— आदित्य मुखर्जी और मृदुला मुखर्जी —
हाल में एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से कुछ अंश हटाए जाने की बाबत संस्था के निदेशक ने यह स्पष्टीकरण दिया कि पाठ्यक्रम को तर्कसंगत बनाने के क्रम में ऐसा किया गया; पढ़ाई में कोरोना-जनित व्यवधान के कारण बच्चों पर पाठ्यक्रम का बोझ कम करना जरूरी हो गया था। इस दलील का हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है।
इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों से हटाए गए अंशों, इस संदर्भ में सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्यों के बयानों और हिंदू सांप्रदायिकों द्वारा इतिहास को विकृत करने के प्रयासों के लंबे इतिहास, इन सबका विश्लेषण करें तो एनसीईआरटी-निदेशक के स्पष्टीकरण का खोखलापन एकदम जाहिर हो जाता है। सांप्रदायिक तत्त्व जो दुरंगापन दिखलाते रहे हैं उपर्युक्त स्पष्टीकरण उससे अलग नहीं है। वे कभी भी अपने कृत्यों की जवाबदेही नहीं लेते। इसके विपरीत, भगतसिंह, गांधी और तिलक और अन्य अनगिनत लोगों ने बड़ी बहादुरी से अपने कार्यों की जवाबदेही स्वीकार की, और जेल, निर्वासन व मृत्युदंड समेत सब तरह के परिणाम भुगते। हमें बताया जा रहा है कि गांधी की हत्या के लिए कोई संगठन जवाबदेह नहीं था (जवाबदेही रेखांकित करने वाले पैरा एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक से हटा दिए गए हैं), बाबरी मस्जिद के विध्वंस को, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ‘आपराधिक कृत्य’ कहा, किसी ने अंजाम नहीं दिया, गुजरात के जनसंहार के लिए कोई जिम्मेवार नहीं है (इससे संबंधित सभी अंश हटा दिए गए हैं)।
इतिहास के विकृतिकरण का ऐतिहासिक विहंगावलोकन
आरएसएस ने शुरू में ही यह समझ लिया था कि सांप्रदायिक परियोजना में सांप्रदायिक विचारधारा उसका मूलाधार है। सांप्रदायिक विचारधारा की आधारशिला की निर्मिति इतिहास के एक विशिष्ट पाठ से होती है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगाया गया प्रतिबंध, यह वचन देने के बाद हटा लिया गया था कि अब से वे सिर्फ एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में काम करेंगे, जो राजनीति से दूर रहेगा। फिर वे सांप्रदायिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार में जी-जान से जुट गए। 1950 के दशक से ही आरएसएस ने अपने स्कूलों (प्रथम सरस्वती शिशु मंदिर का उद्घाटन संघ के तत्कालीन सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने किया था) और अपनी बनायी पाठ्यपुस्तकों से इतिहास के एक विकृत, अमूमन काल्पनिक संस्करण को बढ़ावा देने की कोशिश की। इतिहास के इस संस्करण में अन्य धर्मावलंबियों को दुष्ट के रूप में चित्रित किया जाता है।
मसलन, आरएसएस की एक स्कूली किताब, नौ साल के मासूम बच्चों को चौथी कक्षा में इस्लाम के बारे में बताती है –
“जहाँ कहीं भी वे गए, उनके हाथ में तलवार थी…जो भी देश उनके रास्ते में आड़े आया नष्ट कर दिया गया। उपासना स्थल और विश्वविद्यालय नष्ट कर दिए गए। पुस्तकालय जला दिए गए। धार्मिक पुस्तकें नष्ट कर दी गयीं। माँ-बहनों को बेइज्जत किया गया। दया और न्याय तो वे जानते ही नहीं थे।”
“दिल्ली का कुतुब मीनार… वास्तव में सम्राट समुद्रगुप्त ने बनवाया था। इसका वास्तविक नाम विष्णु स्तंभ था… सुलतान (कुतुबुद्दीन ऐबक) को वास्तव में इसके कुछ हिस्से प्राप्त हुए थे जिन्हें ध्वंस कर उसने नाम बदल दिया।”
कुछ इसी तरह की भर्त्सना भरी बातें ईसाई, पारसी आदि के बारे में भी कही गयी हैं, जो मुसलमानों की तरह विदेशी के रूप में परिभाषित किए गए हैं और पूर्ण नागरिकता के पात्र नहीं हैं;सावरकर की बतायी हुई परिभाषा का इस्तेमाल करते हुए बताया जाता है कि भारतीय होने का दावा केवल वही लोग कर सकते हैं जिनकी ‘पितृभूमि’ और ‘पुण्यभूमि’ भारत में है। (यह एक बेतुकी परिभाषा है- अगर इसे यूरोप, अमरीका और कोरिया के सभी ईसाइयों या जापान के बौद्धों पर लागू करें, तो यह परिभाषा उनके अपने ही देश में उन्हें विदेशी ठहरा देती है, क्योंकि उनकी पुण्यभूमि उस देश में नहीं है जहाँ वे रहते हैं!)
