प्रधानमंत्री को नहीं, राष्ट्रपति को करना चाहिए नए संसद भवन का लोकार्पण

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— सत्यनारायण साहु —

किसी अनुष्ठान या समारोह के मद्देनजर अग्रता क्रम (वारंट ऑफ प्रिसिडेंस) में पहला स्थान भारत के राष्ट्रपति का है। इस क्रम में प्रधानमंत्री का स्थान तीसरा है, उपराष्ट्रपति के बाद। लेकिन 2014 के बाद जादुई ढंग से जिस न्यू इंडिया का उदय हुआ है उसमें संवैधानिक तफसील तथा प्रोटोकॉल की परवाह नहीं की जाती और मोदी सरकार के सभी कामों को सही ठहरा दिया जाता है!

उन्नीस विपक्षी दलों – कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम, आम आदमी पार्टी, जनता दल (यू), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, शिवसेना (उद्धव ठाकरे), माकपा, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, झारखंड मुक्ति मोर्चा, जम्मू व कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस, केरला कॉंग्रेस (एम), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, एमडीएमके, विद्युथलाई चिरुथैगल काटची और राष्ट्रीय लोक दल – ने पहले एक साझा बयान जारी किया और फिर यह ऐलान भी कर दिया कि वे नए संसद भवन का 28 मई को प्रधानमंत्री के द्वारा होने वाले उदघाटन का बहिष्कार करेंगे।

प्रधानमंत्री पर ‘संसद को खोखला करने’ का आरोप लगाते हुए इन दलों ने कहा, “राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को दरकिनार करके, नए संसद भवन का खुद उदघाटन करने का मोदी का निर्णय न केवल घोर अपमानजनक है बल्कि हमारे लोकतंत्र पर सीधा हमला भी है जिसका कड़ा प्रतिवाद किया जाना चाहिए।” इन दलों ने जोर देकर कहा, यह शर्मनाक कदम, राष्ट्रपति के पद का अपमान है तथा संविधान के निर्देशों और संविधान की भावना का उल्लंघन है। यह कदम समावेशिता की उस भावना को कमजोर करता है, जिसका इजहार देश ने, पहली बार एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बनने पर, जश्न मनाकर किया था।

मोदी के द्वारा नए संसद भवन का उदघाटन 28 मई को निर्धारित है, जो हिन्दू राष्ट्रवादी नेता और लेखक विनायक दामोदर सावरकर का जन्मदिन है। मोदी ने नए संसद भवन का शिलान्यास और भूमि पूजन 10 दिसंबर 2020 को किया था।

निर्माण कार्य के दौरान मोदी ने इसका निरीक्षण किया और मीडिया ने खूब प्रमुखता से इसका कवरेज किया, जबकि हॉल और ढॉंचा पूरी तरह बने नहीं थे।

खरगे का आरोप – राष्ट्रपति और पूर्व राष्ट्रपतियों को निमंत्रित नहीं किया गया

राज्यसभा में विपक्ष के नेता और कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने एक के बाद एक कई ट्वीट करके मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वह नए संसद भवन के उदघाटन समारोह में राष्ट्रपति और पूर्व राष्ट्रपतियों को आमंत्रित न करके “औचित्य का अनादर” कर रही है; बीजेपी-आरएसएस की सरकार ने राष्ट्रपति पद का अवमूल्यन करके उसे महज एक प्रतीक में बदल दिया है। खरगे ने यह भी कहा कि सरकार ने एक दलित और फिर एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाना सिर्फ चुनावी गरज से तय किया था।

सावरकर के जन्मदिन की तारीख क्यों चुनी गयी?

विपक्षी नेताओं को यह भी नागवार लगा कि उदघाटन के लिए सावरकर के जन्मदिन की तारीख चुनी गई। कई विपक्षी नेताओं ने इस मौके पर उन दया याचिकाओं की बात उठाई है जो सावरकर ने सेल्युलर जेल से छूटने के लिए अंगरेज अफसरों को भेजी थीं, फिर भारत छोड़ो आंदोलन के समय सावरकर अंगरेजी हुकूमत के साथ खड़े थे, और यह सावरकर थे जिन्होंने जिन्ना के द्वारा द्विराष्ट्र का सिद्धांत स्वीकार करने और आगे बढ़ाने से काफी पहले ही यह प्रस्तावित किया था कि हिन्दू और मुसलमान अलग अलग राष्ट्र हैं।

कांग्रेस ने यह तक कहा है कि नए संसद भवन के उदघाटन के लिए सावरकर के जन्मदिन की तारीख का चयन करना स्वतंत्रता सेनानियों की विरासत पर सुनियोजित हमला है।

मोदी केन्द्रित कार्यक्रम

मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं, किसी भी बड़ी परियोजना का शिलान्यास या आरंभ, निरीक्षण, उदघाटन, लोकार्पण मोदी को ही केंद्र में रखकर होता रहा है, और यह 2014 से शुरू हुए उनके कार्यकाल की एक खास पहचान है।

