मातृ प्रधान समाज और उसके बाद

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— ऋतु कौशिक —

क्या आर्यों ने भारत में आकर भारतीय मातृ-प्रधान समाज को खत्म कर पितृ-प्रधान समाज की नींव रखी थी? भारत में आर्यों के आगमन के पश्चात महिलाओं की स्थिति में क्या परिवर्तन हुआ?

महिलाएँ समाज की मुखिया इसलिए होती थीं क्योंकि उस समय उत्पादन के संसाधनों पर महिलाओं का वर्चस्व था। अर्थात जब मनुष्य शिकारी और संग्रहकर्ता था। उस समय  शिकार का काम मुख्यतः पुरुषों का था और फल-मूल चुनने या संग्रह करने का काम महिलाओं का था। शिकार मिलना अनिश्चित था, परंतु फल-मूल का संग्रह ज्यादा भरोसेमंद और स्थायी स्रोत था। जब कृषि की शुरुआत हुई तब खेती बहुत ही सीमित स्तर पर होती थी और खेती का कार्य आदिम औजारों से किया जाता था, जो महिलाएं स्वयं ही कर सकती थीं। इसलिए समाज में महिलाओं का सम्मान अधिक था। परंतु आबादी बढ़ने के कारण अधिक उत्पादन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। लिहाजा खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए लोहे से बने हल का इस्तेमाल किया जाने लगा। लेकिन इन औजारों से खेती करने के लिए या  हल चलाने के लिए, महिलाएं हमेशा सक्षम नहीं होती थीं, क्योंकि महिलाएं अधिकतर समय या तो गर्भवती रहती थीं अथवा बच्चों की देखरेख में व्यस्त रहती थीं। इसलिए स्वाभाविक रूप से ही यह काम पुरुषों के जिम्मे आ गया।

दूसरी तरफ धीरे-धीरे पशुपालन में भी बढ़ोतरी होने लगी। अब जन समुदायों के पास दस-बीस गाय या घोड़े नहीं, बल्कि सैकड़ों गायें, घोड़े और अन्य पशु होने लगे थे। इन पशुओं के लिए स्थानीय चारण भूमि कम पड़ने लगी थी। पशुओं को दूर-दराज के इलाके में ले जाना पड़ता था। यह काम पुरुष ही कर सकते थे, क्योंकि उनके पास पहले से ही शिकार करने का अनुभव भी था। दूसरी तरफ इतनी बड़ी संख्या में पशुओं को नियंत्रण में रखना भी महिलाओं के लिए संभव नहीं था। और क्योंकि पशु ही उस समय परिवार की प्रमुख सम्पत्ति होते थे, पशु धन की रक्षा के लिए संघर्ष भी अवश्यंभावी था। इसलिए पशुपालन का काम भी मुख्यतः पुरुषों के ही जिम्मे आ गया। इंडो-यूरोपियन जिस इलाके से आते थे अर्थात मध्य एशिया, स्तेपी और रूस का दक्षिणी भाग, वहां भी पहले मातृ प्रधान समाज ही हुआ करता था। परंतु ईसा पूर्व 7000 में इसी इलाके में दुनिया में पहली बार घोड़ों को पालतू बनाया गया। पशुपालन ही यहां के लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन बन गया। जिसके कारण  मुख्य आजीविका के स्रोत अर्थात् पशुओं पर पुरुषों का नियंत्रण स्थापित हुआ और समाज में भी इसी क्रम में पुरुषों का वर्चस्व स्थापित हो गया और  समाज में पुरुष प्रधानता कायम हो गई। हालांकि यह प्रक्रिया अकस्मात् नहीं हुई बल्कि हजारों सालों की अवधि में धीरे-धीरे यह परिवर्तन होता चला गया।

