अनिता भारती की सात कविताएँ

1
पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

1. साँपों के बीच

साँप फिर जंगल छोड़
शहर में आ चुके हैं
विभिन्न रूपों में
बस गये है यहाँ-वहाँ
जिस-तिस के अंदर

अवसरवाद की बारिश में
बिना रीढ़ की हड्डी वाले
यह दोमुँही जीप लपलपाते
घूम रहे हैं

कह रहे हैं हमें
हम तटस्थ हैं
और और बढ़कर कह रहे हैं
हम हर जगह हर अवसर पर
तटस्थ हैं
क्योंकि उन्हें चलना है दोनों ओर
साधनी है
ज्यादा से ज्यादा जमीन
जिसमें भरा जा सके
ज्यादा से ज्यादा लिजलिजापन

खामोश,
साँपों की अदालत जारी है
करने वाले हैं वे फैसला
सुना रहे हैं फतवा
ऐसे हँसो, ऐसे बोलो
जैसा कहें वैसा कहो
होनी चाहिए सबमें एकरूपता
मतैक्य
सॉंचे में ढली
मौन मूर्तियों की तरह
कि जब चाहे उन्हें तोड़ा जा सके
नफ़रत है उन्हें भिन्नता से
नफरत है उन्हें असहमति से

एक-एक का स्वर कुचलेंगे वे
जो उन्हें बताएगा
उनकी टेढ़ी फुसफुसी
लपलपाती जीभ का राज़।

2. अब जबकि बढ़ चुके हैं खतरे

अब सॅंभल कर उठाने होंगे
अपने दायें और बायें कदम
अब खतरा नदी की तरह
बाड़ तोड़ता हुआ
पहुँच चुका है
हमारे दफ्तर
खेत-खलियान
फैक्ट्री, चायखाने
स्कूल कॉलेज
और उन बंद कमरों में भी
जो हमेशा बंद ही रहते थे

जिनको सौंप दी थी
हमने परिवर्तन की चाभी
अपना भाई-बंधु, मित्र
हमराही समझकर
आज वे
उस ताले की चाभी से
राजनीति के पेच खोलने लगे हैं
वे सब जो कभी कहलाते थे
अमनवादी, लोकवादी
विकासवादी जनतासेवी
आज वे दिन-दहाड़े
सियारों की तरह हुआं-हुआं कर
माहौल को और भंयकर
बना रहे हैं ……

हमारे परिवर्तन के ताले की चाभी
से खोल रहे हैं
चालीस चोरों की तरह
खुल जा सिमसिम का दरवाजा
जहाँ रखा था हमने सॅंभाल कर
अपना भरोसा अपना प्यार
अपना सहयोग और सब कुछ
जो बहुत अनगिनत है
पर सब उजड़ चुका है
अब सब लुट चुका है

सुनो
मत करो
वैचारिकता से अलग
भावुक भोली अभिव्यक्ति
क्योंकि चालीस चोरों का झुंड
बैठा ताक में जो कर लेगा
इस्तेमाल कर लेगा तुम्हारी
कीमती भावुक भोली अभिव्यक्ति
क्योंकि हर बार तुम्हारी अभिव्यक्ति
उनकी अभिव्यक्ति के
उस खून के घूॅंट के समान है
जो भेड़िये को और हिंसक बना देती है।

तुम जलाते हो
अवसरों की ॲंगीठी
और उसमें भूनते हो
दूसरों की
बेबसी लाचारी कमजोरी
उनसे उठती मानस गंध पर
तुम अट्टाहास लगाते हो
और ताकतवर होने का
दंभ पालते हो

हम जोड़ते हैं तिनका-तिनका
ताकि बन सके
एक प्यारा घोंसला
या फिर छायादार पेड़ के नीचे
एक आशियाना
जिसमें सब बैठ सकें
सिर जोड़कर कर सकें
कुछ दुख-सुख की बातें
कुछ जंगल पहाड़ नदी नाले
अमराइयों की बातें
छाया-प्रतिछाया, बिम्ब-
प्रतिबिम्ब की बातें

