
— अरुण कुमार त्रिपाठी —
गांधी येरवदा जेल में बंद थे और सरदार पटेल और नारायण देसाई के साथ यह कयास लगा रहे थे कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड कम्यूनल अवार्ड घोषित करेंगे या नहीं। छह जुलाई 1932 को गांधी, पटेल और महादेव देसाई के बीच हुई यह वार्ता कुछ इस प्रकार है :
पटेल : मैलडोनाल्ड अवार्ड निश्चित तौर पर हमलोगों के विरुद्ध जाएगा।
गांधी : मुझे अभी भी उम्मीद है कि मैकडोनाल्ड टोरी सदस्यों के विरुद्ध जाएंगे।
पटेल : आप गलत कह रहे हैं। वे सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।
गांधी : फिर भी मैं सोचता हूँ कि उनकी अपनी प्रतिबद्धता है।
पटेल : अगर उनमें वास्तव में प्रतिबद्धता होती तो क्या वे उन्हें टोरी दल के हाथों बेच देते? वे हमारी पीठ से उतरना नहीं चाहते।
गांधी : कोई भी अंग्रेज भारत से अपना नियंत्रण नहीं खोना चाहेगा।
देसाई : क्या(मैकडोनाल्ड) मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का विरोध करने वाले हैं?
गांधी : नहीं पर वे अछूतों के लिए उस निर्वाचन क्षेत्र को निगल नहीं लेंगे।
17 अगस्त 1932 को ब्रिटिश सरकार ने कम्युनल अवार्ड घोषित किया और कहा कि अछूतों को अलग निर्वाचन क्षेत्र मिलेगा। अगले ही दिन गांधी ने प्रधानमंत्री को लिखा कि वे इस फैसले का अपनी जान की कीमत पर विरोध करेंगे। वे 20 सितंबर की दोपहर से भोजन नहीं ग्रहण करेंगे। सिर्फ नमक या सोडे के साथ पानी लेंगे। गांधी ने जेल अधिकारियों को यह पत्र देते हुए कहा कि वे इसे प्रधानमंत्री को केबल कर दें और साथ में प्रधानमंत्री से अनुरोध किया कि वे इसे प्रकाशित करवाएँ ताकि इससे जनमत प्रभावित हो। साथ ही उन्होंने पटेल और महादेव देसाई से कहा कि वे इसकी गोपनीयता बनाए रखें। जब उन्होंने इसका विरोध किया तो गांधी का कहना था कि वे इससे लोगों को अचानक एक झटका देना चाहते हैं। यह एक प्रकार का इलाज है। गांधी ने पटेल से कहा कि वे दो लोगों को विशेष रूप से झटका देना चाहते हैं, एक तो अनुदार हिंदू मालवीय जी को और दूसरी तरफ राजगोपालाचारी को।
राजगोपालाचारी उन दिनों कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष थे। वे दोनों विद्वान ब्राह्मण 1932 की पाबंदियों का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार में हुए थे और तब तक जेल से छूट गए थे। वे चाहते थे कि इससे सवर्ण हिंदू पश्चात्ताप करेंगे और आंबेडकर जैसे व्यक्ति को पृथक निर्वाचन क्षेत्र छोड़ने के लिए मनाया जा सकेगा। गांधी हिंदुओं की अंतररात्मा को झकझोरना चाहते थे। उनका मानना था कि अगर हिंदू छुआछूत को छोड़ने को तैयार नहीं हैं तो वे बेझिझक मुझे कुर्बान कर सकते हैं।(मोहनदास, असाल्ट विथ साल्ट—राजमोहन गांधी)।
गांधी के इस निर्णय पर टिप्पणी करते हुए राजमोहन गांधी कहते हैं कि जेल की ऊँची दीवारों के भीतर से एक कैदी कांग्रेस, हिंदू समाज, अछूतों और महामहिम की सरकार को फिर से सोचने पर विवश कर रहा था।
गांधी के पत्र का सचमुच चमत्कारिक प्रभाव रहा। जब मैकडोनाल्ड को लिखा गया गांधी का पत्र 12 सितंबर को प्रेस को जारी किया गया तो वह बिजली की तरह कौंध गया। येरवदा जेल, डाउनिंग स्ट्रीट और नयी दिल्ली के वायसराय भवन में तारों का बाढ़ आ गयी। मालवीय जी ने हिंदू नेताओं को दिल्ली बुलाया। भारत भर में जनसभाएँ होने लगीं जिनसे गांधी से उपवास वापस लेने और मैकडोनाल्ड से अवार्ड वापस लेने की माँग उठ गयी। गांधी ने राजगोपालाचारी के टेलीग्राम का जवाब देते हुए लिखा—मुझे लगता है कि इससे आपको खुशी होगी कि आपके एक साथी को दमित समाज के लिए अंतिम सत्याग्रह करने के लिए ईश्वर ने अवसर दिया है। बंबई में सवर्ण हिंदुओं की बैठक में निर्णय लिया गया कि स्वराज संसद सबसे पहले जो कानून पास करेगी उसमें अछूतों को सार्वजनिक कुओं, सार्वजनिक स्कूलों, सड़कों और सभी प्रकार की संस्थाओं पर अधिकार दिया जाएगा।
