1. कविता की कला
जब मिट्टी में भाषा के बीज फूटते हैं
विचारों का हवा-पानी मिलता है
खुला आसमान खिलखिलाता है
और चिड़ियों का वृंदगान घुलता है
तब कहीं कविता के फूल खिलते हैं
पौधा बनने की बीज से
इंसान बनने की आदमी से
घर बनने की मकान से
सच बनने की अल्ट्राट्रुथ से
सहज प्रक्रिया है कविता बनने की भाषा से
इधर झूठ का बाज़ार गर्म है
ईमान बेचने की बोली सस्ती है
कौड़ियों के भाव सम्मान बिकता है
और झूठ बोलने की कला कोई बरसाती मेंढ़क से पूछे
चालाकी, धूर्त-मक्कारी का पाठ सयाने कव्वे से पूछे
इमोशनल ब्लैकमेल करने का हुनर घड़ियाल से पूछे
और अवसरवादी कला के बारे में आप बेहतर जानते हैं
दुनियादारी के कुछ हुनर को सीखने में मुद्दत लग जाती है
और कुछ सोच को बदलने में पल भर भी नहीं
आज कविता के बीज फूटने की कला को ही देखिए
वह किस तरह नर्म मुलायम गद्दों पर पुष्पित होती है
इस पर हम सबको हैरत में डाल देती है
और क्षितिज के उस पार
बाबा नागार्जुन हक्के-बक्के खड़े देखते रह जाते हैं।
2. मुआफ़ करना
मेरी सभी मूर्खताऍं मुआफ़ करना
अदना सा कवि हूँ
तुम्हारे सम्मुख कहीं ठहरता नहीं
एक कवि सच बोलने के सिवाय कर भी क्या सकता है
और सच बोलना मूर्खता भरा कार्य है
मेरी गुस्ताखियाँ शायद न हो मुआफ़ी लायक
क्योंकि मैं कविता नहीं लिखता
बल्कि कविता मुझे लिखती है
और खोलती है परत दर परत मन की गांठें
मानता हूँ मेरी कमियाँ मुआफ़ी के क़ाबिल नहीं
फिर भी मैं किताबों से बेइंतहां प्रेम करता हूँ
ओ मेरी प्रियतमा! मेरा यह कहना सफेद झूठ है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
जबकि मेरे दिल में किताबों के पन्ने फड़फड़ाते हैं
आप मेरे हर गुनाह को मुआफ़ कीजिएगा
यह समय प्रेम करने का हरगिज़ नहीं
फिर भी
जंगल से/नदी से/पहाड़ से/नानक से/ कबीर से/रज्जब से/ नागार्जुन से
और कविता को खुद से ज़्यादा प्रेम करता हूँ
मुआफ़ करना यह समय नफ़रतों भरा है
बावजूद इसके मैं अपनी मिट्टी बोली-बानी
और आदमी से प्रेम करता हूँ
जो मेरे ज़िन्दा रहने का सबूत देते हैं।
3. समझौता
मेमने और भेड़िये में समझौता हुआ
दोनों मैदान में मस्ती से उछलते फिरते
और एक दिन भेड़िया अकेले घूम रहा था
जंगल का दुख पेड़ की पत्तियों से टपक रहा था
चिड़िया और बाज में समझौता हुआ
दोनों ने छत पर कई दिन तक दाना चुगा
और एक दिन चिड़िया का पता नहीं चला
कुछ पंख हवा में बेतरतीब बिखरे पड़े थे
एक समझौता किसान-मज़दूर और साहूकार में हुआ
दोनों की खुशी का कोई ठिकाना न था
मज़दूर इतना खुश था
कि हाड़तोड़ मेहनत करता रहा रात-दिन
और एक दिन सब खेत-खलियान
साहूकार की ठहाकों से गूॅंज रहे थे
सूरज और तारों के समझौते में तारों की हॅंसी गुम हो गयी
मगरमच्छ और मछली के समझौते में मछली खो गयी
अब भेड़िये ने चीते का मुखौटा लगा लिया है
निरीह जानवरों को डराकर अपनी धौंस जमाये फिरता है
कमजोर और ताकतवर के बीच का समझौता
कमजोर के वजूद को खत्म कर देता है
(“बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहॉं दरिया समंदर में मिला दरिया नहीं रहता।”- बशीर बद्र)
अब इस देश का क्या करें
जिस देश के लोगों ने समझौता कर लिया हो!