इस प्रकार धीरे-धीरे उत्पादन शक्ति के विकास के एक विशेष पड़ाव पर आकर समाज के मुख्य उत्पादन के स्रोत पुरुषों के अधीन आ गये, जो कि एक समय महिलाओं के अधीन हुआ करते थे। इससे समाज में पुरुषों का वर्चस्व कायम हो गया। चूंकि महिलाएं भी उत्पादन का एक साधन थीं, इसलिए महिलाओं को भी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ दिया गया तथा सभी पितृसत्तात्मक मान्यताओं व मूल्यों को महिलाओं के ऊपर थोप दिया गया, जिसके लिए पुरुष प्रधानता को दैवीय आदेश के रूप में समाज में स्थापित किया जाने लगा। महिलाओं ने इसका भरपूर विरोध किया परंतु समाज विकास के नियम के तहत चूंकि उत्पादन के मुख्य स्रोतों पर पुरुषों का कब्जा हो चुका था इसलिए समाज पुरुष-प्रधान ही बनता चला गया। इस प्रकार से मातृ-प्रधान समाज पुरुष-प्रधान समाज में रूपांतरित हो गया।

इस प्रकार हमने देखा कि रूस के स्टैपी के क्षेत्र से लगभग 1700 ईसापूर्व में आर्यों का भारत में आगमन हुआ था उस समय आर्य जन समुदाय पितृ-प्रधान समाज के नियमों से  संचालित था। जबकि भारत में अभी भी मातृ-प्रधान समाज व्यवस्था का ही प्रचलन था। आर्य समाज-व्यवस्था में महिला की स्थिति बहुत ही हीन थी। उसकी स्थिति केवल पुरुष के साथ जुड़ने से ही अच्छी हो सकती थी। आर्यों ने भारत में आकर इसी सामाजिक व्यवस्था को आरोपित कर दिया। हालांकि यह भी सत्य है कि कोई भी बाहरी आक्रमण किसी समाज में आमूलचूल परिवर्तन नहीं ला सकता है, प्रत्येक समाज व्यवस्था अपने अंदरूनी नियमों के कारण ही परिवर्तित होती है, इसलिए बात ऐसी नहीं थी कि आर्यों ने ही भारत में आकर मातृ-प्रधान समाज को खत्म किया लेकिन आर्यों ने भारत में आकर यहां के मातृ प्रधान समाज के टूटने की प्रक्रिया को तीव्र तो किया ही।

लगभग 2000 ईसापूर्व के बाद स्टेपी से निकलकर ईरान, अफगानिस्तान सहित अन्य कई क्षेत्रों से होते हुए विभिन्न सभ्यताओं के साथ आदान-प्रदान करने के उपरांत लगभग 1700 ईसापूर्व में जो लोग भारत आए, वे अपने आप को आर्य कहते थे। आर्य जब हिन्दुस्तान में आए, तब वे हाथियों से लैस थे और घोड़ों पर सवार थे। उन्होंने यहां पहले से बसे गैर-आर्यों को परास्त कर दिया और हिन्दुस्तान में ही बस गये तथा गैर-आर्य संस्कृति को अपना लिया। इतना ही नहीं, बहुत-सी आर्य परम्पराओं को भी हिन्दुस्तान की गैर-आर्य आबादी पर थोप दिया। हालांकि दोनों परम्पराओं का आदान-प्रदान एकदम से नहीं हो गया, बल्कि इस प्रक्रिया में लम्बा समय लगा। आर्य जन समुदाय पितृप्रधान समाज के नियमों के द्वारा संचालित था। परंतु भारत में पहले से बसने वाला जन समुदाय मातृ प्रधान समाज के नियमों से संचालित होता था।

आर्यों ने जब गैर-आर्यों के ऊपर अपनी मान्यताओं को थोपने की कोशिश की, तो शुरुआती दौर में आर्यों को प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा इसलिए उन्होंने कुछ-कुछ बिन्दुओं पर समझौते का रास्ता अख्तियार कर लिया। इंडो-यूरोपियन आर्य भारत में आने से पहले सिर्फ पुरुष देवता इन्द्र, अग्नि आदि देवताओं को ही मानते थे। परंतु भारत में आने के बाद वे यहां की देवियों को भी अपने पवित्र ग्रंथों वेदों में उपयुक्त मर्यादा के साथ स्थान देने के लिए बाध्य हुए। अर्थात देवी मां, आर्य परंपरा में समाहित हो गयीं। कुछ वैदिक सूक्तों में एक से अधिक पतियों का उल्लेख मिलता है, जो कि मातृ प्रधान समाज की परम्परा थी। महाभारत में बहुपतित्व के साक्ष्य देखे जा सकते हैं, जहां पांच पांडव भाइयों ने एक पत्नी साझा की थी। इस विवाह के बारे में बात करते हुए युधिष्ठिर ने कहा, ‘आइए हम उस तरीके का पालन करें, जो पुराना और शाश्वत माना जाता है।’