येरवदा जेल में आम के पेड़ के नीचे अनशन कर रहे गांधी के आसपास होनेवाली गतिविधियों का वर्णन करते हुए राजमोहन गांधी लिखते हैं—गांधी को देखने के लिए टैगोर आए और कई मिनट तक उस कपड़े पर अपना मुँह रखकर संवेदना प्रकट करते रहे जो गांधी के सीने पर पड़ा था। मालवीय और सीआर आए और उसी तरह आंबेडकर और दमित वर्ग के एमसी राजा और पीएन राजभोज जैसे अन्य नेता भी आए। जेल के भीतर खड़ा आम का वह पेड़ राष्ट्रीय मंच हो गया।
गांधीजी के अनशन के बारे में 19 सितंबर को इंडियन मर्चेंट्स चैंबर संस्था के सभागार में आंबेडकर पहले कह चुके थे कि—“यह अफसोस की बात है कि गांधीजी अस्पृश्यों के विरुद्ध प्राणांतक अनशन करें। यह ठीक ही है कि गांधीजी के अमूल्य प्राण बचाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति भरसक प्रयत्न करे। परंतु गांधीजी द्वारा दूसरी स्पष्ट योजना न सुझाए जाने के कारण इस घटना से मार्ग निकलना मुश्किल हो गया है। गांधीजी की ओर से आप दूसरी वैकल्पिक योजना लाएं तो उसपर विचार किया जाएगा। परंतु एक बात अटल है कि केवल गांधीजी के प्राण बचाने के लिए मेरे भाइयों के हित के खिलाफ जो योजना होगी उसमें मैं शरीक नहीं हूँगा।”
गांधीजी से येरवदा जेल में मिलकर आए शिष्टमंडल ने आंबेडकर को बताया कि अस्पृश्यों के लिए आरक्षित सीटें देने के बारे में गांधीजी का व्यक्तिगत विरोध नहीं है। इसके बावजूद आंबेडकर अपने रुख से पीछे हटने को तैयार नहीं हुए। उनका कहना था, “मैं इस घटना का खल पुरुष बनूँ यह मेरा नसीब ही सही। लेकिन आप ध्यान रखें कि मैं इस पुनीत कर्तव्य से तनिक टस से मस न होऊँगा। मेरे अस्पृश्य वर्ग के न्याय और कानूनन अधिकारों का मैं नाश नहीं करूँगा। फिर भले आप मुझे नजदीक के बिजली के खंभे पर फाँसी दे दें। इसके बजाय आप गांधीजी से एक सप्ताह अनशन स्थगित करने के लिए प्रार्थना करें और फिर समस्या पर विचार करें।’’
डा. आंबेडकर और गांधीजी दोनों का दृढ़ रुख अन्य नेताओं को डरा रहा था। धनंजय कीर लिखते हैं—“विश्व के अत्यंत श्रेष्ठ कर्मवीर और उस समय के अत्यंत रहस्यमय और प्रभावी पुरुष के साथ रूढ़िभंजक, मूर्तिभंजक और क्रांतिकारी आंबेडकर का सामना हुआ था। गांधीजी के रसायन में बनिया, बैरागी और बैरिस्टर का बेमिसाल घोल था। यह घोल बीसवीं सदी की अद्भुत घटना थी। इस तरह की प्रचंड शक्ति के महापुरुषों से संघर्ष में प्रलय का निर्माण होता ही है।”
ऐसे माहौल में शुरू हुआ गांधी और आंबेडकर संवाद बेहद मार्मिक और ऐतिहासिक है। आंबेडकर ने कहा, “महात्मा जी आप हम पर बड़ा ही अन्याय करते आ रहे हैं। यह मेरी तकदीर है कि मैं अन्यायी दिखाई पड़ूँ। इस तरह की नौबत मुझ पर हमेशा आती है। मेरे पास इसका कोई इलाज नहीं।’’ गांधीजी ने आंबेडकर को सारी परिस्थिति की संभावना बताई। गांधीजी ने कहा, “आपकी बात पर मेरी पूरी सहानुभूति है। डाक्टर आप जो कहते हैं उनमें से बहुत सी बातों में मैं आपसे सहमत हूँ। परंतु आपने कहा था कि मेरे जिंदा रहने का आपको भी कुछ उपयोग है?’’
