— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
आज 14 अप्रैल को डाॅक्टर भीमराव आंबेडकर की 132वीं जयंती है। हर वर्ष की तरह सरकार ने अवकाश घोषित कर दिया है। जगह जगह समारोहपूर्वक जयंती मनाई जाएगी। व्याख्यान, सेमिनार और अन्य कार्यक्रम आयोजित किये जाएंगे। मूर्ति स्थापित की जाएगी, संस्थाओं के नाम रखे जाएंगे। भारत में महान विचारकों, राजनेताओं और क्रांतिकारी नायकों की मूर्तियां बनाई जाती हैं किंतु उनके विचारों को उनके अनुयायियों के द्वारा जीवन में आचरण में नहीं लाया जाता। उनकी मूर्तियों को फूल मालाएं पहनाई जाती हैं और उनके नाम के जोर-शोर से नारे लगाए जाते हैं। डॉक्टर आंबेडकर भी उन महानायकों में एक हैं।
लोकतंत्र में दलितों तथा वंचितों की बढ़ती भागीदारी और पहचान की राजनीति के बढ़ते प्रभाव के कारण विगत कुछ दशकों में डॉ आंबेडकर की राजनीतिक स्वीकार्यता बढ़ी है और तमाम राजनीतिक पार्टियां डॉक्टर आंबेडकर को वोट की राजनीति में अपरिहार्य मानने लगी हैं। जिन राजनीतिक दलों का बाबासाहेब के विचार और चिंतन से दूर दूर का वास्ता नहीं है वो भी वोट की राजनीति की विवशता के कारण डॉ आंबेडकर की भक्ति में लीन हैं।
डॉक्टर भीमराव आंबेडकर संविधान सभा के द्वारा स्वतंत्र भारत के संविधान के निर्माण हेतु गठित सात सदस्यीय प्रारूप समिति (ड्राफ्टिंग कमेटी) के अध्यक्ष थे। जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री रहे । संविधान में भारतीय नागरिकों के लिए अनुच्छेद 326 के द्वारा सार्वभौम वयस्क मताधिकार का क्रांतिकारी फैसला करवाया किंतु जब 1951-1952 में लोकसभा के लिए प्रथम आम चुनाव हुआ तो बंबई उत्तर मध्य लोकसभा सीट से देश के सबसे पढ़े-लिखे व्यक्तियों में एक डॉ आंबेडकर चुनाव के चौतरफा मुकाबले में कांग्रेस के साधारण उम्मीदवार नारायण काजलोकर से चुनाव हारे। शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के उम्मीदवार डॉ आंबेडकर के विरुद्ध न सिर्फ हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक दल ने अपना उम्मीदवार उतारा बल्कि आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा सर्वहारा की पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी अपने उम्मीदवार उतार कर आंबेडकर को लोकसभा में जाने रोका। एकमात्र सोशलिस्ट पार्टी ने उनके संगठन से समझौता किया और चुनाव में उनका समर्थन किया।
1954 में भंडारा लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव में फिर डॉ आंबेडकर चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के उम्मीदवार बने लेकिन फिर कांग्रेस से चुनाव हार गए और तीसरे नंबर पर रहे। इस प्रकार संविधान निर्माता डॉ आंबेडकर लोकसभा में कभी पहुंच नहीं पाए। भारतीय लोकतंत्र की यह त्रासदी नहीं तो और क्या थी कि संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था की पुरजोर वकालत करने वाले डॉ आंबेडकर उसी लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रक्रिया में जनता के द्वारा लोकसभा में सदस्यता के काबिल नहीं समझे गए। उस निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं ने जो किया वह तो उनके मानसिक दिवालियापन को दर्शाता ही था किंतु उससे भी आश्चर्य का विषय था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव में डॉ आंबेडकर का विरोध क्यों किया? आंबेडकर दलित समाज से आते थे और दलितों और वंचितों के लिए समता और न्याय के संघर्ष के मसीहा थे तो दलितों और वंचितों के हक का समर्थन करने वाली गांधी, नेहरू और पटेल की कांग्रेस पार्टी और मजदूर तथा किसान के अधिकार के लिए लड़ने वाली कम्युनिस्ट पार्टी ने क्यों नहीं डॉ आंबेडकर का समर्थन किया?
