— अरुण कुमार त्रिपाठी —
इस करार (पूना पैक्ट) पर टिप्पणी करते हुए धनंजय कीर कहते हैं, “गांधीजी में स्थित महात्मा जब राजनीतिज्ञ गांधी पर हावी हो जाता था तब साधारण बातें जटिल हो जाती थीं। गोलमेज सम्मेलन के समय महात्मा ने राजनीतिज्ञ गांधी पर विजय प्राप्त की थी। लेकिन यरवदा जेल में राजनीतिज्ञ गांधी की विजय से महात्मा पद की पराजय हुई। गांधीजी की विजय इतनी निर्णायक और परिणामकारी बनी कि जिस तरह इंद्र ने कर्ण के कवच और कुंडल तरकीब से छीनकर उसे दुर्बल किया उसी तरह गांधीजी ने अस्पृश्य समाज के अलग मतदाता मंडल के कवच और कुंडल निकालकर आंबेडकर को दुर्बल किया।’’ आंबेडकर का कहना था कि अगर गांधीजी ने गोलमेज सम्मेलन के दौरान ही बड़प्पन दिखाया होता तो यह नौबत ही न आती। इस करार से अंतर यही पड़ा कि गांधी ने अछूतों के लिए सीटें आरक्षित करना स्वीकार किया तो आंबेडकर ने पृथक मतदाता मंडल छोड़कर साझा मतदाता मंडल स्वीकार किया।
राजमोहन गांधी इस करार पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं, “1932 के अनशन और सौदेबाजी का रिकार्ड बहुत कुछ बताता है। आंबेडकर कहते हैं कि उन्हें आश्चर्य हुआ बल्कि बहुत आश्चर्य हुआ कि मुझमें और गाधी में बहुत कुछ समान है।’’
इस समझौते का सवर्ण हिंदुओं पर तात्कालिक रूप से व्यापक असर पड़ा। इसे व्यक्त करते हुए गांधी ने सीएफ एंड्रयूज को 30 सितंबर को लिखा, “मुझे उम्मीद थी कि कट्टर हिंदुओं से सशक्त प्रतिक्रिया आएगी। लेकिन अचानक हुई इस प्रतिक्रिया के लिए मैं तैयार नहीं था। लेकिन मैं धोखा खाने वाला नहीं हूँ। यह देखा जाना है कि जो मंदिर अभी अछूतों के लिए खोले गए हैं वे हमेशा खुले रहेंगे और तमाम अन्य चीजें कायम रहेंगी।’’
“फिलहाल तिरसठ साल के एक कैदी ने दो मोर्चों पर इतिहास बनाया। एक तो जेल में एक पेड़ के नीचे लेटकर हठी साम्राज्य से अपनी इच्छा मनवाई। दूसरी तरफ उन्होंने हिंदू समाज की लंबे समय से सोयी अंतरात्मा को जगा दिया।’’ (मोहनदास—राजमोहन गांधी)।
पुणे करार के बाद राजनीतिक रूप से गांधी और आंबेडकर में समझौता जरूर हुआ और दोनों एक दूसरे के व्यक्तित्व के करीब आए लेकिन जाति व्यवस्था के सवाल पर उनका टकराव बना रहा। लाहौर के जाति पांत तोड़क मंडल ने 1936 के अपने वार्षिक अधिवेशन के लिए बाबासाहेब आंबेडकर को अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया। उसके लिए उन्होंने पाँच दिसंबर 1935 से मार्च 1936 के बीच 116 दिनों में अनिहिलेशन आफ कास्ट(जातिभेद का समूल नाश) शीर्षक से एक लंबा शोधपत्र तैयार किया। लेकिन आयोजक मंडल उसमें व्यक्त विचारों से सहमत नहीं था। वह चाहता था कि उसमें से वेद का उल्लेख हटा दिया जाए और हिंदू धर्म के बारे में कहे गए कठोर शब्द भी न रखे जाएँ। डा आंबेडकर ने लिखा था कि हिंदू के रूप में यह उनका आखिरी संबोधन होगा। इसे भी हटाने का आग्रह आयोजकों ने किया था। आंबेडकर इसके लिए तैयार नहीं हुए। इसलिए वह भाषण नहीं हो सका।
