूचियों से पाठ्यक्रमों को भारहीन करने के लिए किया जा रहा है?
किसी से छुपा नहीं रह गया है कि गांधी को मारने का काम उनके स्थान पर सावरकर की प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिए हो रहा है। निश्चित ही गांधी और सावरकर एकसाथ नहीं रह सकते ! धर्म विशेष की सत्ता की स्थापना में एक के लिए दूसरे को हटाया जाना जरूरी है।
इस काम को संपन्न करने के लिए 30 जनवरी 1948 और 26 मई 2014 की अवधि के बीच कल्पना नहीं की जा सकती थी। दोनों ही तारीखों का भारत की आत्मा के साथ गहरा संबंध स्थापित हो गया है। इतिहास के विद्यार्थी भारत के दूसरे विभाजन की तारीख अब ज्यादा आसानी से तलाश सकते हैं !
खादीधारी गांधीवादी और अपने को बापू का अनुयायी मानने का दंभ भरने वाले कांग्रेसी भी मुखरता के साथ सवाल करने से कतरा रहे हैं कि गांधी के घर में ही बैठकर इतनी हिम्मत के साथ उस व्यक्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करने का दुस्साहस कैसे किया जा सकता है जिस पर राष्ट्रपिता की हत्या के बाद विशेष अदालत में मुकदमा चलाया गया था। अदालत द्वारा निर्दोष साबित कर दिए जाने के बाद नवम्बर 1966 में गठित एक-सदस्यीय कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था : “गांधी की हत्या का षड्यंत्र सावरकर और उनके अनुयायियों ने रचा था इसी निष्कर्ष पर आना पड़ता है।” सावरकर का तब तक निधन हो चुका था।
गांधी का विचार और उनकी जरूरत वर्तमान की विभाजनकारी राजनीति के लिए चरखे से काते गए सूत के बजाय मशीनों से बुने गए पॉलिएस्टर की ऐसी नकाब हो गई है जिसके पीछे उनकी सहिष्णुता, अहिंसा और लोकतंत्र का मजाक उड़ाने वाले क्रूर और हिंसक चेहरे छुपे हुए हैं। ये चेहरे गांधी विचार की जरा-सी आहट को भी किसी महामारी की दस्तक की तरह देखते हैं और अपने अनुयायियों को उसके हिंसक प्रतिरोध के लिए तैयार करने में जुट जाते हैं।
दक्षिणपंथी बहुसंख्यकवाद को हथियारों से सज्जित करने की शर्त ही यही है कि गांधी द्वारा प्रतिपादित धार्मिक सहिष्णुता की हत्या करके उसे अल्पसंख्यक-विरोधी धार्मिक उन्माद में बदल दिया जाए।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गांधी को वैचारिक रूप से खत्म किया जाना जरूरी है। हिंदुत्व के कट्टरपंथी समर्थकों के लिए वह एक दुर्भाग्यपूर्ण क्षण रहा होगा कि गांधी को उनके शरीर के साथ ही विचार रूप में भी राजघाट पर नहीं जलाया जा सका। इन समर्थकों का मानना हो सकता है कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ और पाठ्यपुस्तकों में क्रूर फेर-बदल के जरिए उस अधूरे रहे काम को पूरा करने का वर्तमान से ज्यादा उपयुक्त अवसर आगे नहीं आ सकेगा।
एक डरे हुए राष्ट्र की मानसिकता के कारण हम इस बात को स्वीकार करने में संकोच कर रहे हैं कि विचार रूप में गांधी की हमें कोई जरूरत नहीं बची है। गांधी की एक व्यक्ति और विचार के रूप में तभी तक जरूरत थी जब तक कि राष्ट्र की महत्त्वाकांक्षाएँ अहिंसक थीं। जैसे-जैसे नागरिकों के पास हिंसक विचारों और मारक हथियारों का जखीरा बढ़ता गया, उजागर होने लगा कि सत्ता गांधी की उपस्थिति का इस्तेमाल हिंसा के लिए हथियारों की गरीबी और औद्योगिक पिछड़ेपन के कारण ही कर रही थी। अब सत्ता की नजरों में गांधी दारिद्र्य, दारुण्य और दया का प्रतीक बन कर रह गए हैं। उसके लिए फाइव ट्रिलियन की इकानमी में प्रवेश करने वाले राष्ट्र को इस तरह के प्रतीकों के साथ नहीं रखा जा सकता !
दक्षिण अफ्रीका की 7 जून 1893 की घटना की तरह अगर आज की तारीख में कोई सवर्ण किसी मोहनदास करमचंद गांधी को ट्रेन से उतारकर प्लेटफार्म पर पटक दे तो कितने लोग उसकी मदद के लिए आगे आने की हिम्मत करेंगे, दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। विदेशों में बसने वाले भारतीय या एशियाई मूल के नागरिक आए-दिन अपने ऊपर होने वाले नस्लीय हमले चुपचाप सहते रहते हैं। इनमें लूट और हत्याएँ भी शामिल होती हैं। इन हमलों के खिलाफ कहीं कोई छटपटाहट नहीं नजर आती।
गांधी की प्रतिमाओं के साथ विदेशों में होने वाले अपमान की घटनाओं के प्रति तो सरकार विरोध व्यक्त करती है पर जब अपने ही देश के किसी शहर में गोडसे की मूर्ति बिना किसी विरोध के स्थापित हो जाती है या कहीं और राष्ट्रपिता के पुतले पर सार्वजनिक रूप से गोलियाँ दागकर तीस जनवरी 1948 की घटना का गर्व के साथ मंचन किया जाता है तो कोई पीड़ा नहीं होती।
सवाल यह है कि क्या देश के शहरों और सड़कों के नाम बदल देने, इतिहास के पन्नों से मुगल शासकों को हटा देने और कुछ करोड़ पाठ्यपुस्तकों में राष्ट्रपिता की हत्या से जुड़े वास्तविक संदर्भों के स्थान पर संशोधित पाठ जोड़ देने से महात्मा गांधी का नाम दुनिया के दूसरे मुल्कों से भी मिट जाएगा? भाजपा और संघ को चाहे जरूरत नहीं हो, दुनिया का काम गांधी के बिना कभी भी नहीं चल सकेगा। गांधी सिर्फ उसी दिन खत्म होंगे जिस दिन इंग्लैंड में सावरकर को भारत के स्वतंत्रता संग्राम का योद्धा माना जाने लगेगा और वाशिंगटन में गोडसे की प्रतिमा की स्थापना हो जाएगी!