सच तो यह है कि जनता के हक की लड़ाई में भी साम्यता होने के बावजूद हर राजनीतिक संगठन अपने ही उम्मीदवार को जिताना चाहता है इसलिए डॉ आंबेडकर जैसे सर्वाधिक योग्य उम्मीदवार का भी वे विरोध करने से नहीं चूकते। एक और महत्त्वपूर्ण सवाल कि आखिर जनतंत्र में योग्य उम्मीदवार को भी जनता राजनीतिक पार्टियों को पसंद करने के नाम पर नकार देती है। यहां तक कि अपराधियों को भी संसद, विधानसभा और अन्य चुनी हुई प्रतिनिधि संस्थाओं के लिए चुन लेती है। राजनीतिक पार्टियां भी अपराधियों को खुलेआम अपना उम्मीदवार बनाती हैं। भारतीय राजनीति का अपराधीकरण होने के पीछे यह बहुत बड़ा कारण है कि समाज के दबंग और बाहुबली जनप्रतिनिधि संस्थाओं में पहुंच जाते हैं।
डॉ आंबेडकर अपने जीवनकाल में भारत में संसदीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित थे। भारतीय समाज में विद्यमान सामाजिक और आर्थिक अंतर्विरोधों को वे समझते थे और यही कारण है कि उन्हें लगता था भारत में संसदीय लोकतंत्र तब तक कामयाब नहीं हो सकता जब तक सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं होती।
गांधी और आंबेडकर के विचारों में यह टकराव यानी राष्ट्रीय स्वतंत्रता पहले या सामाजिक समानता पहले, या राजनीतिक क्रांति पहले जरूरी या सामाजिक क्रांति पहले, को परस्पर विरोध के रूप में देखा जा सकता है। डॉ आंबेडकर अपने इस विचार में मजबूती के साथ खड़े थे कि देश की स्वतंत्रता यदि बिना सामाजिक विषमता को दूर किए प्राप्त की जाती है तो वह भारतीय समाज की शोषण और उत्पीड़न पर आधारित जातिगत सामाजिक संरचना को नहीं बदल पाएगी और मनुष्य के लिए समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाएगी।
आज भारत संसार का विशालतम क्रियाशील लोकतंत्र है और उत्तर-औपनिवेशिक जगत में इने-गिने देशों में है जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था, 1975-77 के 19 महीनों के आंतरिक आपातकाल को छोड़कर, निरंतर क्रियाशील है। नागरिक समानता, राजनीतिक स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार, कानून का शासन, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, निर्वाचित प्रतिनिधि सरकार, नियमित निर्वाचन, उत्तरदायी सरकार, स्वतंत्र न्यायपालिका आदि उदारवादी प्रक्रियात्मक लोकतंत्र की मूल विशेषता होती है। इन वैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था एक राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना करती है किन्तु बिना सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के यह राजनीतिक लोकतंत्र अधूरा है।
बाबासाहेब लोकतंत्र को सरकारों का एक प्रकार नहीं बल्कि सामाजिक जीवन के संगठन के रूप में देखते थे। यह लोकतंत्र की एक अधिक उदात्त और व्यापक परिभाषा है। फ्रांसीसी क्रांति के प्रतीक ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ इसके मूल में हैं। अतः डॉ आंबेडकर के चिंतन में स्पष्ट था कि बिना सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के राजनीतिक लोकतंत्र अर्थहीन है।
संयुक्त राज्य अमरीका में अश्वेतों को दासता से मुक्ति दिलाने वाले राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने एक बार लोकतंत्र के विषय में यह प्रसिद्ध वाक्य कहा था- अगर मैं दास नहीं होना चाहता तो मैं मालिक भी नहीं होना चाहूंगा। डॉ आंबेडकर कहते थे यही लोकतंत्र के संबंध में मेरे विचार हैं। ऐसे विचारों से प्रेरणा लेकर ही आंबेडकर ने मानव अधिकारों में अटूट विश्वास रखते हुए लोकतंत्र को एक समावेशी स्वरूप देने का प्रयास करते हुए कहा कि लोकतंत्र को महज शासन के एक प्रकार के रूप में समझना गलती होगी, बल्कि यह ऐसे सामाजिक संगठन का स्वरूप निर्धारित करने वाला रूप हो जो मनुष्य और मनुष्य के सम्मान के सामाजिक संबंध का निर्धारण करे।
