आनंदमठ का पुनर्पाठ

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— डॉ कश्मीर उप्पल —

बंकिमचंद्र का उपन्यास आनंदमठ पुस्तकाकार प्रकाशित होने के पहले उनके भाई संजीवचंद्र चट्टोपाध्याय के संपादन में प्रकाशित पत्रिका बंगदर्शन में धारावाहिक रूप से मार्च-अप्रैल 1881 से मार्च-अप्रैल 1882 तक प्रकाशित हुआ था। इसके उपरांत आनंदमठ के प्रथम पुस्तकाकार संस्करण का प्रकाशन 1882 में कलकत्ता के जॉनसन प्रेस से हुआ था।

बंकिमचंद्र के जीवनकाल में आनंदमठ के पाँच संशोधित संस्करण प्रकाशित हुए थे। इसका पाँचवाँ संस्करण 1892 में प्रकाशित हुआ और आज तक अनेक भाषाओं में यह पाँचवाँ संस्करण ही प्रकाशित होता आ रहा है। बंकिमचंद्र आनंदमठ के सभी संस्करणों में कुछ परिवर्तन और परिमार्जन करते रहे थे। यह माना जाता है कि अँग्रेज शासन के एक बड़े अधिकारी होने के कारण उन्हें आनंदमठ के पाठ में संशोधन करने पड़े थे।

बंकिमचंद्र एक सरकारी पदाधिकारी थे इसीलिए एक डिप्टी मजिस्ट्रेट की किताब होने के कारण यह किताब जब्त नहीं हुई। यह कहा जाता है कि इसके धारावाहिक के रूप में प्रकाशन के दौरान उनकी सेवा-पुस्तिका की गुप्त रिपोर्ट खराब लिखी जाने लगी थी। इन आरोपों से बचने के लिए लिबरल नामक एक पत्रिका में एक लेख लिखकर उन्होंने स्पष्ट किया था कि यह उनका उपन्यास ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है और अँग्रेज राज के विरुद्ध नहीं है।

आनंदमठ के प्रथम संस्करण के ब्रिटिश और अँग्रेज शब्दों की जगह पाँचवें संस्करण तक मुसलमान, यवन और विधर्मी शब्दों को जोड़ दिया गया। उपन्यास का मुख्य स्वर अँग्रेजों से हटाकर मुसलमानों के विरुद्ध कर दिया गया। इतना ही नहीं, अँग्रेजों की प्रशंसा में कई नए अंश भी जोड़ दिये गये थे। बंकिमचंद्र द्वारा उपन्यास के अंतिम भाग में संन्यासियों की निर्णायक युद्ध में विजय के बाद भविष्य की रूपरेखा का वर्णन कुछ इस तरह परिवर्तित कर दिया गया – 

सत्य मुसलमानों का राज्य समाप्त हो गया है, किन्तु हिन्दू-राज्य अभी स्थापित नहीं हुआ है- अब भी कलकत्ता में अँग्रेज जमे हुए हैं।

आगन्तुक बोले, हिन्दुओं को अभी सत्ता नहीं मिलेगी- तुम रहोगे तो और भी लोगों की अकारण हत्याएँ होती रहेंगी। अतः तुम चलो।

यह सुनकर सत्यानंद मार्मिक पीड़ा से कातर हो गये। बोले, हे प्रभु! यदि हिन्दुओं का राज स्थापित नहीं होगा तो राजा कौन बनेगा? क्या फिर से मुसलमान ही राजा होंगे?”

वे बोले, नहीं अब अँग्रेज राज करेंगे।

बंकिमचंद्र के इस संशोधन और परिमार्जन के बाद ही साहित्य और राजनीति के समालोचकों ने आनंदमठ पर कई प्रश्न खड़े करने शुरू कर दिये थे।

उक्त संवाद के बाद सनातन-धर्म की लगभग बीस पंक्तियों में व्याख्या की गयी है। इसका सारतत्त्व यह निकलता है कि जब तक हिन्दु फिर से ज्ञानी, गुणी और शक्तिशाली नहीं बन जाता, तब तक अँग्रेजों की सत्ता बनी रहेगी। अँग्रेजों के राज में प्रजा सुखी होगी – निर्विघ्न होकर अपने धर्म का पालन कर सकेगी। अतएव हे बुद्धिमान, अँग्रेजों के साथ युद्ध न करके अब तुम मेरे साथ चलो। आनंदमठ के लेखक की इस व्याख्या का और अधिक स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं रह जाती है।

लेकिन देश के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में क्या उस देश के साहित्यकारों के एकदम चुप्पी लगा देने से बेहतर बंकिमचंद्र के मार्ग का अनुगमन ही एक सुगम-पथ खुला नहीं रखना चाहिए?

