— अरविन्द मोहन —
बागी महिलाओं का हमारा आधुनिक इतिहास रमाबाई, सावित्रीबाई फुले और रुकमा देवी से शुरू होता है तो गांधी के आंदोलन की पहली महिला बागी अनसूयाबेन साराभाई थीं। बल्कि गांधी का असर आने के पहले उनकी बगावत शुरू हो गयी थी लेकिन गांधी के साथ उसने एक दिशा पकड़ी। उनकी बगावत में उनके परिवार का भी साथ था लेकिन गांधी ही उनके असली उस्ताद थे। और एक बार नहीं, कई बार यह खुफिया रिपोर्ट आती रही और लोगों में यह चर्चा होती रही कि वे घर से भागकर गांधी के साथ आनेवाली हैं, पर बड़े ऊँचे संस्कारों वाली इस महिला ने सामान्य मर्यादा के खिलाफ कुछ नहीं किया। उलटे उन्होंने मजदूर आंदोलन किया और भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन की माँ कहलायीं तो मजदूर आंदोलन के स्थापित नियमों और मर्यादाओं का विस्तार किया।
वे मजदूरों को अपना फौजी और सैनिक मानने की जगह संतान मानकर जीवन भर उनके हकों के लिए लड़ती रहीं और उन्होंने सिर्फ वेतन और बोनस की लड़ाई की जगह मजदूर, उनके परिवार, उनके बच्चों, उनकी फैक्टरी की स्थितियों और उनके शहर की बड़ी चिंताओं का भी खयाल रखा और ऐसी सिविल सोसायटी संस्थाओं का गठन किया जो बिगड़ते-बिगड़ते भी सौ साल बाद आज तक हमारे काम आ रही हैं। काफी सारे श्रम कानून उनकी पहल पर बने जिनका आज भले मोल न लगे पर उन कानूनों ने हिन्दुस्तानी मजदूरों के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
अनसूयाबेन अहमदाबाद के सबसे बड़े उद्योगपति परिवारों में से एक में पैदा हुईं। पिता और माँ ज्यादा दिन जीवित न रहे और उनके बारह वर्ष की होने के पहले वे दोनों गुजर गये। पर संयुक्त परिवार में चाचा-चाची ने वह कमी महसूस न होने दी। घर पर ही पढ़ाई की शुरुआत हुई। और स्कूल जाने पर भी ज्यादा पढ़ने पर रोक-सी लग गयी क्योंकि उनके होने वाले पति महाराज बार-बार फेल हो रहे थे। लड़की ज्यादा पढ़ जाए यह भी तब के जमाने में आफत की चीज थी। बारह साल की उम्र में ही शादी हुई पर ससुराल और पति से कभी न बनी। सास-ससुर के सताने और गाली-गलौज की शिकायत लेकर वे बार-बार घर लौटती रहीं। और परिवार का धन्यवाद कि उसने इस लड़की का साथ दिया और अनसूया बेन ने अपने पति से यह कहते हुए मुक्ति ले ली कि तुमको जो करना हो करो, मेरी तरफ से तुम आजाद हो। फिर वह ससुराल न गयीं। उन्होंने धार्मिक किताबों का सहारा लिया और कभी जैन साध्वी बनने का मन हुआ तो कभी विवेकानंद उनके लिए प्रेरणा बने।
पर असली बदलाव आया डॉ. इरुलकर के संपर्क में आने से, जिन्होंने डॉक्टरी को मानव सेवा का असली काम बताया। परिवार ने उनके डॉक्टर बनने की इच्छा का सम्मान किया और अकेल लड़की को इंग्लैंड भेजने में संकोच न किया। यह बात 1911 की है और तब तक वे 26 साल की हो चुकी थीं। पर जैसे ही एक मृत बछड़े को चीरने की बारी आयी उनकी डॉक्टरी की पढ़ाई रह गयी। फिर उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से सोशल वर्क की पढ़ाई की। यहीं उन पर फेबियन सोशलिज्म का असर हुआ। उनपर महिलावादी आंदोलन का भी प्रभाव पड़ा। और भारत लौटते ही उन्होंने मजदूरों और उनके परिवारों के बीच काम करना शुरू किया। 1916 में आमरापुरा बस्ती में मजदूरों के बच्चों के लिए एक स्कूल शुरू किया गया। फिर मजदूरों को सूदखोरों से बचाने के लिए सहकारी समिति बनाना, आयुर्वेदिक अस्पताल, वयस्क शिक्षा के लिए रात्रि पाठशाला, भजन मंडली, शराबखोरी रोकने वाली टुकड़ियाँ और प्राथमिक स्कूल खोले गये।
