किराये की भीड़ के बीच नेता

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यह कार्टून साभार।


— ध्रुव शुक्ल —

क ज़माना गुज़र गया जब देश के नेताओं की आमसभाओं में हजारों लोग अपनी प्रेरणा से शामिल होते थे। मेरे दादा का सुनाया वह किस्सा आज तक नहीं भूला हूं जब हमारे सागर शहर में जवाहरलाल नेहरू आये। उन्हें डा. हरिसिंह गौर ने सागर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की आधारशिला रखने बुलाया था। दादा आंखों देखा हाल सुनाते हुए कहते कि पण्डित नेहरू की सभा कजलीवन के मैदान में हुई और पूरा शहर ही नहीं, आसपास के गांवों से पैदल चलकर करीब एकाध लाख लोग उमड़ पड़े थे। उस दिन शहर के मालियों के पास फूल कम पड़ गये।

आज हालत ऐसी नहीं है। आये दिन अख़बारों में ख़बरें छपती हैं कि प्रधानमंत्री की सभा में भीड़ जुटाने के लिए गांव-गांव तक किराये की गाड़ियां भेजी जा रही हैं। इसकी जिम्मेदारी मंत्रियों और प्रशासकों को सौंपी गयी है। सोचता हूं कि जो लोग आमसभाओं में जबरन ढोकर लाये जाते हैं उनके मन में लोकतंत्र का क्या अर्थ खुलता होगा? और जो नेता उन्हें संबोधित करते हैं क्या उन्हें मन ही मन यह नहीं लगता होगा कि वे एक नकली आमसभा में अपनी शेखी बघार रहे हैं। रंगबिरंगे दुपट्टों और टोपियों से सजाकर नेताओं के सामने प्रदर्शित भीड़ उन्हें कितनी अजनबी जान पड़ती होगी! क्या हमारे नेता अपनी इस हालत पर कभी अकेले में सोचते होंगे? क्या वे लोग भी अपने बारे में सोचते होंगे जो किराये की भीड़ बनकर आते हैं?

भोपाल के रौशनपुरा चौगड्डे की जायकेदार पान की दूकान से चौराहे पर होने वाले धरने-प्रदर्शन साफ़ दीखते हैं। इस चौराहे पर पण्डित जवाहरलाल नेहरू की प्रतिमा स्थापित है। उस प्रतिमा को देखकर लगता है कि मतान्ध कुतर्कों के भयानक शोर के बीच नेहरू किसी गहरे सोच में डूबे हुए हैं। अक्सर उस प्रतिमा के अहाते को सत्ताधारी दल की आये दिन होने वाली आमसभाओं के रंगबिरंगे पोस्टर घेरे रहते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि जैसे वे नेहरू की प्रतिमा को छिपाने के लिए वहां लगाये गये हों। लोग नेताओं के जियो हजारों साल वाली कामनाओं के पोस्टर देखते हुए चल रहे हैं। वे सड़कों के गड्ढे नहीं देख पा रहे। वे उन गड्ढों में गिरकर कोई शिकायत भी नहीं कर रहे। जैसे वे सरकार को चुनकर गहरी नींद में चल रहे हों और सरकार गहरी नींद में सोई हो। लगता है कि कोई जागना ही नहीं चाहता।

एक दिन की बात है कि मैं भी इस पान की दूकान पर खड़ा था। वहीं मेरे करीब खड़ा एक श्वेतवस्त्रधारी नेता पान खाते हुए नेहरू प्रतिमा के पास चल रहे अपने दल के धरने का संचालन कर रहा था। इस धरने में बमुश्किल पन्द्रह-बीस लोग ही थे जिनके नारों की गूंज से सरकार तो क्या उस चौराहे के पास बनी टीन की पुलिस चौकी भी नहीं हिल सकती थी। इस अल्पप्राण समूह के पास मीडिया के कैमरे आते ही वह नेता दौड़कर कैमरे के सामने खड़ा हो गया, उसने अपना मुक्का तानकर दिखाया। कैमरे पर अपनी बकबक के साथ अपनी तस्वीर रिकार्ड करवायी और फिर जल्दी ही पान की दूकान पर लौटकर तम्बाखू मलने लगा। इस तरह प्रदर्शन समाप्त हुआ।

एक हड़बड़ाई बुढ़िया उस नेता के पास आकर कहने लगी कि — हमाई आधे दिन की मजूरी जल्दी दे दो भैया। हमें दूसरी पार्टी के धरना में इकबाल मैदान जानें है। टेम पे नें पोंचे तो आधे दिन की मजूरी मारी जै है। तुम हमें जबरन धरना पे लै आये सो आज हम मजूरी करबे नईं जा पाए। हम रोटी कैसें खाहें —- उस अम्मा की बात सुनकर लगा कि राजनीतिक दल ही लोगों को उनकी असहायता से बाहर आने नहीं दे रहे। अगर वे उनके लिए राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक न्याय की चिन्ता करने लगेंगे तो फिर किराये की भीड़ कहां से लायेंगे?

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