4. रात का गहरा जाना
रात घनी काली और डरावनी हो गयी
चमगादड़ों की चीखें भीतर तक घुल गयीं
पतबीजनों के पंख कुतर दिए गए
हर क्षण ॲंधेरा बढ़ता गया
और कहीं से कोई आवाज़ तक नहीं उठी
रात सूखे पत्तों के बिछौने पर सोयी है
यह भेड़ियों के जागने का समय है
यानी बस्ती में ख़ौफ़ पसर गया
आज़ादी का मायना बदल गया
हमारे लिए रात का होना
थकी देह का आराम भर नहीं है
बल्कि अपनी बेटियों की सुरक्षा में पहरेदारी है
रात की भयावह चुप्पी में
उजला रंग सिवाय कल्पनाओं के कहीं नहीं खिलता
लहू की कुछ बूॅंदें
आदमखोर भेड़िये के जबड़े से टपकती रहीं
कुछ देर कराही बस्ती
फिर ॲंधेरे के सन्नाटे में डूब गयी।

5. धरती का कृष्ण पक्ष
सब कुछ साफ-साफ दीखता
छायादार पेड़ की जड़ों में दीमक लगा है
सब सगे-सम्बन्धी हाथ छोड़
ऊँचे सपनों की लालसा में दूर जा चुके हैं
सामने हहराता समुद्र उमड़ता
तट पर लौटती नाव हिलोरें खा रही है
सब दरवाज़े खुले छोड़ दिये
खुनक हवा का एक झोंका आने की प्रतीक्षा है
मुद्दत से दुर्गम किले का दरवाज़ा बंद है
और जरूरतमंद आवाज़ें
ऊँची दीवारों से टकराकर लौट आती हैं
मुद्दत से सीलन भरे कोनों में नहीं उतरी धूप
भयावह अंधकार में
तिलचट्टे और चमगादड़ों का डेरा है
आकाश में बादल घुमड़ रहे हैं
फसल सूखी है और किसान का मुँह उतरा है
मज़दूर के घर रोटी के लाले पड़े हैं
बहुत कुछ घटित होने की प्रतीक्षा में है
हवा में एक भी मुट्ठी नहीं लहलहा रही है
यह धरती पर कृष्ण पक्ष का समय है
कुछ भी हमारे पक्ष में घटित नहीं हो रहा है
सब चुप हैं और ख़ौफ़ के सन्नाटे में डूबे हैं।
6. ये कैसा युद्ध है
ये कैसा युद्ध है
यूक्रेन के स्कूल और रेलवे स्टेशन ध्वस्त किये जा रहे हैं
सैन्य ठिकाने उड़ाए जा रहे हैं
विश्व को वर्चस्व की अति महत्त्वाकांक्षा की आग में
झोंका जा रहा है
दूर कहीं बुद्ध की आत्मा लहूलुहान हो रही है
ये कैसा युद्ध है
परिन्दों ने सरहदें छोड़ दी हैं
सूरज ने मुस्कुराना छोड़ दिया है
चाँद का मुँह उतरा हुआ है आकाशगंगा से टूटे तारे खून से लथपथ हैं
रूस के बारूद में झुलसे खड़े यूक्रेन के पेड़ चुपचाप हैं
मानवता के सब मानदंड जिद्दी राजाओं की भेंट चढ़ गए हैं
युद्ध की रातें बहुत कठिन और डरावनी हैं
बच्चों की चीखें सीधे आत्मा में नावक के तीर-सी चुभती हैं
यूक्रेन की इमारतें खॅंडहरों में तब्दील हो चुकी हैं
स्त्रियों के जीवन रंगों पर कालिख़ पुत गयी है
बस्तियाँ आग की लपटों के हवाले कर दी गयी हैं
हर तरफ ख़ौफ़ का मंज़र है
परन्तु राजा के महल की दीवारें सही सलामत खड़ी हैं
ये कैसा युद्ध है जिसकी क़ीमत उनको चुकानी पड़ती है
जिन्होंने कोई गुनाह तक नहीं किया है।
7. धरती चिताओं का हवन-कुंड
देश एक भयावह हवन कुंड बना है
जिसमें हर दिन स्वार्थ सिद्धि हेतु
असंख्य मानुष बलि दी जाती है
सर्वत्र शुद्ध हवा के लाले पड़े हैं
सांस लेना दूभर हुआ है
मानुष देह को नोच कर खाने के वास्ते
आसमान में विचरण करती गिद्धों की जमात से
धरती पर ख़ौफ़ पसरा है
चिताओं से धधकती धरती पर हाहाकार मचा है
कोई किसी की सुध लेने वाला नहीं
मुद्दत हो गई बालकों को हॅंसे
सड़कें एम्बुलेंस की आवाजों से कराह रही हैं
देश कालाबाज़ारी का अड्डा बना है
मानव जीवन की आवश्यक जरूरतें
कुछ शातिर दिमाग की तिज़ोरी में बंद हैं
जिस संभावना को पुकारता हूँ
वहीं से आशाओं की डोर टूट जाती है
यहाँ जो महानगर की बालकोनी में फूल खिले हैं
उनके चेहरे रंगतहीन और उदासी से भरे हैं
हमें जिस वक़्त मनुष्य की सलामती के लिए हाथ उठाने थे
उस वक़्त हम धरती पर विजय पताका लहराने में लगे हैं
धरती असुरों का हवन कुंड बनी है
जिसमें बेख़ौफ़ व्यक्ति की आहुति दी जा रही है
राजघरानों ने मौन का घूँट पी लिया है
इस संवेदनहीन समय में
कभी-कभी उम्मीद की किरण चमक कर
क्षण भर में ही विलुप्त हो जाती है
और पृथ्वी दुश्चिंताओं के ॲंधेरे में डूब जाती है।
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