समता और संपन्नता – राममनोहर लोहिया : तीसरी व अंतिम किस्त

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घूम-फिर करके हर मामला स्वनिर्माण और सर्वनिर्माण में टक्कर लेता है। इस टक्कर के बिना कुशलक्षेम भी नहीं। स्थिति इतनी बिगड़ गयी है कि परमार्थ के बिना आज कोई अच्छा स्वार्थ भी नहीं सध सकता। किन्तु राष्ट्रीय मन इतना बिगड़ चुका है कि हर आदमी अपने हिस्से को बढ़ाना संभव और सहज समझता है और कुल भंडार को बढ़ाना कठिन। इसलिए किसी भी ठोस कार्यक्रम में ऐसी क्षमता होनी चाहिए कि वह असरदार ढंग से स्वार्थ को धकेले और परमार्थ को बढ़ाये। भारत के समाजवाद का 18 वर्षों में यही सबसे बड़ा पाप रहा है, उस समाजवाद का जो गद्दी पर या उसके नजदीक रहा है। इस समाजवाद ने खाली नाम जप किया है, जनतंत्र का, बराबरी का, इहवाद का, राष्ट्रीयता का, अन्तरराष्ट्रीयता का, क्रांतिकारिता का, किन्तु कभी कोई कोशिश न की कि इन सिद्धांतों का ठोस धागा काते और ऐसे ठोस धागों से सिद्धांतों का ताना-बाना बुनता रहे। उलट, जबकि यह खुद नितान्त खाली और बेमतलब रहा है, उसने हर समाजवादी प्रयत्न में सिद्धांत और ठोस के लेन-देन हल को सिद्धांतविहीन बताया।

समाज को बदलना है। कब किन परिस्थितियों में इस 11 सूत्री कार्यक्रम के कौन से मुद्दे या कोई एक भी कारगर किये जा सकेंगे पहले से कह सकना कठिन है। मैं खाली इतना कह सकता हूँ कि एक भी मुद्दे को कारगर किये जाने पर क्रांतिकारी सरकार और जनता में आत्मविश्वास की शुरुआत हो जाती है। यह सही है कि अगस्त 1947 के बाद से किसी सरकारी विशेष अवसर के द्वारा अर्जित की हुई मिल्कियतों को छीनना किसी न किसी मंजिल पर जरूरी होगा। अगर सभी मिल्कियतें छिनती हैं, तब अलग से कोई जरूरत न होगी, वरना इन मिल्कियतों का छिनना राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की पहली सीढ़ी है। क्रांति मुनाफे की दुकान नहीं है, इस सत्य को अमिट रूप से हर भारतीय खोपड़ी पर आँकना होगा।

जब कहीं और कभी कोई गैरकांग्रेस सरकार बने, उसके सामने पहला खतरा होगा, हर्ष और उल्लास। मेरा बस चले तो मैं जनता और विशेषकर संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) के सदस्यों को ऐसे कबलज-वक्त में उल्लास के खिलाफ बना दूँ। माला पहनने का वक्त कांग्रेसी सरकार के हटने पर नहीं आएगा। हटने के बाद जब कोई ठोस नीति चला दी गई हो और उसके परिणाम सामने आने लगे हों तब माला पहनने और दावत खाने का वक्त आएगा।

एक बात कभी न भूलनी चाहिए। केरल के कम्युनिस्ट मंत्रिमंडल से उतने नतीजे हरगिज नहीं निकल सकते थे जितने बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश अथवा राजस्थान से अपेक्षित हैं। लोकसभा के प्रतिनिधियों के हिसाब से एक बिहार में तीन केरल हैं और एक उत्तरप्रदेश में पाँच। केरल के पड़ोसी हैं तमिलनाडु और कर्नाटक। भाषा के और दूसरे आदान-प्रदान इन पड़ोसियों में नहीं हैं। जो केरल में होता है उसका प्रभाव उसके पड़ोसियों पर ज्यादा नहीं पड़ता है। हिन्दीभाषी प्रांतों की अवस्था अलग है। जो एक में होगा वह दूसरे में बिजली की तरह दौड़ जाएगा।

एक बार गद्दी पर बैठ जाने के बाद गद्दी से चिपके रहने की स्वाभाविक आकांक्षा होती है। बेकार अथवा कम कारणों से गद्दी को ठुकरा देना भले आदमी का काम नहीं। जो राजनीति करता है उसका पहला धर्म है, गद्दी पाना और गद्दी को कायम रखना। लेकिन हर हालत में नहीं। गद्दी कायम रखने के लिए यदि नीतियों और आत्मसम्मान का परित्याग आवश्यक हो जाता है तो ऐसी गद्दी को ठुकराना ही श्रेयस्कर है।

मुझसे गलती हुई कि मैंने अब तक के समाजवादी चिंतन में एक अयथार्थी और आदर्शी घोल मिलाया। ऐसी अवस्था के लिए जब दल की बहुसंख्या न हो और दूसरों से मिलकर ही सरकार बनाने-बिगाड़ने का प्रश्न उठता हो, मैंने कहा कि मंत्रिमंडल को झेलो, उसमें साझेदारी न करो। यह नीति दो दृष्टियों से खराब है। भारत की राजनीति में जो लिप्सा आ गयी है उसके संदर्भ में किसी दल को संभवसत्ता से परे रखना यथार्थ नहीं है और कमजोरी, टूट तथा सनक का कारण है। किसी मंत्रिमंडल के प्रति बिन साझा झेलने की नीति अख्तियार करने का नतीजा होता है, एक तरफ भलाई के कामों में कमी और दूसरी तरफ निन्दा के कामों में साझेदारी।

अभी से मन पक्का करना चाहिए कि जिस मंत्रिमंडल में संसोपा साझीदार बने उससे तीन महीने के अंदर-अंदर किसी एक आवश्यक काम की अपेक्षा करेगी। या तो वह काम हो या मंत्रिमंडल भंग हो। ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा करना अभी तो जरूरी है। मिसाल के लिए, ऐसी प्रतिज्ञा लगान-मालगुजारी को लेकर हो सकती है। यदि केवल एक प्रदेश में मंत्रिमंडल बना हो और उसमें संसोपा की साझेदारी हो तो उससे अपेक्षा करनी चाहिए कि तीन महीने के अंदर-अंदर मालगुजारी खत्म कर देगा। कई रोड़े आएँगे। स्वयं दल का एक अंग कहेगा कि इस तरह का उतावलापन नादानी है। हो सकता है कि दूसरे दल भी इसे नापसंद करें। इसलिए, ऐसे विषयों पर अभी से बहस छिड़ जानी चाहिए।

केन्द्र की काँग्रेसी सरकार संभव है अड़ंगा डाले। इससे ज्यादा अच्छा और क्या होगा। तब एक प्रगतिशील और आगेदेखू प्रदेश तथा प्रतिगामी और पीछेदेखू केंद्र में घमासान मचेगा। नाटकीय ढंग से महीनों के अंदर वह क्रांतिकारी काम हो जाएगा जो वर्षों या दशकों में हुआ करता है। पूरा देश झंकार उठेगा कि कोई नयी शक्ति आयी है।

(समाप्त)

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