आंबेडकर की दृष्टि में लोकतंत्र एक अच्छे समाज के निर्माण से संबंधित विचार है। अपने इस आदर्श के विषय में उनके चिंतन में पूरी स्पष्टता थी और वे मानते थे कि एक आदर्श लोकतंत्र ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ के बिना संभव नहीं। वे मानते थे कि इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए लोकतंत्र साधन और साध्य दोनों है। यदि समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व लोकतंत्र का साध्य है तो इस लक्ष्य की प्राप्ति भी लोकतंत्र के साधन के द्वारा ही संभव है।
आंबेडकर का यह विचार कि अच्छा लोकतांत्रिक शासन वस्तुतः ‘जनता का, जनता के लिए तथा जनता के द्वारा शासन है’ की मौलिक संकल्पना पर आधारित था किन्तु वे मानते थे कि लोकतंत्र महज एक शासन पद्धति नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है। उनका विचार था कि लोकतंत्र शासन पद्धति से अधिक एक सहयोगी सामाजिक जीवन है, एक साझा अभिव्यक्त अनुभव है। यह मूलतः अपने सामाजिक जीवन में अपने जैसों के प्रति सम्मान का भाव है।
डॉ आंबेडकर की लोकतंत्र में अटूट आस्था थी। लोकतंत्र की उनकी संकल्पना में यह स्पष्ट था कि लोकतंत्र ने सामाजिक रूपांतरण और मानवीय प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया है किन्तु इसके लिए मात्र गलत लोगों को सत्ता में आने से रोकने से उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होगी बल्कि इस सम्बन्ध में एक प्रेरणादायी परिभाषा में उन्होंने लिखा कि लोकतंत्र के माध्यम से, बिना रक्तपात के, लोगों के जीवन में क्रांतिकारी सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन लाया जा सकता है। यहां डॉ आंबेडकर स्पष्ट रूप से हिंसा के द्वारा किसी क्रांति के समर्थक न होकर अहिंसक और संवैधानिक तरीके से समाज में परिवर्तन की वकालत करते हैं और लोकतंत्र को इस दिशा में मानव समाज के लिए एक उपयुक्त व्यवस्था मानते हैं। संगठित हिंसा के द्वारा समाज में व्यवस्था परिवर्तन के वे सख़्त विरोधी थे।
डॉ आंबेडकर राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र से जोड़कर देखते थे और मानते थे कि लोकतंत्र को समाजवाद से अलग कर नहीं देखा जा सकता। यहां वे लोकतांत्रिक समाजवादी के करीब दिखाई देते हैं और सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र के संयुक्त आदर्श को वो सामाजिक लोकतंत्र (सोशल डेमोक्रेसी) मानते थे। समता और सामाजिक न्याय का सम्मिलित रूप उनके सामाजिक लोकतंत्र का मूल था।
उनका विचार था कि पश्चिमी यूरोप के राजनीतिक लोकतंत्र में आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा को नजरअंदाज करना उसकी विफलता का एक मुख्य कारण रहा है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक लोकतंत्र के सफल न होने के पीछे यह एक आवश्यक कारण रहा कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को वहां नहीं स्वीकारा गया। एक उदाहरण के साथ अपनी बात समझाते हुए वे कहते हैं कि जैसे मजबूत शरीर के लिए मजबूत टिश्यू बहुत जरूरी है, ऐसे ही सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र, राजनीतिक लोकतंत्र की मजबूती के लिए अनिवार्य है। सच तो यह है कि डॉ आंबेडकर के लोकतंत्र संबंधी चिंतन के मूल में समता की अवधारणा है और वे मानते थे कि लोकतंत्र का दूसरा नाम समानता है। वे मानते थे कि संसदीय लोकतंत्र में स्वतंत्रता के प्रति तो गहरा लगाव रहा है किन्तु समानता के प्रति वैचारिक उपेक्षा के कारण यह स्वतंत्रता और समानता में आवश्यक संतुलन स्थापित करने में विफल रहा और अंततः स्वतंत्रता ने समानता को निगल लिया जिसका परिणाम यह हुआ कि लोकतंत्र एक नाम मात्र रह गया।
लोकतंत्र के प्रति अपना गहरा विश्वास व्यक्त करते हुए वे बार बार दोहराते रहे कि लोकतंत्र महज एक शासन पद्धति नहीं, समाज का एक स्वरूप है। समाज की संरचना और कार्यप्रणाली लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए। भारतीय समाज में जहां सामाजिक संरचना पदक्रम पर आधारित विषमता का निर्माण करती है, वहां वे यह भी समझते थे कि भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। वे मानते थे कि यह जाति व्यवस्था पर आक्रमण करके समाज में विद्यमान सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व को तोड़ने में सहायक होगा। सामंती समाज की जातिगत संरचना को नष्ट करने के एक राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने लोकतंत्र को देखा।
उनका विश्वास था कि लोकतंत्र दलित की राजनीतिक शक्ति को दर्शाने वाला कदम प्रमाणित होगा। सार्वभौम वयस्क मताधिकार के इसलिए वे जबरदस्त समर्थक थे और भारत के संविधान में वयस्क मताधिकार का प्रावधान अपने आप में एक राजनीतिक क्रान्ति से कुछ कम नहीं था। दुनिया के आधुनिक लोकतांत्रिक इतिहास में यूरोप तथा अमेरिका भी अपने सभी नागरिकों को एक बार में मताधिकार नहीं दे पाये। डॉ आंबेडकर की स्पष्ट समझ थी कि मात्र कुशल सरकार नहीं, एक अच्छी सरकार हो। इसके लिए वे लोकतंत्र की कुछ आवश्यक पूर्व शर्तों को निर्धारित करते हैं।
आंबेडकर ने अपने एक संबोधन में लोकतंत्र के लिए सात आवश्यक परिस्थितियों का उल्लेख किया है :
समाज में अत्यधिक असमानता का न होना, विपक्ष की मजबूत उपस्थिति, कानून और प्रशासन में समानता, संवैधानिक नैतिकता, बहुमत की निरंकुशता नहीं, समाज में नैतिक व्यवस्था तथा लोक चेतना।
डॉ आंबेडकर ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए भविष्य के लिए तीन महत्त्वपूर्ण चेतावनी दी। संविधान सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए स्पष्ट रूप से उन चेतावनियों का उल्लेख किया। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि समाज परिवर्तन संवैधानिक तरीके से हो अर्थात हिंसा या असंवैधानिक तरीके से यदि परिर्वतन की कोई कोशिश किसी विचार या समूह के द्वारा होती है तो वह लोकतन्त्र के लिए घातक होगा। सामाजिक असमानता और आर्थिक शोषण की समाप्ति के प्रबल हिमायती होते हुए भी वे किसी भी प्रकार के हिंसक कार्रवाई के खिलाफ थे।
उनकी दूसरी चेतावनी थी कि किसी भी स्थिति में जनता कभी भी नेताओं के प्रति भक्ति ना करे और उनके प्रति अंध आस्था के कारण उनके चरणों में अपनी स्वतंत्रता का त्याग ना करे भले ही वो कितना महान क्यों न हो। राजनीति में भक्ति अधिनायकवाद को बल प्रदान करती है।
1975 के आपातकाल में डॉ आंबेडकर की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो गई थी। आज फिर देश में विगत कुछ वर्षों से नेता के प्रति अंधभक्ति को सत्तारूढ़ दल और गोदी मीडिया फैलाने में लगे हैं जो लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि जनता में नेता के प्रति भक्ति पैदा कर विवेकहीन आस्था और अवैज्ञानिक दृष्टि को बढ़ावा दिया जाता है जिससे लोक चेतना विकसित नहीं हो पाती है और सरकार की गलत नीतियों का जनता विरोध नहीं कर पाती।
डॉ आंबेडकर यह मानते थे कि राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में परिवर्तित करना जरूरी है। सच तो यह है उनके चिंतन के मूल में सामाजिक लोकतंत्र है और इसी को आकार लेते वे देखना चाहते थे।