बंकिमचंद्र विजय के उन्माद में उत्पन्न धार्मिक-सामाजिक खतरों को भी चिह्नित करते हैं। विजय का उन्माद सिर्फ प्रेरणा ही नहीं देता है वरन् समाज को और अधिक खतरनाक मार्ग की तरफ भी धकेल देता है। जिस अन्याय के विरुद्ध संघर्ष हुआ और विजय हुई थी, जीत के बाद राष्ट्रभक्ति का वही आदर्श संकुचित क्यों बन जाता है? जगदीश्वर की कृपा से सनातन धर्म की विजय होती है। इसके बाद सब के सब (संतान सेना) लूट-पाट के लिए जा चुके हैं। अब गाँव सभी सुरक्षित हैं। मुसलमानों के गाँव और रेशम की कोठी लूटने के बाद सब अपने घर लौटेंगे।

युद्ध में विजय के बाद सत्यानंद कहते हैं प्रजाओं से कर वसूल करो तथा नगर पर अधिकार करने के लिए सेना-संग्रह करो। हिन्दू-राज्य स्थापित हुआ है। आनंदमठ के अंतिम चतुर्थ खंड का पहला भाग ही वीभत्स उन्मादी रंग में रँगा हुआ है। संतान लोग अलग अलग समूह बनाकर गाँवों में घूम रहे हैं।

कोई पथिकों तथा गृहस्थों को पकड़कर कहता- वंदे मातरम् कहो, नहीं तो मार डालूँगा। ….कुछ लोग कह रहे थे- हम ब्रज के गोप हैं, हमारी गोपियाँ कहाँ हैं?……गाँव के लोग किसी मुसलमान को देखते तो मारने दौड़ते। कुछ लोगों ने एकजुट होकर मुसलमानों की बस्तियों को लूटना और उनमें आगजनी करना शुरू कर दिया था। बहुतेरे यवन मारे गये, अनेक मुसलमानों के घबराकर दाढ़ी मुँड़ा ली और शरीर पर मिट्टी थोपकर हरि-हरि बोलने लगे। पूछने पर वे कहते- हम हिन्दु हैं।

सन् 1982-83 में आनंदमठ के प्रकाशन की शतवार्षिकी मनाई गयी थी तब इस संकुचित राष्ट्रवाद का स्वर पुनः उभरा था। शतवार्षिकी के अवसर पर नामवर सिंह और बांग्ला के सुप्रतिष्ठित आलोचक कार्तिकचंद्र दत्त के दो महत्त्वपूर्ण आलेख राजकमल पेपरबैक्स के प्रथम संस्करण 1990 में संकलित हैं। राजकमल ने इस उपन्यास को बिना किसी काट-छाँट के मूल रूप में प्रकाशित किया था। इसमें आनंदमठ को लेकर उठे विवाद से संबद्ध सामग्री भी उनके दो आलेखों के रूप में दी गयी थी।

नामवर सिंह अपने आलेख में कहते हैं कि आनंदमठ की मूलकथा 1771 के संन्यासी विद्रोह पर आधारित है किन्तु उसमें प्रसंगवश नवाबी शासन की चर्चा आ गयी है। क्षोभ के कुछ छींटे सामान्य मुसलमानों पर पड़ गए हैं। वे आगे लिखते हैं कि इतिहास की बड़ी विडंबना है कि जो आनंदमठ एक युग तक देशभक्ति का बीजमंत्र था, वह अंततः सांप्रदायिकता के दलदल में फँस गया। वे आगे लिखते हैं, यह स्वीकार किया जा रहा है कि किसी कृति का एकमात्र अर्थ वही नहीं है जो लेखक का अभिप्रेत रहा है, बल्कि बाद के पाठकों द्वारा गृहीत अर्थ भी उसका अभिन्न अंग है।