साधारण होने की प्रक्रिया से
गुजरना चाहते हैं हम
बेखौफ बेलौस
जीना चाहते हैं हम
तुम्हारे घृणित
अट्टाहासों के बरक्स
हम खिलखिलाकर हँसना चाहते हैं

हम अपनी हँसी से
एक ऐसी दुनिया रचना
चाहते हैं जहाँ
किसी की हैसियत का टिकट
न कटता हो
किसी हैसियत वाली टिकट-खिड़की पर
बस जहाँ मेरी तुम्हारी
हम सबकी हँसती आँखों का
स्वप्न पलता हो।

3. शब्द शीशे हैं

बहुत अच्छी तरह
आता है तुम्हें
शब्दजाल से खेलना
शब्दों से खेलते-खेलते
दूसरों को जाल में उलझा देना

लाते हो शब्द में धर्म
और धर्म में खोजते हो शब्द
बनाते हो शब्दों को
साम्प्रदायिक, धर्मनिरपेक्ष
हिन्दू मुसलमान
औरत और मर्द
शब्दों को उनकी औकात से
देते हो वजन, आकार और रौब
शब्द डराते हैं
रुलाते हैं पीड़ा जगाते हैं
फूल से शब्द गुदगुदाते भी हैं
कभी-कभी शब्द
महज शब्द नहीं रहते
दर्द की दास्तान बन जाते हैं

मत खेलो शब्दों से
ये शब्द एक शख्सियत है
दुमछल्ले भी हैं
गर्व से ऐंठे हुए भी हैं
भीगी बिल्ली से दुबके हुए भी
ग्लानि की आँच में
सिंके हुए भी

मत करो बदनाम इनको
शब्द तो आखिर
शब्द हैं
जो हमारे दिल से निकल
तुम्हारे दिल में
उतर जाते हैं
शब्द शब्द नहीं,
चमकते शीशे हैं
जिसमें हम रोज़
अपने को चमकाते हैं

4. अमानवीयता के इस दौर में

यह अमानवीयता का दौर है
मानवीय होने की
कोशिश मत करना
अनैतिकता के खिलाफ
बोलोगे तो
तांक-झांक करने के आरोप में
सरे राह मार गिरा दिेए जाने की
साजिश रची जाएगी
हक न्याय के लिए खड़े होने पर
जड़ से नेस्तनाबूद कर दिए जाओगे
क्या अजीब दौर है
कि अमानवीयता का दौर
खत्म ही नहीं होता !

पैसा, प्यार, देह, मद
शक्ति और जनहित का
रात-दिन चल रहा व्यापार है
अहं टकराते हैं जामों की तरह
खुद्दारी टपक पड़ती है
लालची कुत्ते की लार की तरह
आँखों में पॉवर का नशा
हज़ार वॉल्ट के
सीएफएल बल्ब की तरह
चुभता है
नग्न उद्दीप्त बाँहें तड़पती हैं
सब कुछ कुचलने को
क्या तुम कुचलने को तैयार हो?
अगर नहीं तो तुम्हें
खून के आंसू रुलाये जाएंगे
तुम्हारे मन का जल्लाद
चिल्ला-चिल्लाकर बोलेगा कि तुम
मर चुकी हो, मर चुकी हो तुम…

क्या तुम सचमुच मर चुकी हो?
क्या तुम वाकई मर जाओगी?
दरअसल वे तुम्हें मारते-मारते
इंसां से आँसुओं की लाश में
बदल देना चाहते हैं
क्या तुम आँसुओं की लाश में
बदलने को तैयार हो?
पीठ में खंजर घुसेड़कर
मारे गये अम्बेडकर, बुद्ध
और कार्ल मार्क्स को
तुम्हारे ऊपर कफ़न की तरह ओढ़ाकर
तुम्हें शांत करना चाहते हैं
अदालत में फैसले
खटाखट हो रहे हैं
रुपया नंगा खड़ा हो
लोकतंत्री ताल पर नाच रहा है
रिश्तों, सरोकारों की बदनुमाइश में
वह जीत रहा है
और खालिस इंसान मर रहा है