इतिहास को विकृत करने के लिए सत्ता का इस्तेमाल (1977-79)
आरएसएस के स्कूलों में इस तरह के इतिहास को प्रचारित करना और उस प्रचार को बरसों-बरस हजारों लोगों द्वारा कई गुना फैला देना अपने आप में काफी बुरा था, लेकिन इससे भी खतरनाक बात जो हुई वह यह कि जब आरएसएस की पहुँच सत्ता में हो गयी तो उसने सरकारी स्कूलों में और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या में उसी तरह का इतिहास थोपने के लिए सत्ता का इस्तेमाल करने की कोशिश की तथा सेकुलर, वैज्ञानिक इतिहास पर धावा बोल दिया।
पहला बड़ा हमला हुआ 1977-79 के दौरान, जब जनता पार्टी की सरकार थी। आरएसएस की राजनीतिक/चुनावी शाखा जनसंघ का भी विलय जनता पार्टी में हुआ था। उस समय, दुनिया भर में प्रतिष्ठित हमारे शीर्षस्थ विद्वानों जैसे रोमिला थापर, बिपन चंद्रा, सतीश चंद्रा, आरएस शर्मा और अर्जुन देव आदि के द्वारा लिखी गयी एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने की माँग उठायी गयी थी। लेकिन तब देश में संस्थानों की स्वायत्तता बची हुई थी, और प्रतिबंध लगाने की माँग का पुरजोर विरोध हुआ था, न केवल देश भर के विश्वविद्यालयों और मीडिया की ओर से बल्कि खुद एनसीईआरटी के भीतर से भी। लिहाजा, उन पाठ्यपुस्तकों का वजूद बना रहा।
1999-2004
हमले का दूसरा दौर तब शुरू हुआ जब 1999 में राजग केन्द्र की सत्ता में आया। सत्ता की बागडोर भारतीय जनता पार्टी (जो पहले जनसंघ थी) के हाथ में थी। पहले के अनुभवों से सबक लेते हुए, उन्होंने पाठ्यक्रम समितियों से महत्त्वपूर्ण लोगों को हटा दिया और वैज्ञानिक दृष्टि के सेकुलर इतिहासकारों पर औपचारिक रूप से हमला बोलने से पहले एनसीईआरटी, यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग), आईसीएसएसआर (भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद) और आईसीएचआर (भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद) के सर्वोच्च प्रशासनिक पदों पर अपने दरबारी लोग बिठा दिए।
आरएस शर्मा, रोमिला थापर, बिपन चंद्रा, सतीश चंद्रा आदि के द्वारा लिखी गयी एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से कुछ पैरा हटाने की माँग की गयी- धार्मिक और सामुदायिक भावनाएँ आहत होने की बिना पर। गौरतलब है कि जो 41 पैराग्राफ हटाने की माँग की जा रही थी वे पहले ही आरएसएस की तरफ से प्रकाशित एक किताब ‘द एनिमीज ऑफ इंडियानाइजेशन : चिल्ड्रेन ऑफ मार्क्स, मैकाले एंड मदरसा’ में चिह्नित किए गए थे। उस किताब में एनसीईआरटी के तत्कालीन निदेशक जेएस राजपूत का भी एक लेख था। सेकुलर विद्वानों और जिन्होंने उनका बचाव किया (जिनमें देश के इतिहासकारों का प्रतिनिधित्व करनेवाली सबसे मान्य संस्था भारतीय इतिहास कांग्रेस भी शामिल थी, इसके अलावा नोबेल-विभूषित अमर्त्य सेन, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन, प्रमुख अखबारों के संपादक आदि शामिल थे) उन सब को ‘राष्ट्र-विरोधी’ कहा गया। आरएसएस के मुखिया केएस सुदर्शन ने उन्हें ‘हिन्दू विरोधी यूरोपीय-भारतीय’ करार दिया।