मोदी ने ही नए संसद भवन का शिलान्यास किया था, और इसका निर्माण कार्य पूरा हो जाने पर वही इसका उदघाटन करेंगे। इससे यह धारणा बनी है कि ऐसे मौके पर वह छाये हुए दीखना चाहते हैं और ऐसी पटकथा लिखना चाहते हैं ताकि आने वाली पीढ़ियों को नए संसद भवन के निर्माण पर हर जगह उनकी छाप दिखाई दे।

राष्ट्रपति संसद का हिस्सा हैं

संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति, संसद के दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा, के साथ मिलकर, संसद बनती है। इस अर्थ में राष्ट्रपति सर्वोच्च विधायिका यानी संसद का हिस्सा हैं, और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के तहत, शासन के संवैधानिक ढॉंचे में, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ, एक विशिष्ट स्थान रखते हैं।

मोदी लोकसभा के सदस्य हैं और प्रधानमंत्री होने के नाते कार्यपालिका के मुखिया हैं। संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार भारत के राष्ट्रपति और राज्यसभा व लोकसभा मिलकर संसद की रचना करते हैं। लिहाजा, राष्ट्रपति ही नए संसद भवन के उदघाटन के लिए उपयुक्त हैं और इसके लिए उन्हें आमंत्रित किया जाना चाहिए।

संसद का गठन करने के संवैधानिक दायित्व के अलावा, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 86 में कहा गया है, राष्ट्रपति की एक भूमिका यह भी है कि वह प्रत्येक आम चुनाव के बाद, संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को और हर साल के प्रथम संसदीय सत्र को आरंभ में संबोधित करेगा। इसके अलावा, दोनों सदनों द्वारा पारित कोई भी बिल, राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना, कानून का दर्जा हासिल नहीं कर सकता।

राष्ट्रपति और संसद के बीच ऐसा गहन और अविभाज्य संबंध हमारे संविधान की मुख्य विशेषताओं में से एक है।

राष्ट्रपति का स्थान पहला है

इसके अलावा, राजकीय अनुष्ठान या समारोह के अवसर पर, अग्रता क्रम में राष्ट्रपति का स्थान पहला है, प्रधानमंत्री का तीसरा स्थान है, उपराष्ट्रपति के बाद। इसलिए यह क्योंकर हो रहा है कि प्रधानमंत्री जो अग्रता क्रम में तीसरे स्थान पर आते हैं, नए संसद भवन का उदघाटन करें, और राष्ट्रपति जो पहले स्थान पर आते हैं उनसे उदघाटन कराने पर विचार ही न किया जाए, यहाँ तक कि उन्हें आमंत्रित भी न किया जाए।

राष्ट्रपति कोविंद को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के उदघाटन के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था

2014 से शुरू हुए न्यू इंडिया में कोई संवैधानिक तफसील और तकाजों की परवाह नहीं करता और मोदी सरकार के हर काम को ऑंख मूॅंद कर सही ठहरा दिया जाता है। आखिरकार, 25 फरवरी 2019 को न तो संवैधानिक अनिवार्यता का पालन किया गया न प्रोटोकॉल का, जब प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रीय युद्ध स्मारक (नेशनल वार मेमोरियल) का उदघाटन किया, और तब के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को उस ऐतिहासिक कार्यक्रम से दूर रखा गया, जबकि संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार, सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर, राष्ट्रपति होते हैं।

बहुत से सेवानिवृत्त, उच्च पदों पर रह चुके रक्षा अधिकारियों ने, जिनमें से कुछ मोदी सरकार के समर्थक भी हैं, सार्वजनिक रूप से इस बात पर निराशा जताई थी कि सेना की शानदार विरासत और राष्ट्र की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए, युद्धकाल और शांतिकाल दोनों में, सेना के किए त्याग और बलिदान को प्रतिबिंबित करने वाले अवसर पर सेना के सर्वोच्च कमांडर मौजूद नहीं थे।

तो, जिस मोदी सरकार ने, सेना के सर्वोच्च कमांडर को 2019 में ऐतिहासिक ‘राष्ट्रीय युद्ध स्मारक’ से संबंधित कार्यक्रम से दूर रखा, उससे हमें यह अपेक्षा क्यों करनी चाहिए कि राष्ट्रपति, जो संसद का हिस्सा हैं, उसी प्रधानमंत्री के होते हुए, नए संसद भवन के उदघाटन के अवसर पर वहॉं मौजूद हों!

विपक्षी दलों का रुख

19 विपक्षी दलों ने उदघाटन समारोह के बहिष्कार का निर्णय लिया, उसके पहले ही इनमें से कई दलों के नेताओं ने – जैसे कि कांग्रेस के राहुल गांधी, राष्ट्रीय जनता दल के प्रोफेसर मनोज कुमार झा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डी राजा, और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के असदुद्दीन ओवैसी ने यह तर्क पेश किया था कि प्रधानमंत्री मोदी के बजाय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को नए संसद भवन का उदघाटन करना चाहिए।

इन नेताओं की तरफ से जो भी बयान आए उनमें डी राजा की टिप्पणी सबसे तल्ख थी। एक ट्वीट में उन्होंने कहा, “आत्म-छवि और कैमरे का मोह मर्यादा और मानकों को कुचल देता है, अगर मामला मोदी जी का हो।” उन्होंने यह तथ्य भी रेखांकित किया कि प्रधानमंत्री कार्यपालिका के मुखिया हैं, जबकि संसद, विधायिका का अंग है।