बोलो, तुम्हारी तड़प की
कीमत क्या है?
लड़ो-लड़ो, नहीं मरो-मरो
का गान चल रहा है
जीवन का मधुर गान
बंदूक की कर्कश धांय-धांय सुना रहा है
चलो चलो जल्दी चलो
चलो चलो कि जल्दी लड़ो
कि अब मत कहो कि
यह अमानवीयता का दौर है
मानवीयता की बात मत करो।

पेंटिंग- बिजेंद्र

5. वे चाहते हैं

इंसान के रूप में
बैठे हैं भेड़िये
जो पीना चाहते हैं
तुम्हारा गर्म लहू
वे करना चाहते हैं
तुम्हारा इस्तेमाल
अपने को ऊर्जावान और
समाज के प्रति प्रतिबद्ध
दिखाने के लिए

वे अपनी जेबों में रख कर
घूम रहे हैं अनेक रंग
ताकि वक्त पड़ने पर
जब चाहे जिस रंग से
रंग लें अपना चेहरा
भगवा, हरा, नीला, लाल और गुलाबी
वे मुखौटे चढ़ाने-उतारने में माहिर हैं
वे जब चाहे
जिसका मुखौटा चढ़ा सकते हैं

वे हर वाद से परे
हर वाद से ऊपर
और हर विवाद के साथ खड़े हैं
बिना झिझक, बिना संकोच
बिना लाज-शर्म के

वे नाच रहे हैं, गा रहे हैं
वे झूम रहे हैं
वे एक दूसरे की बाँहों में बाँहें डाले
आगे बढ़ रहे हैं
वह जो दूर चमक रहा है
तेज रोशनी का लाल घेरा
उसे समूचा निगलने को

6. प्रतिघात

दोस्त,
मैंने अपने अनुभव से जाना
ज्यादा सरल होना अच्छा नहीं होता

उससे भी ज्यादा कि
ज्यादा सरल होते हुए
किसी की बेहद मदद कर देना
और उससे भी ज्यादा कि
ज्यादा सरल होते हुए
उसके काम निबटाने का
खुद ज़रिया बन जाना
उसकी तय मंजिल का
सुंदर सा पत्थर बन जाना

जब आप
ज़रिया बन जाते हैं
तब उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ
पूरी तरह परवान चढ़ जाती हैं
तब महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति
सबसे पहले
सबसे सरल व्यक्ति के ऊपर चढ़कर
अपनी विजय पताका फहराता है

क्योंकि आप सरल होते हैं
इसलिए आप सबको
अपने जैसा सरल मान
उसके हाथ की लकड़ी बन जाते हैं
वो लकड़ी
जो लाठी बनने की
ताकत रखती थी
अब वही लकड़ी वह सड़क पर
पीट पीट कर आगे बढ़ता है
और लकड़ी लाठी न बन महज
एक लक्कड़ रह जाती है
जिसका किसी दिन हवन में
चूल्हे में या फिर किसी
आरामकुर्सी में हत्था बनना तय है

तो दोस्त,
सँभालो अपने आप को
सरल जरूर रहो पर चौकन्ने भी रहो
वर्ना कहीं ऐसा ना हो
कि जब वह कोई प्रतिघात करे
तो वह किसी मुखौटे में सुरक्षित
खड़ा हो मुस्कुरा रहा हो
और तुम अपना दागदार चेहरा लिये
घेर कर मार दिए जाओ।

7. अपराधों का जश्न

रात नहीं पर दिन के
भरपूर उजाले में
जीत के नगाड़े बज रहे हैं
संवेदनाओं के ज्वार
फूट रहे हैं
सहानुभूति की लहरें
उछाल मार रही हैं
जश्न मना रहे हैं उनका
जो अपराधी हैं घूसखोर हैं
बलात्कारी हैं अत्याचारी हैं
निरंकुश हैं बेहया हैं
चालाक हैं काइयाँ हैं

अब अपराधी
बलात्कारी घूसखोर
अत्याचारी कॉंइयाँ चालाक
बेहया निरंकुश
छिपकर नहीं बल्कि
बस्तियाँ बनाकर रहते हैं
आसमान के चाँद पर
शान से
खाट बिछाकर सोते हैं।

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