इस उपन्यास में सांप्रदायिक विचारों को लेकर साहित्यकार, इतिहासकार और राजनीतिक समालोचक सभी ने कुछ न कुछ कहा है। इस परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि आनंदमठ का पुनर्मूल्यांकन नए संदर्भ में पुनः हो। इस संदर्भ में विश्व के महान इतिहासकारों, साहित्यकारों और राजनीतिक विचारकों के द्वारा स्थापित मूल्यों तथा आग्रहों का स्मरण उचित होगा। प्रजातांत्रिक देश में समय-समय पर नयी सत्ता अपनी नयी विचारधारा के साथ स्थापित होती है। इसका मूल्यांकन करने के लिए पुनर्पाठ की संभावना बनी रहनी चाहिए।

विश्व के महान साहित्यकार ई.एच.कार की किताब है इतिहास अतीत के साथ वर्तमान के संवाद का दूसरा नाम है। नयी दुनिया में नए-नए फलसफे आते हैं, इनसे नए नजरिए विकसित होते हैं परंतु हमें इतिहास से संवाद करते रहना चाहिए। ई.एच. कार के इस कथन के समर्थन में भारतीय इतिहासकार के.एन. पणिक्कर कहते हैं : इतिहास सतत चलने वाली प्रक्रिया है। इसमें इतिहासकार नए-नए दृष्टिकोणों से परिचित होता है। इसके पहले के अनजान तथ्यों के आधार पर नए ढंग से विश्लेषण करने की कोशिश करता है। इस नए ढंग की कोशिश में इतिहास के वे रंग प्रकट होते हैं जो अभी तक अनदेखे रहे थे।

आनंदमठ की विषयवस्तु और कथानक से यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर के प्रति अपने भक्तिभाव को तर्क-वितर्क से ऊपर समझने वाले लोग जब अपने राजनीतिक-सामाजिक विचारों को भी तर्क-वितर्क से ऊपर समझने लग जाते हैं तब देश और समाज में गहन संशय और अधिक गहराने लगता है। इस तरह की अंधभक्ति से एक धारा ऐसी भी फूटती है जो अपने आपको देश की मुख्यधारा समझने लगती है। विश्व के कई देशों का इतिहास गवाह है कि संशय की यह धारा कैसे रक्तरंजित धारा में परिवर्तित हो जाती है। यह बात अलका सरावगी के नवीनतम उपन्यास (प्रकाशन वर्ष 2023) गांधी और सरलादेवी चौधरानी : बारह अध्याय से और अधिक पुष्ट होती है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की बहन स्वर्णकुमारी देवी बांग्ला की पहली महिला उपन्यासकार थीं और उनकी बेटी सरलादेवी का नाम भी साहित्य, संगीत और समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय था। बंकिमचंद्र स्वर्णकुमारी के घर अक्सर आते-जाते थे जहाँ कभी-कभी रवीन्द्रनाथ टैगोर से भी उनकी मुलाकात हो जाती है। सरला ने देखा है कि बंकिम बाबू से बहस छिड़ने पर रवि मामा अपनी बात दमखम के साथ रखते हैं। सरलादेवी भी बंकिम बाबू से यह जानना चाहती हैं कि अँगरेजों के राज में डिप्टी मजिस्ट्रेट रहते हुए उन्होंने कैसे अँगरेजों के खिलाफ साहित्य रचा? ” सरला जब बैथून कॉलेज में पढ़ रही थी तब उसे किसी ने बताया था कि आनंदमठ के बाद के संस्करणों में बंकिम बाबू ने अँगरेज शब्द बदलकर विधर्मी या यवन शब्द रख दिया है। क्या इसका मतलब कि वे अँगरेजों से डर गए थे।