इतिहास से उदाहरण

लोकसभा सचिवालय से 2019 में प्रकाशित ‘पार्लियामेंट हाउस एस्टेट’ के मुताबिक पार्लियामेंट हाउस एनेक्स बिल्डिंग का शिलान्यास 3 अगस्त 1970 को राष्ट्रपति वीवी गिरि ने किया था। पांच साल बाद 24 अक्टूबर 1975 को तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उसका उदघाटन किया था।

यह हमारे इतिहास का एक ऐसा चमकदार उदाहरण है जो हमारे नेताओं के व्यापक नजरिये को प्रतिबिंबित करता है। एक शिलान्यास करता है, दूसरा उदघाटन, वे दोनों अवसरों पर काबिज नहीं होते। अगर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एनेक्स बिल्डिंग का शिलान्यास करने की इच्छा जताई होती तो राष्ट्रपति को दरकिनार करके उस अवसर को हथियाने की उनकी मंशा के आड़े आने की हिम्मत शायद ही कोई करता।

उस उदाहरण पर चलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को, जिन्हें नए संसद भवन का शिलान्यास करने का सौभाग्य मिल चुका था, यह सौजन्य दिखाना चाहिए था कि उदघाटन को हथियाने के फेर में न पड़ते। उन्हें पहल करनी चाहिए कि लोकसभा अध्यक्ष के माध्यम से राष्ट्रपति मुर्मू को नए संसद भवन के उदघाटन के लिए राजी करें। इसके लिए शिष्टता, परिपक्वता और राजनीतिक बड़प्पन के ऊॅंचे मानकों पर खरा उतरने की जरूरत होती है। दुर्भाग्य से, जिस तरह से चीजें घटित हो रही हैं उससे लगता है कि इस तरह के आदर्शों को बेरहमी से कुचला जा रहा है।

डी राजा की तल्ख टिप्पणी नए संसद भवन के शिलान्यास से उदघाटन तक, मोदी की पूरी पटकथा का निचोड़ बयान करती है। सच में, यह मर्यादा और मानकों को कुचलने का मामला है। कोई इसमें यह भी जोड़ सकता है कि यह ऐसे मामलों में अतीत की मिसालों को कुचलने का भी मामला है।

वर्ष 2002 में राष्ट्रपति केआर नारायणन को तब के लोकसभा अध्यक्ष बालयोगी ने संसदीय ज्ञानपीठ नाम से बने संसद के नए पुस्तकालय भवन का उदघाटन करने के लिए आमंत्रित किया था। कुछ अत्यावश्यक व्यस्तता के चलते नारायणन उदघाटन की तारीख और समय मुकर्रर नहीं कर पा रहे थे। तब लोकसभा सचिवालय ने राष्ट्रपति की सुविधा के मद्देनजर इंतजार करना बेहतर समझा था।

आखिरकार 7 मई 2002 को राष्ट्रपति नारायणन ने वह उदघाटन किया और उस मौके पर शिरकत करने का सौभाग्य मुझे मिला था।

लोकसभा सचिवालय ने संसदीय ज्ञानपीठ के उदघाटन के लिए राष्ट्रपति को आमंत्रित करके, यहाँ तक कि उदघाटन के लिए उनके सुविधाजनक समय का इंतजार करके जो उदाहरण पेश किया था, उसी पर चलते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को नए संसद भवन के उदघाटन के मामले में निर्णय लेना चाहिए।

लेकिन अफसोस! डी राजा के शब्दों में, “आत्म-छवि और कैमरे का मोह मर्यादा और मानकों को कुचल देता है, अगर मामला मोदी जी का हो।”

लोकसभा अध्यक्ष क्या करें

लोकसभा अध्यक्ष के लिए सबसे अच्छा यही होगा कि, विपक्ष और सत्तापक्ष, दोनों तरफ के नेताओं से मशविरा करें, उदघाटन के आयोजन के लिए तारीख का निर्धारण सर्वसम्मति से करें, गण्यमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित करें, जैसे कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति (जो कि राज्यसभा के पदेन सभापति भी होते हैं), प्रधानमंत्री और भूतपूर्व राष्ट्रपति। उस समारोह में राष्ट्रपति से निवेदन किया जाए कि वे नए संसद भवन का उदघाटन करें, और उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा लोकसभा अध्यक्ष को बोलने के लिए आमंत्रित किया जाए।

हमारी सर्वोच्च विधायिका के नए भवन के उदघाटन के लिए ऐसा रुख ही हमारे समावेशी आदर्शों के उपयुक्त होगा और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक शानदार उदाहरण पेश करेगा, तथा अतीत में, संसद के सेंट्रल हॉल में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा लोकसभा अध्यक्ष की भागीदारी के साथ जो महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम संपन्न हुए हैं, यह उनकी भी संगति में होगा।

(लेखक राष्ट्रपति केआर नारायणन के प्रेस सचिव रह चुके हैं)

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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