तब तक गांधी का घर में आना-जाना शुरू हो चुका था और भाई अंबालाल ने कारोबार ही नहीं सँभाला था कैलिको मिल्स में नयी मशीनें लगाकर कमाई और क्वालिटी के उत्पादन का रिकार्ड भी बनाया था और अहमदाबाद मिल मालिक संघ के अध्यक्ष भी बन गये थे।
तभी आए प्लेग ने नया संकट खड़ा किया। बाहर से आए मजदूर अपने गाँव भाग गये और काम का हर्जा होने लगा। मिल मालिकों ने उनके लौटने पर मजदूरी बारह आना अर्थात 75 फीसदी बढ़ाने का लालच दिया। यह वृद्धि सिर्फ बाहर के मजदूरों के लिए थी, शहर वाले मजदूरों के लिए नहीं। अनसूया बेन ने इस सवाल को उठाया। यह भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन की शुरुआत थी जिसमें नोटिस देकर 48 घंटे की हड़ताल हुई। भाई-बहन एक ही साथ रहे लेकिन हड़ताल में दोनों का पक्ष अलग रहा। और हड़ताल जबरदस्त सफल रही।
1918 में बुनाई मजदूर भी मजदूरी बढ़ाने की माँग लेकर आए। और अनसूया बेन को लगा कि गांधी के बगैर सँभालना मुश्किल होगा। तब गांधी चंपारण सत्याग्रह में लगे थे। लेकिन वे भागे-भागे आए। फिर हड़ताल, गांधी का पहला अनशन और समझौता हुआ। मजदूर तो आंदोलन करना ही चाहते थे, मिल-मालिक भी कोई यूनियन चाहते थे जिससे सीधी बात होती रहे। इसी जरूरत के लिए 1920 में टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन का गठन हुआ। इसी की देखरेख में 1923 का बड़ा आंदोलन चला। उसके बाद यूनियन के नियम से लेकर समझौते के नियम और मजदूरों के अधिकार से लेकर कर्तव्य तक के बहुत साफ-सुथरे नियम बने। गांधी की देखरेख रही लेकिन शंकरलाल बैंकर, गुलजारीलाल नंदा, खांडुभाई जैसे सहयोगी भी इसी में मिले जिनका जीवन भर सहयोग मिला।
अनसूया बेन का मजदूर आंदोलन एक अलग और निश्चित वैचारिक सोच से चला जिसमें मजदूरों की तात्कालिक समस्याएँ निपटाना और मालिकों से ज्यादा से ज्यादा पैसे हासिल करना भर लक्ष्य न था। मजदूरों का सर्वांगीण विकास और देश-समाज के कामकाज में जिम्मेदारी से भागीदारी भी लक्ष्य था। सांप्रदायिक दंगों के अध्येता आशुतोष वार्ष्णेय ने अहमदाबाद के विस्तृत अध्ययन के आधार पर बताया है कि गांधी और अनसूया बेन द्वारा स्थापित संस्थाओं ने किस तरह सांप्रदायिक दंगा रोकने, विभाजन के प्रभाव को कम से कम करने और प्राकृतिक आपदाओं के समय भी समाज के काम आने का जबरदस्त काम किया। यही नहीं, मजदूरों और उनके परिवार के सदस्यों के जीवन में भारी बदलाव आया। अनसूया बेन संस्थाओं के साथ श्रम कानून बनाने वाले की भूमिका में भी रहीं। उनके सुझाव पर पहले कांग्रेस और बाद में सरकारों ने श्रम कानून में बदलाव किया या उसकी माँग उठायी। वे देश के पहले मजदूर संगठन इंटक को बनाने में भी प्रमुख भूमिका में थीं।
अनसूया बेन महिला स्वतंत्रता की पक्षधर थीं। अपना जीवन तो उन्होंने मनचाहे ढंग से जिया ही (हालांकि इस पर गांधी का असर जबरदस्त था) वे महिलाओं की अधिकारिता की पक्षधर भी थीं। उस जमाने में भी उन्होंने कभी पल्लू सिर पर न लिया। हर जगह आना जाना, रात दिन काम करना, महल से लेकर झोंपड़ी तक में समान भाव से रह लेना उनके लिए एक समान था। वे अपनी भतीजी मृदुल समेत न जाने कितनी महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं। वे काफी पढ़ी-लिखी थीं और बाद में उनका झुकाव फिर से धर्म की ओर होने लगा। बाद के दिनों में वे रामकृष्ण मिशन के कामकाज में भी दिलचस्पी लेती थीं। 1972 में उनका स्वर्गवास हुआ।