शुरुआती दौर में आर्य मुख्य रूप से दो ही देवताओं इन्द्र और अग्नि को मानते थे। इनमें भी इन्द्र ही सबसे प्रमुख देवता थे। ऋग्वेद में सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में इन्द्र और अग्नि, समाज के दो प्रमुख आर्थिक और कार्यात्मक समूहों को दर्शाते हैं। इन्द्र क्षत्रिय या योद्धा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। यज्ञ के देवता अग्नि ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाद के काल खण्ड में इन दो देवताओं के साथ रुद्र और सोम को भी देवताओं की सूची में शामिल कराया गया। इसके बाद वरुण, मित्र और विष्णु को भी शामिल किया गया। विष्णु का स्थान इन्द्र, अग्नि, रुद्र आदि देवताओं से काफी नीचे था, परंतु समय के साथ-साथ विष्णु का स्थान ऊपर होता चला गया और प्रधान देवताओं में शामिल कर लिया गया। बिल्कुल शुरुआती दौर के ऋग्वेद में सिर्फ इन्हीं पुरुष देवताओं का गुणगान देखा जा सकता है। परंतु समय के साथ-साथ अर्थात भारत के मातृप्रधान समाज के साथ संबंधित होने के साथ-साथ देवियों का जिक्र मिलना शुरू होता है। हालांकि शुरुआती दौर में गैर-आर्य देवियों को प्रमुख आर्य देवताओं की मात्र पत्नी, बहन या बेटियों का दर्ज दिया गया था। उनकी शक्तियों व स्वतंत्र अस्तित्व को खत्म कर दिया गया। उनका स्थान इन्द्र, अग्नि आदि देवताओं से काफी नीचे था। परंतु समय के साथ-साथ देवियों का स्थान उन्नत होता चला गया। ऋग्वेद में शक्ति को पूरे संसार में, हर प्राणी में बसनेवाली देवी के रूप में चित्रित किया गया। ऋग्वेद में ‘ऊषा’ के लिए 21 श्लोक लिखे गये हैं। ऊषा को दायूस (आकाश के देवता) की बेटी और सूर्य की पत्नी के रूप में देखा जाता था। इसके अलावा ऋग्वेद में ‘अदिति’ को भी पूरे संसार की जननी के रूप में बताया गया है। देवी अदिति को पृथ्वी और आकाश के सभी जीवों की जननी का दर्जा दिया गया। पृथ्वी, उमा, सरस्वती, शची आदि देवियों को भी ऋग्वेद में स्थान दिया गया। भले ही पुरुष देवताओं की तुलना में उनके यशोगान के लिए बहुत ही कम श्लोक लिखे गये थे।

परंतु ऋग्वेद काल के समाप्त होते-होते, उपनिषद काल शुरू होते-होते कुछ देवियों का स्थान धूमिल-सा हो गया। ऋग्वैदिक काल के अंत में इन्द्र की पत्नी शची का कोई वर्णन नहीं है। देवी ऊषा, जिन्हें प्रारंभिक वेदों में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया था, बाद के श्लोकों में बिल्कुल गायब-सी हो गयी। कारण बताया गया कि इन्द्र ने देवी ‘ऊषा’ को एक युद्ध में परास्त कर दिया था। ऊषा के रथ को भी इन्द्र ने तोड़ दिया था। इस युद्ध के बाद भी देवी ऊषा का जीवित रहना और बार-बार जन्म लेना इस बात का संकेत देता है कि उनके गैर-आर्य उपासक अभी भी उन्हें अपनी मां के रूप में मानते आ रहे थे।

आर्य धर्म में मुख्य रूप से आकाश में बसनेवाले पुरुष देवताओं की पूजा की जाती थी, लेकिन जब आर्य भारत में आए, तो उनकी इस मान्यता का भारत के मूल निवासी किसानों की धार्मिक मान्यताओं के साथ विलय हो गया। इस विलय से एक नयी संस्कृति उभरकर आयी।