बंकिम बाबू को एक दिन पता चलता है कि सरला ने कॉलेज में मैकाले का जोरदार खंडन किया है कि बंगाली शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, यह सुनकर बंकिम बाबू की आँखों में चमक आ जाती है। बंकिम बाबू ने कहा, हम कमजोर नहीं हैं, मैकाले जैसे अँगरेजों ने हमारा आत्मविश्वास खत्म करने के लिए ही हमारे मन में बंगाली बाबू या क्लर्क की छवि बिठा दी है।रामकृष्ण परमहंस ने बंकिम बाबू से पूछा, आप बंकिम यानी टेढ़े कैसे हो गए? जवाब में बंकिम बाबू ने कहा, अँगरेजी जूते खाते-खाते टेढ़ा हो गया। सरला देवी ने स्वयं कलकत्ता में व्यायामशाला खोली और इसके बाद कलकत्ता के मुहल्ले-मुहल्ले में यह खुलती गयी। इसी तरह की व्यायामशाला के सदस्य खुदीराम बोस को फाँसी की सजा हुई और अरविन्द घोष को जेल जाना पड़ा था।

यहाँ रामचंद्र शुक्ल का प्रसिद्ध वाक्य याद आता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। आनंदमठ के प्रकाशन के बाद बांग्ला मानस में जो परिवर्तन आए उनको लेकर कार्ल मार्क्स का यह वाक्य अधिक उचित लगता है अभी तक दार्शनिकों ने विश्व की सिर्फ व्याख्याएँ की हैं, सवाल तो इसे बदलने का है।

इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने निबंधों में बंकिम बाबू को याद करते हैं। नामवर सिंह के अनुसार रवीन्द्रनाथ और शरच्चंद्र जैसे बंकिमचंद्र के प्रशंसकों ने भी यह स्वीकार किया है कि अपनी साहित्यिक रचनाशीलता के परवर्ती काल में बंकिमचंद्र प्रचारक बन गए थे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने निबंध ऐतिहासिक उपन्यास में कहते हैं कि ऐतिहासिक उपन्यास इतिहास के विशेष सत्य और साहित्य के नित्य सत्य इन दोनों की रक्षा करते हुए लिखा जाना चाहिए। ऐसा नहीं होता है तो इतिहास का व्यतिक्रम करने के अपराध में ऐतिहासिक उपन्यास के विरुद्ध जो शिकायत खड़ी हुई है, उसके कारण वर्तमान काल में साहित्यिक परिवार का यह गृहविच्छेद होता है।

यह शिकायत केवल हमारे देश में नहीं, केवल नवीन बाबू और बंकिम बाबू अपराधी नहीं, ऐतिहासिक उपन्यास लेखकों में आदि एवं आदर्श स्कॉट को भी निष्कृति नहीं मिली। ऐतिहासिक उपन्यासों में सत्य और असत्य विश्लेषण में स्कॉट के द एज ऑफ क्रूसेड यूरोप से धर्मयात्रा-युग पर लिखे उपन्यासों पर कई विवाद उठे थे। इन उपन्यासों में भी सत्य से अधिक आग्रह समाज का उत्थान रहा है। इस हेतु अखंड इतिहास के उद्धार में लगे लेखक को कई तरह के मसालों को मिलाना होता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर इस बात को स्पष्ट करते हैं कि नवीन बाबू और बंकिम बाबू अपने काव्यरस में इतना आगे आ गए हैं या नहीं, जिससे कथारस नष्ट हुआ है, यह बात उनके ग्रंथों की विशेष समालोचना करने पर ही कही जा सकती है। अपने इस निबंध के अंतिम कुछ वाक्यों में टैगोर कहते हैं, काव्य में यदि गलती पाऊँ तो इतिहास में उसका संशोधन कर लूँगा। किन्तु जिस व्यक्ति को इतिहास पढ़ने का सुअवसर नहीं मिलेगा, वह काव्य पढ़ेगा और वह अभागा है। लेकिन जिस व्यक्ति को काव्य पढ़ने का अवसर नहीं मिलेगा, वह इतिहास पढ़ेगा और संभवतः वह अधिक दुर्भाग्यशाली है। हम सभी अपने अनुभवों से जानते हैं कि केवल काव्य और साहित्य पढ़ने वाले अधिकांश पाठक कथा को ही वास्तविक इतिहास मानते और समझते हैं। यहीं से सामाजिक दुविधा के प्रश्न उगने शुरू हो जाते हैं।