जो इतिहास के हिन्दुत्व या हिन्दू सांप्रदायिक संस्करण से इत्तिफाक नहीं रखते थे उन्हें डराने-धमकाने की खतरनाक प्रवृत्ति तब और भी स्पष्ट रूप से जाहिर हो गयी जब भारतीय राष्ट्रीयता के स्वयंभू रक्षकों का एक समूह शिक्षामंत्री मुरली मनोहर जोशी के आवास पर इकट्ठा हुआ और रोमिला थापर, आरएस शर्मा तथा अर्जुन देव जैसे इतिहासकारों को गिरफ्तार करने की माँग की। मंत्री महोदय ने इन इतिहासकारों द्वारा लिखे गए इतिहास को ‘बौद्धिक आतंकवाद’ करार देकर, उसे सीमापार के आतंकवाद से अधिक खतरनाक बताकर तथा उससे कड़ाई से निपटने की जरूरत बताकर, इस फासिस्ट प्रवृत्ति को और बल प्रदान किया।
आखिरकार, जो संघ परिवार की निगाह में ‘बौद्धिक आतंकी’ थे उनके द्वारा लिखी गयी पाठ्यपुस्तकें हटा ली गयीं और उनकी जगह नयी पाठ्यपुस्तकें लायी गयीं। ये किताबें गुणवत्ता के लिहाज से काफी खराब थीं और इनके जरिए हमारे बच्चों के मन-मस्तिष्क में सांप्रदायिक पूर्वग्रह भरे जा रहे थे। इसके मद्देनजर, भारतीय इतिहास कांग्रेस को बाध्य होकर 2003 में पुस्तकाकार एक रिपोर्ट प्रकाशित करनी पड़ी- ‘हिस्टरी इन द न्यू टेक्स्टबुक्स : ए रिपोर्ट एंड एन इंडेक्स ऑफ एरर्स’। रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि “त्रुटियाँ अक्सर अज्ञान की उपज होती हैं, लेकिन उनके पीछे कई बार अंध-राष्ट्रवादी तथा सांप्रदायिक नजरिये से इतिहास को प्रस्तुत करने की बेचैनी भी वजह होती है। ये पाठ्यपुस्तकें उस तरह के प्रचार से भरी हुई हैं जिसे कुछ समय से संघ परिवार के प्रकाशन जोर-शोर से प्रस्तुत करते रहे हैं।”
2004 से, जब हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों के हाथ से केंद्र की सत्ता चली गयी, अगले एक दशक तक सांप्रदायिक हमलों से कुछ राहत रही। वे पुस्तकें वापस ले ली गयीं और उनकी जगह विद्वानों की टीम के द्वारा नयी किताबें तैयार की गयीं। इस टीम में देश भर से विद्वान सम्मिलित थे। उन्हें उनकी विद्वत्ता के आधार पर चुना गया था, न कि सियासी पहुँच या खुशामद के आधार पर। यह एक स्वागत-योग्य कदम था, लेकिन सेकुलर शक्तियाँ इस अवसर का पूरी तरह उपयोग करने में नाकाम रहीं। चुनौती यह थी कि आरएसएस के स्कूलों या धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों में इतिहास की जैसी सांप्रदायिक, विद्वेषपूर्ण व्याख्या पेश की जा रही है और इस तरह समाज में जो सांप्रदायिकता फैलायी जा रही है उसका युद्ध स्तर पर मुकाबला किया जाता।
(बाकी हिस्सा कल)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन