क्या भारत अपना मध्यसप्तक भूल गया है

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एम.सरोज


— ध्रुव शुक्ल —

म भारत के लोगों को अपने जीवन-दर्शन में पूरी धरती पर बसा सबका जीवन एक वीणा जैसा लगता रहा है। बीती सदियों में यहां जो भी आया उसने इस वीणा के स्वरों से अपना सुर ज़रूर मिलाया। उसने अपने जीवन का आलाप नयी स्वर-मेल पद्धति से भी लिया। भारत के लोगों ने बुरे वक़्तों में भी स्वरों की सांस कभी टूटने नहीं दी।

संगीत-साधक कहते ही आये हैं कि अगर वीणा के तार ढीले हों तो वह नहीं बजायी जा सकती। अगर उसके तार खूब खिंचे हुए हों तब भी उस पर स्वर नहीं साधे जा सकते। वीणा के तारों का ढीलापन और ज़रूरत से ज़्यादा खिंचाव — ये दो अतियां जीवन से कोई स्वर फूटने नहीं देतीं। आदमी को आदमी भी नहीं रहने देतीं, उसे हिन्दू-मुसलमान बना देती हैं।

हम भारत के लोग सदियों से दो अतियों में जी रहे हैं—धर्म और मज़हब पर गौर करें तो एक तरफ़ चिन्तन का ढीलापन और दूसरी तरफ़ मतांध सांप्रदायिक खिंचाव हमें अपने जीवन की वीणा के स्वर साधने ही नहीं देता। राजनीति पर गौर करें तो नागरिक कर्तव्य का ढीलापन और राज्य के अहंकार का खिंचाव देश के समूचे जीवन की वीणा को बेसुरी बनाये हुए है। बाज़ार पर गौर करें तो संयम का ढीलापन और वासनाओं के खिंचाव के बीच अपनी देह की वीणा कैसे साधी जा सकती है?

श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में मनुष्य के कर्मविवेक के ढीलेपन और कामनाओं के खिंचाव के बीच निष्कामता को साधने की विधि बतायी। बुद्ध ने दुखविवेक के ढीलेपन और तृष्णा के खिंचाव के बीच सम्यक् मार्ग दिखाया, जिसे मध्यमार्ग भी कहते हैं। गांधी ने ग़ुलामी की समझ के ढीलेपन और हिंसक उपनिवेशक सत्ता के खिंचाव के बीच अहिंसक स्वराज्य की साहसिक दृष्टि प्रदान की। और जितने भी महापुरुष हुए सब यही तो कहते रहे कि अतियों से पैदा होने वाले अतिवादों को त्यागकर जीवन को उस मध्यसप्तक में ले आना चाहिए जहां से सबकी देह की वीणा के स्वर फूटते हैं।

इस संसार की विधि का अपना विधान ही कुछ ऐसा है कि सबको अपनी देह की वीणा ख़ुद ही साधना पड़ती है। यह बात किसी से छिपी नहीं हैं कि हर आदमी अपने स्वभाव से जानता है कि उसकी देह की वीणा अतियों को छोड़कर मध्य में कैसे आती है। संसार में हर आदमी अपने जीवन की सुर-साधना के प्रति ख़ुद ही जिम्मेदार है। सबका जीवन अपनी-अपनी गायकी जैसा है और सबको अपना तानपूरा खु़द ही मिलाना पड़ता है। उसकी यह जिम्मेदारी कोई धर्म, कोई राजनीति और कोई विश्व बाज़ार नहीं ले सकता।

हम भारत के लोग जब तक इस मज्झिम निकाय (मध्यमार्ग) को साधकर अपने जीवन को नहीं चलायेंगे तब तक तरह-तरह की सत्ताएं हमारा स्वराज्य छीनती रहेंगी और हम दिनोंदिन एक बेबस जीवन जीने को विवश किये जाते रहेंगे। ऐसे समय जब मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनात्मक रूप से लापरवाह होकर जैविक महामारी और युद्ध से मुनाफ़ा कमाती वैश्विक शक्तियां हमें साधनहीन बना रही हैं, हमें अपने उस भूले हुए मार्ग पर लौट आना चाहिए जो सबके योगक्षेम से हमें जोड़ता है।

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ईद मुबारक

ये दिल चाॅंद-सा है
जिस्म में टहलता है
तुम्हारा प्यार है
दिन ढले मचलता है

उसे पाने के लिए
रोज़ जनम लेता हूं
उसे खोने से
मेरा काम नहीं चलता है

ऐसे छिपता है
जैसे ईद आने वाली हो
उसी के होने की
आहट से दिल बहलता है

आसमां में गूंजती अजां के बिना
दिन ही कहां ढलता है

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