आंबेडकर ने कहा, “जी हाँ महात्मा जी, अगर आपने अपनी जिंदगी अस्पृश्य वर्ग के कल्याण के लिए व्यतीत की तो आप हमारे वीर पुरुष बन जाएंगे।’’
गांधीजी ने कहा, “ठीक है मेरे प्राण कैसे बचाए जाएँ यह तो आप जानते ही हैं। अतः उसके अनुसार मेरे प्राण बचाए जाएँ। मैं जानता हूँ कि आपके लोगों को प्राप्त हुए अधिकार आप छोड़ने को तैयार नहीं हैं। आपके द्वारा सुझाई गयी पैनल की पद्धति मैं स्वीकार करता हूँ। परंतु मेरी यह बात आप स्वीकार करें कि आपकी पैनल पद्धति आपकी सभी आरक्षित सीटों पर लागू की जाए। आप जन्म से अस्पृश्य हैं और मैं हृदय से। हम सब एक हैं, अभंग, अविभाज्य हैं। हिंदू समाज में होनेवाली इस फूट को टालने के लिए मैं अपने प्राण गँवाने के लिए तैयार हूँ।’’
उसके बाद काफी सोच-विचार और खींचतान और कड़ी सौदेबाजी के उपरांत 24 सितंबर 1932 की शाम येरवदा जेल में आम के पेड़ के नीचे पुणे करार हुआ। मैकडोनाल्ड की पूर्व व्यवस्था के अनुसार अस्पृश्य वर्ग को 71 सीटें मिलनी थीं लेकिन अब उन्हें 148 सीटें दे दी गयीं। यह उपलब्धि दोगुनी थी। लेकिन अस्पृश्य वर्ग को अपने समाज के प्रत्याशी को खुद से चुनकर फिर स्पृश्य वर्ग के प्रत्याशी चुनने का जो अधिकार मिल रहा था वह चला गया। इस पुणे करार पर अस्पृश्य वर्ग की ओर से आंबेडकर ने हस्ताक्षर किये और सवर्ण हिंदुओं की ओर से मदन मोहन मालवीय ने दस्तखत किये। हस्ताक्षर करने वाले अन्य नेताओं में एमसी राजा, जयकर सप्रू, बिड़ला, राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद, श्रीनिवास, राजभोज, श्रीनिवासन, पी बालू, गवई, ठक्करबापा, सोलंकी, सीवी मेथा और कामथ थे। राजगोपालाचारी ने आंबेडकर से कलम की अदला बदली की। लेकिन गांधीजी ने तत्काल अनशन समाप्त नहीं किया। उनकी खराब स्थिति बनी हुई थी। इस करार का समाचार जेल के केबल से लंदन भेजा गया और मैकडोनाल्ड और उनके मंत्रिमंडल ने इसे स्वीकार किया और आवश्यक संशोधन किया। संशोधन का समाचार 26 सितंबर को पाँच बजे येरवदा जेल पहुँचा। तब गांधी ने अनशन तोड़ा। कस्तूरबा ने उन्हें जूस पिलाया और उस समय वहाँ टैगोर और परचुरे शास्त्री भी उपस्थित थे।
(जारी)
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