लेकिन आंबेडकर ने उसे प्रकाशित करवाया और उसके आधार पर भारतीय समाज में तीखी बहस शुरू हुई। वह बहस आज भी जारी है। यह अकारण नहीं है कि अरुंधति राय उसपर लंबी भूमिका के साथ उसे नए रूप में प्रस्तुत करती हैं। महात्मा गांधी ने उस प्रपत्र का संज्ञान लिया और `हरिजन’ साप्ताहिक के 11जुलाई 1936 के अंक में उसपर प्रतिक्रिया व्यक्त की। गांधी ने लिखा, “…अध्यक्षीय भाषण को आपत्तिजनक मानकर उसे निरस्त करने का औचित्य कई प्रश्नों को जन्म देता है।…..समिति ने जनता को एक ऐसे व्यक्ति के विचार सुनने से वंचित कर दिया जिसने समाज में अपना अनूठा स्थान बनाया है। भविष्य में चाहे किसी भी विशेषण से उन्हें जोड़ा जाए लेकिन डा आंबेडकर ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो समाज द्वारा भुलाए जा सकें। ….उन्होंने समिति द्वारा अस्वीकार किए जाने का प्रत्युत्तर संबोधन को स्वयं प्रकाशित करवाकर दे दिया है। उन्होंने इसका मूल्य 8 आने रखा है। मेरा सुझाव है कि इसे घटाकर 2 आना या कम से कम 4 आना रखा जाए।’’(जातिभेद का समूल नाश—बाबासाहेब डा भीमराव आंबेडकर, अनुवादक डा अनिल गजभिए, सम्यक प्रकाशन)।
गांधी ने पुस्तिका में उठाए गए आंबेडकर के आरोपों को इस प्रकार चिह्नित किया। “डा. आबेडकर ने पाया कि अधिकांश सवर्ण हिंदुओं का अपने सहधर्मी अछूत कहे जाने वाले लोगों के साथ व्यवहार न केवल अमानवीय रहा है वरन उन्होंने अपने आचरण को शास्त्रोचित मान रखा है। ….अपने संबोधन में लेखक ने उन अध्यायों और श्लोकों को अपने तीन सूत्री आरोपों के संदर्भ में उद्धृत किया है। यह तीन आरोप हैं—अमानवीय व्यवहार, इस व्यवहार हेतु प्रतिपादकों द्वारा अखेदपूर्ण औचित्य तथा यह खोज कि इस व्यवहार का औचित्य शास्त्र-सम्मत है।’’
तब तक आंबेडकर हिंदू धर्म को छोड़ने की घोषणा कर चुके थे इसलिए गांधीजी ने ‘हरिजन’ की इस टिप्पणी में इस बात का भी उल्लेख किया है कि “एक हिंदू के रूप में पालित पोषित और एक हिंदू अधिपति द्वारा शिक्षित डा आंबेडकर सवर्ण कहे जाने वाले हिंदुओं द्वारा उनसे तथा उनकी जाति के व्यक्तियों के प्रति किए गए व्यवहार से इतने दुखी हैं कि वे न केवल उनसे नाता तोड़ने के लिए कटिबद्ध हैं वरन उस धर्म को भी छोड़ने का प्रस्ताव कर रहे हैं जो उनकी(हिंदुओं की) और डा आंबेडकर की साझी विरासत रही है।’’
गांधीजी ने ‘हरिजन’ के 18 जुलाई के संस्करण में इस बहस को जारी रखा। उन्होंने लिखा, “रामायण और महाभारत को शामिल करते हुए वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति तथा पुराणों को हिंदू शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। यह सूची अंतिम नहीं है। हर युग में और हर पीढ़ी द्वारा कालांतर में ग्रंथों में वृद्धि की गयी है। इससे यही पता चलता है कि हर प्रकाशित या हस्तलिखित ग्रंथ शास्त्र नहीं हो सकता। स्मृतियों में जो लिखा है उसे कभी भी ईश्वरीय कथन नहीं माना जा सकता। अतः डा आंबेडकर ने जिन ग्रंथों का उदाहरण दिया है उन्हें प्रामाणिक तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता।….जाति का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। जाति प्रथा कैसे प्रारंभ हुई यह मैं नहीं जानता।….लेकिन यह मैं जरूर जानता हूँ कि यह आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विकास के लिए घातक है। वर्ण तथा आश्रम वे संस्थाएँ हैं जिनका जाति से कोई सरोकार नहीं है।….वर्ण व्यवस्था संबंधी नियमों में जाति का कोई स्थान नहीं है।(हिंदू धर्म का सारतत्त्व एकमेव सत्य को ही ईश्वर मानता है और मानव परिवार हेतु अहिंसा की आचार संहिता का प्रतिपादन करता है।)’’
गांधीजी आगे लिखते हैं “…डा आंबेडकर ने अपने संबोधन में स्थापित किया है कि वह धर्म जिसे चैतन्य, ज्ञानदेव, तुकाराम, तिरुवल्लुवर, रामकृष्ण परमहंस, राजा राममोहन राय, महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर, विवेकानंद तथा अन्य महापुरुषों द्वारा प्रचारित किया गया उसमें कोई गुण नहीं है? ’’
अपने 15 अगस्त के अंक में गांधी ने ‘हरिजन’ में जाति पांत तोड़क मंडल के माननीय संतराम के पत्र को उद्धृत करते हुए उनको जवाब दिया है। संतराम ने यही कहा था कि जाति और वर्ण के बारे में आपका जो सूक्ष्म विश्लेषण है वह सामान्य समझ के परे है।
डा आंबेडकर ने गांधी की इस समीक्षा और चर्चा के जवाब में उन्हें लंबा प्रतिउत्तर भेजा। हालांकि वह उत्तर ‘हरिजन’ में नहीं छपा लेकिन उसमें दिए गए तर्क इस बात के प्रमाण हैं कि जाति और वर्ण पर गांधी और आंबेडकर के विचारों में कितना द्वंद्व था और गांधी द्वारा बाद में चार वर्णों के सिद्धांतों को अस्वीकार कर दिये जाने के बाद भी इक्कीसवीं सदी में भारत में वह बहस जारी है।
इसपर टिप्पणी करते हुए डा आंबेडकर लिखते हैं, “जात-पांत तोड़क मंडल के लिए जाति प्रथा पर मेरे लिखे संबोधन की चर्चा अपने ‘हरिजन’ में करके महात्मा जी ने मेरा जो सम्मान बढ़ाया है उससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मेरे भाषण की समीक्षा पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जाति के प्रति मेरे दृष्टिकोण से महात्मा का पूर्ण विरोध है। ……यदि मेरा विरोधी कोई छोटा और अचर्चित व्यक्ति होता तो तब मैं इसके पीछे नहीं पड़ता। परंतु मेरे विरोधी चूंकि स्वयं महात्मा हैं अतः मैं सोचता हूँ कि उन्होंने जो दृष्टिकोण रखा है उसका विरोधी पक्ष प्रस्तुत करने का मैं प्रयास करूँ। …….यदि कभी मान लिया जाए कि मैंने प्रचार पाने की लालसा से संबोधन को प्रकाशित करवाया तब भी मेरे ऊपर पत्थर कौन फेंकेगा? स्पष्ट है कि कांच के मकानों में रहने वाले महात्मा जी जैसे लोगों को तो बिल्कुल नहीं फेंकना चाहिए।’’
“इस उत्तर में बाबासाहेब ने महात्मा शब्द का प्रयोग 65 बार किया है। किसी शब्द का अत्यधिक प्रयोग करने से उसका अवमूल्यन हो जाता है, यह वास्तविकता है। बाबासाहेब के मन में क्या था? मूल्य स्थापन या अवमूल्यन?’’ (डा अनिल गजभिए—जातिभेद का समूल नाश, सम्यक प्रकाशन)।
(जारी)