देवियों के साथ जैसा व्यवहार हुआ, ठीक उसी के अनुरूप समाज में नारियों के साथ भी वही व्यवहार हुआ। शुरुआती ऋग्वेद में हमें कोई नारी चरित्र नहीं मिलता है। परंतु बाद के वेदों में हमें गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा आदि विदुषी महिला चरित्र देखने को मिलते हैं, जो उच्चशिक्षित थीं और शास्त्रार्थ में भाग लेती थीं। मैत्रेयी वैदिक ऋषि याज्ञवल्क्य की पत्नी थीं। याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के बीच दर्शन को लेकर जो शास्त्रार्थ (वाद-विवाद, संवाद) हुआ था, उसका जिक्र वृहदारण्यक उपनिषद में विस्तार से दिया गया है। पढ़ने से पता चलता है कि मैत्रेयी ने दर्शनशास्त्र का बहुत ही गहन अध्ययन किया था। वेद में उनका नाम बड़ी इज्जत से लिया गया है। इसी उपनिषद में गार्गी की कहानी भी है। गार्गी ऋषि वाचक्नू की पुत्री थीं।

राजा जनक ने एक बार राजसूय यज्ञ करवाया था। राजा जनक स्वयं दर्शन के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने शास्त्रार्थ व वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित की। वाद-विवाद प्रतियोगिता के विजेता के लिए एक हजार ऐसी गायों का पुरस्कार रखा गया, जिनके सींग सोने से जड़े हों। उस काल के सबसे ज्ञानी ऋषि याज्ञवल्क्य को भी आमंत्रित किया गया। वाद-विवाद शुरू हुआ और याज्ञवल्क्य एक-एक करके बड़े-बड़े दार्शनिक ऋषियों अश्वला, अर्तभागा, भूज्यू, उद्दालक आदि को परास्त कर देते हैं और फिर कहते हैं कि कोई और है, जो मुझे चुनौती दे सके। तब गार्गी उठ खड़ी होती हैं और शुरू होता याज्ञवल्क्य के साथ उनका शास्त्रार्थ। लम्बेे समय तक चले शास्त्रार्थ के बाद जब याज्ञवल्क्य को अहसास होता है कि अब वे पराजित होनेवाले हैं, तब उन्होंने गार्गी से कहा कि इसके आगे एक भी शब्द मत बोलना वरना तुम्हारा नाश हो जाएगा। इस तहर गार्गी का मुंह बंद करवा दिया गया।

गार्गी का दार्शनिक वक्तव्य छांदोग्य उपनिषद में भी पाया जाता है। गार्गी ने वेद के कई श्लोकों की रचना भी की थी। मिथिला के राजा जनक के दरबार के नवरत्नों में गार्गी को भी बड़ी इज्जत और मान के साथ शामिल किया गया था। ऐसी ही एक विदुषी महिला लोपामुद्रा का जिक्र हमें वेद में मिलता है। लोपामुद्रा ऋषि अगस्त्य की पत्नी थीं। पर उनका नाम ऋषि अगस्त्य की पत्नी के रूप में नहीं, बल्कि उनके चकित करनेवाले ज्ञान के कारण चारों दिशाओं में फैल गया था। उन्होंने भी वेद के कई श्लोकों की रचना की थी।

परंतु समय के साथ-साथ महिलाओं को वेद के ज्ञान से वंचित कर दिया गया। यज्ञ में उनके शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उनका स्थान क्रमशः निम्न होता चला गया। अर्थात आर्यों ने यहां आकर यहां के जन समुदायों की मान्यताओं को (मातृप्रधान समाज की) शुरुआती दौर में तो अपनाया, परंतु बाद में अपनी मान्यताओं को, अर्थात पितृप्रधान समाज के रीति-रिवाजों व संस्कृति को गैर-आर्य मूल निवासियों पर थोप दिया।

एक विशेष कालखंड के वैदिक साहित्य में नारी को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया था, परंतु बाद के वैदिक साहित्यों में नारी का स्थान बहुत ही निम्न कर दिया गया। शतपथ ब्राह्मण में नारी की शूद्र, श्वान (कुत्ता) और कौए जैसे अपवित्र जीवों से तुलना की गयी है। यजुर्वेद में पहली बार हमें वेश्यावृत्ति का जिक्र मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद में सत्यकाम जाबाला की कहानी है, जिसमें जाबाला एक वेश्या थी। बाद के साहित्यों में सतीत्व का महिमामंडन किया गया। पुरुषों को एक से अधिक पत्नी रखने की स्वतंत्रता दी गयी, परंतु नारी के लिए बहुपतित्व वर्जित कर दिया गया। पहले के वैदिक साहित्य में हमें ब्रह्मवादिनी नारियां दीखती थीं, जिनमें से कई आजीवन अविवाहित रहकर ज्ञान की साधना करती थीं, परंतु बाद के वैदिक साहित्यों में नारी के लिए विवाह अनिवार्य कर दिया गया।

शुरू के वैदिक साहित्यों में विधवा विवाह का उल्लेख मिलता है, परंतु बाद के साहित्यों में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। नारी समाज के कई महत्त्वपूर्ण पेशे (रंगरेज, कपड़ा धोना, सिलाई आदि) से जुड़ी हुई थी। शुरुआती वैदिक साहित्यों में इसे महिमामंडित करके दिखाया गया, परंतु बाद के ग्रंथों में, विशेषकर अथर्ववेद में इन कार्यों को नीचे दर्जे का काम कहा गया है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती चली गयी। इसके बाद आया मनु संहिता का दौर, जिसके बाद महिलाओं की स्थिति नरक जैसी बन गयी। महिलाओं को एक तरह से गुलाम बना दिया गया। हर चीज पर पाबंदी लगा दी गयी। इसके बाद ही विधवा हत्या की परम्परा चल पड़ी।

1000-1200 ईसवी के बीच तुर्कों ने मध्य एशिया के आपसी संघर्षों के बाद भारत की तरफ रुख किया। उस दौरान भी भारत में बड़े पैमाने पर महिला हत्या या सती के अनेक उदाहरणों का उल्लेख किया जा सकता है। मुस्लिम शासकों ने भी उसी विचार को अपनाया, जो नारी-विरोधी विचार अब तक चीन, बैजेनटाइन और ईरान में फैल चुका था। हालंकि मुसलमान विधवा-हत्या को एक बर्बर प्रथा मानते थे, लेकिन महिलाओं के प्रति उनका दृष्टिकोण महिला-विरोधी ही था। 1285 ई. में जब मुस्लिम सैनिकों ने जैसलमेर शहर पर धावा बोलने की तैयारी की, तो शहर के पुरुषों ने सभी महिलाओं का गला काट दिया ताकि वे मुसलमानों के हाथों में न पड़ें। हजारों महिलाओं को उन्हीं के पुरुषों द्वारा बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया। चित्तौड़ जैसे अन्य हिन्दू शहरों के पुरुषों ने इसी तरह मुसलमानों द्वारा कब्जा किये जाने से पहले अपनी पत्नियों तथा अपनी बेटियों और माताओं को मौत के घाट उतार दिया था।

हिन्दू ग्रंथों में महिला आत्मदाह की प्रथा को बहुत बढ़ावा दिया गया है तथा एक सम्मानित प्रथा के रूप में दर्शाया गया है, जिनमें कहा गया है कि एक पतिव्रता नारी जब अपने पति के साथ मरती है, तो वह स्वर्ग जाती है।

विजयनगर साम्राज्य में महिलाओं की स्थिति और भी बदतर थी। विजयनगर (1350-1550) में अभूतपूर्व तरीके से विधवा हत्या का अभ्यास किया गया था। आमतौर पर किशोर या छोटी लड़कियों से शादी करनेवाला व्यक्ति धनी बुजुर्ग होता था। इतनी छोटी लड़कियों को भी पति की मृत्यु के बाद पति के साथ जिंदा जला दिया जाता था। विधवा को नशीला पदार्थ खिलाकर उसके मृत पति की लाश के साथ आग की लपटों में फेंक दिया जाता था। बलिदान अक्सर और विशेष रूप से राजकुमारों के मामले में, अनिवार्य था। सैकड़ों महिलाओं को एक ही राजा के अंतिम संस्कार में उनकी सहमति के साथ या बिना सहमति के जलाया जा सके। विधवा को सामाजिक संरचना के लिए एक गंभीर खतरा माना जाता था, क्योंकि समाज में महिलाओं की यौन स्वतंत्रता पर पूर्ण प्रतिबंध था।

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