— हर्ष मंदर —
(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)
जैसा कि इस लेख के शुरू में (समता मार्ग पर 10 अप्रैल 2023 को प्रकाशित) मैंने कहा था कि भारत में कोरोना महामारी ने, बरसों से चली आ रही विषमतावर्धक नीतियों के फलस्वरूप, और भयावह शक्ल अख्तियार कर ली, फिर उन नीतियों ने गैरबराबरी को और भी बढ़ाया। लेकिन भारत सरकार अब भी गैरबराबरी पर गौर करने तक को राजी नहीं है।
इसलिए मेरा आग्रह है कि एक व्यापक श्रम सुधार कानून बनाया जाए जो यह सुनिश्चित करे कि सभी श्रमिकों का पंजीकरण हो, उन्हें रोजगार-सुरक्षा और अच्छा वेतन तथा पेंशन आदि की सुविधा मिले।
उचित ही, यह सवाल बनता है कि गैरबराबरी तथा करोड़ों श्रमिकों के कष्टों को कम करने के लिए केंद्र सरकार क्या कर सकती है। महामारी के दौरान आम लोगों की दुर्दशा से व्यथित होकर, मेरी अव्वल चाहत यह है कि स्वास्थ्य-बजट में भारी बढ़ोतरी हो जिसमें सबसे ज्यादा फोकस प्राथमिक स्तर पर और उससे ऊपर की स्वास्थ्य सेवाओं के निर्माण पर हो। फिर कभी ऐसा न हो कि लाखों लोगों को सिर्फ इसलिए मरने के लिए छोड़ दिया जाए कि स्वास्थ्य सेवाएँ तक उनकी पहुँच नहीं थी।
हमें इस आर्थिक मॉडल पर बड़े जोरदार ढंग से सवाल उठाने की जरूरत है, जो मुट्ठी भर लोगों के हाथ में अकूत दौलत इकट्ठी कर देता है, लेकिन रोजगारों का सृजन नहीं करता और न ही कामगारों का वेतन बढ़ाता है। मैं इस सिलसिले में और भी बातें जोड़ सकता हूँ। लेकिन सबसे बुनियादी सुधार यह होना चाहिए कि सामाजिक अधिकारों की एकदम पुख्ता सार्वभौम व्यवस्था हो, और एक ऐसा आर्थिक मॉडल सुनिश्चित किया जाए जो अच्छे रोजगार अवसरों का सृजन करे तथा सार्वजनिक सेवाओं को पुसाने लायक तथा न्यायपूर्ण बनाए।
आक्सफैम इंडिया ने, उचित ही, अपने सुझावों में सबसे ऊपर, सर्वाधिक धनी लोगों पर कर-संबंधी सुझाव को रखा है। उसका मानना है कि कर-व्यवस्था अपने आप में, गैरबराबरी को बढ़ाने या घटाने का कारक बन सकती है। मौजूदा कर-ढाँचा प्रतिगामी और गरीब-विरोधी है।
केंद्र सरकार ने 2019 में, महामारी से पहले, कॉरपोरेट टैक्स को 30 फीसद से घटाकर 22 फीसद कर दिया, नवगठित कंपनियों के लिए यह टैक्स और भी कम था, 15 फीसद। आक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि इससे 2019-20 में कर-राजस्व में 10 फीसद की कमी रहने का अनुमान सामने आया। फिर राजस्व में होने जा रही कमी की भरपाई के लिए धनी लोगों की तरफ रुख नहीं किया बल्कि जीएसटी मं बढ़ोतरी की, इसके साथ ही डीजल तथा पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया गया। इसके साथ ही, उसने दी जा रही छूटों में कटौती कर दी।
दूसरे शब्दों में, सरकार ने प्रत्यक्ष कर घटा दिये, खासकर अति-धनी लोगों पर, और बदले में अप्रत्यक्ष कर यानी जीएसटी तथा ईंधन पर कर बढ़ा दिये। इसके अलावा, कारपोरेट को कर-रियायतें और प्रोत्साहन-पैकेज दिये गये, जिसके फलस्वरूप सरकार को 1 लाख करोड़ से अधिक का राजस्व गँवाना पड़ा।
आक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि धनिकों पर टैक्स लगाने में नाकामी गैरबराबरी घटाने का अवसर गँवाना भर नहीं है- यह वास्तव में हालात को और बिगाड़ना है क्योंकि फिर सरकार बाकी समाज पर और ज्यादा टैक्स थोपती है, या स्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य सार्वजनिक सेवाओं तथा सामाजिक सुरक्षा (पेंशन आदि) पर होनेवाले सरकारी खर्चों में कटौती करती है, जबकि ये सेवाएँ गैरबराबरी का दंश कम करने में मददगार होती हैं।
