— अफ़लातून —
भारत के प्रथम राष्ट्रपति ने काशी में ब्राह्मणों के पांव धोए थे। तब एक विद्वान ब्राह्मण ने ऐसा करवाने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि देश का प्रथम नागरिक मेरे पांव धोए यह नहीं होगा। ब्राह्मणवादी परंपरा का प्रतिवाद करने वाले विद्वान थे पंडित जगन्नाथ उपाध्याय। उनकी मृत्यु के बाद ‘नमयोहोरेंगेक्यो’ का जाप करने वाली बौद्धों की एक टुकड़ी भी सारनाथ से घाट पर आई थी। परंतु परिवार के पारंपरिक लोग ‘पचखा’ बीत जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। तब उस परिवार की एक भौतिकविद बेटी ने दुख व्यक्त किया था, ‘जिन्होंने हमेशा इन कुपरम्पराओं, अंधविश्वास को ठुकराया उनके लिए ऐसा किया जा रहा है।’
क्या राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू प्रथम राष्ट्रपति की तरह ब्राह्मणों के पांव धोतीं? या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह ब्राह्मणों के समक्ष साष्टांग प्रणिपात (लम्बलोट हो) होतीं? इस बार जगन्नाथ उपाध्याय की भांति किसी ब्राह्मण ने प्रतिवाद नहीं किया। तय है कि उनमें से कोई भी विद्वत्ता में जगन्नाथ उपाध्याय के निकट भी न होगा।
अब एक स्थिति की कल्पना कीजिए। दर्जा 8 में पढ़ी नागरिक शास्त्र की पुस्तक ‘शासन और संविधान’ के एक पाठ से आज उस कल्पना का पैदा होना सहज था।
कल्पना यूँ है –
रविवार को हुए नए संसद भवन के कर्मकांड में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के संदेश किसी और के द्वारा पढ़े गए। वे दोनों सशरीर उपस्थित नहीं थे। कल्पना कीजिए कि इन दोनों के स्थान पर इस स्थिति से अपमानित महसूस करने वाले कोई राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति होते और वे आहत होकर इस्तीफा दे देते तब इनके खाली स्थान को कैसे भरा जाता?
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डॉ धनंजय चंद्रचूड़ द्वारा?