हमारे देश की आजादी के छह वर्ष बाद जवाहरलाल नेहरू को देश के तत्कालीन माहौल के बीच मुख्यमंत्रियों को समझाइश का एक विस्तृत पत्र लिखने को बाध्य होना पड़ा था। वे यूरोप की मिसालें देते हुए लिखते हैं- बहुत-से लोगों को यह मुगालता होता है कि वे खास हैं और दूसरों से बेहतर हैं। जब ऐसे लोग मजबूत और ताकतवर हो जाते हैं, तो खुद क और अपने तौर-तरीकों को दूसरों पर थोपने लगते हैं। ऐसा करने में वह अपनी शक्तियों का अतिक्रमण कर जाते हैं। नेहरू जी का इशारा निश्चित रूप से जर्मनी और इटली के घटनाक्रम की ओर ही था। हमारे देश का यह दशक आजादी के 75 वर्ष पूर्ण होने पर अमृत महोत्सव मनाने को उत्सुक है। क्या ही अच्छा हो कि आजादी का अमृत महोत्सव आनंदमठ के पुनरावलोकन के प्रकाश में भी हो। इसके पुनर्पाठ की रोशनी से हमारे प्रजातंत्र का मार्ग ही प्रशस्त होगा।

1 COMMENT

  1. कश्मीर उप्पल ने आनंद मठ के पांचवें और सर्वत्र प्रचलित संस्करण के कुछ पक्षों का आवश्यक पुनरवलोकन किया है। हमारे इस समय में वह पाठ भयानक भ्रांतियां पैदा कर रहा है। कट्टरपंथ के हिंदू उसे मुसलमानों पर प्रहार के रूप में देखते-दिखाते हैं। कट्टरपंथ के मुसलमान उसी बात को सच मान लेते हैं।
    मूल रूप से अंग्रेज के विरुद्ध लिखा गया कथानक , अंग्रेज सरकार के कोप से बचने के लिए मुसलमान के खिलाफ मोड़ दिया गया। बेहतर होता कि बंकिम बाबू उसे संशोधित करने की बजाय ,वापस ही ले लेते। अंग्रेज के एवज में मुसलमान को रख ने से ही कई भ्रांतियां पैदा हुई हैं।संन्यासी विद्रोह, और फिर 1857 का विद्रोह–क्या ये एक दूसरे के रूपक हैं?1857 में तो मुसलमान बादशाह को सिरमौर मानकर ,हिंदू- मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज से लड़े थे। क्या रूपक के साथ छेड़छाड़ हुई, या इतिहास के साथ, या कि भारत के स्वातंत्र्य संग्राम की मूल संकल्पना और उस के क्रियान्वयन के साथ?
    सारा भ्रम दूर हो सकता है। खोज कर उसके मूल, प्रथम संस्करण का पुनः प्रामाणिक अनुवाद छपना चाहिए। बांग्ला में सौ बरसों में जो जिरह हुई होगी, उसका कुछ प्रमाण कार्तिक चंद्र दत्त के उस आलेख में जरूर होगा जिसका हवाला कश्मीर जी ने दिया है। का चं दत्त अब 93 बरस के हो रहे हैं। साहित्य अकादेमी के पुस्तकालय अध्यक्ष रह चुके ये विद्वान आज भी सक्रिय तो हैं, पर उन की बजाय किसी युवतर अध्येता को यह खोजबीन करनी चाहिए। साहित्य, समाज, देश और समय –सभी पर ऐसा शोध और पुनरन्वेषण पुनर्पाठ बड़ा एहसान होगा!
    वैसे मुझे याद है कि काव्यानुवाद की एक बड़ी कार्यशाला में, एक कवि ने वंदे मातरम् की चर्चा होने पर जब आपत्ति की थी, तब मैं ने यही निवेदन किया था कि अंग्रेज हुकूमत से बचाव के लिए ही उपन्यास में दुश्मन अंग्रेज पर मुखौटा मुसलमान का चढ़ाया गया है। यह मेरा अपना पाठ था, मैंने पहला संस्करण अब तक देखा नहीं है।
    इतिहास के बहुत सारे घाव हैं। उन पर मलहम चाहिए। सत्य संधान ही सच्चा मलहम है।

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