आक्सफैम इंडिया का कहना है कि सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में कटौती के बजाय, सर्वाधिक धनी 1 फीसद लोगों की दौलत पर स्थायी रूप से टैक्स लगाया जाए, इसके साथ ही अरबपतियों, करोड़पतियों पर टैक्स बढ़ाया जाए। गैरबराबरी घटाने के एक पूरक उपाय के तौर पर, लग्जरी चीजों पर टैक्स बढ़ाया जाए तथा आवश्यक वस्तुओं पर जीएसटी की दरों में कटौती करके गरीबों पर टैक्स का बोझ घटाया जाए। दौलत पर तगड़े टैक्स की बदौलत सारी आबादी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उन लोगों का अंशदान बढ़ेगा जो धन-संपत्ति के पिरामिड के एकदम शिखर पर हैं।
धनकुबेरों पर टैक्स बढ़ाने के पक्ष में यहाँ मैं प्रतिष्ठित अर्थशस्त्री प्रभात पटनायक के एक तर्क का हवाला देना चाहूँगा, जो उन्होंने ‘इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट’ में दिया है। यह सालाना रिपोर्ट नयी दिल्ली स्थित ‘सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज’ (सीईएस) द्वारा प्रकाशित होती है (पटनायक खुद भी सीईएस के एक सम्मानित फेलो हैं)।
पटनायक का तर्क है कि इस तरह की टैक्स-व्यवस्था लोकतंत्र के संरक्षण और मजबूती के लिए बहुत मायने रखती है। वह कहते हैं कि सरकार कॉरपोरेट टैक्स में रियायतें लुटाती रही है और भरपाई के लिए लोक सेवाओं पर सरकारी खर्चों में कटौती करती रही है। ‘बड़े-बड़े पूँजीपतियों के आर्थिक दबदबे में बढ़ोतरी से लोकतंत्र कमजोर होता है’, कुल माँग तथा निजी निवेश में बढ़ोतरी होने के बजाय कमी आती है। वह जोर देकर कहते हैं कि इस क्रम को उलटने की जरूरत है।
सर्वाधिक धनी लोगों पर टैक्स लगाना लोकतंत्र के लिए क्यों आवश्यक है इसके मुताल्लिक पटनायक दो तर्क पेश करते हैं। पहला, लोकतंत्र के लिए संपत्ति और आय की गैरबराबरी को नियंत्रण में रखना जरूरी है, क्योंकि ‘आर्थिक गैरबराबरी का बढ़ना आखिरकार राजनीतिक बराबरी को विनष्ट करता है।’दूसरे, वह मौजूदा राजनीतिक अधिकारों के अलावा, सार्वभौम सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को सुनिश्चित करने की जोरदार पैरवी करते हैं, क्योंकि ‘अगर हम समाज में हर व्यक्ति को सुरक्षित और सार्थक जीवन का भौतिक आधार मुहैया करना चाहते हैं तो ये सामाजिक अधिकार जरूरी हैं।’ ये दोनों आवश्यकताएँ, सार्वभौम सामाजिक अधिकार सुनिश्चित करनेवाले कल्याणकारी राज्य के वित्त-पोषण के लिए, सर्वाधिक धनी लोगों पर टैक्स लगाने से पूरी की जा सकती हैं।
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इनमें से कुछ भी होना क्या संभव है? क्या सरकार वास्तव में गैरबराबरी पर अंकुश लगाने के लिए सबसे अमीर लोगों पर टैक्स लगान चाहेगी? पुसाने लायक स्वास्थ्य-सेवा, अच्छी शिक्षा, अच्छे रोजगार का अधिकार, विकलांगता तथा वृद्धावस्था पेंशन समेत सामाजिक अधिकारों के लिए क्या सरकार फंड जुटाएगी?
देश के मौजूदा राजनीतिक अर्थतंत्र को देखते हुए यह संभावना दूर की कौड़ी मालूम होती है। लेकिन हमने यह बताने की कोशिश की है कि यह अव्यावहारिक नहीं है – सिद्धांत के तौर पर यह पूरी तरह व्यावहारिक है।
भारत के मेहनतकश लोग कब तक ऐसी नीतियों को बर्दाश्त करेंगे जो मुट्ठी भर लोगों के हाथ में अकूत दौलत इकट्ठा करती है और करोड़ों लोगों को भोजन, इलाज, अच्छे स्कूल और रोजगार के लिए जूझने तथा बुढ़ापे में पेंशन के लिए तरसने को विवश करती है।
मेरे कॉलेज-विद्यार्थी के दिनों में हम बड़े चाव से एक गीत गाया करते थे कि जरूर एक दिन नया बिहान आएगा। दशकों बाद एक बार फिर, नैतिक और आर्थिक तकाजों से, मैं वह गीत गाने की जरूरत महसूस करता हूँ।
“वह सुबह कभी तो आएगी।”