— किशन पटनायक —
(स्व. किशन जी का यह लेख पहली बार अगस्त, 2003 में प्रकाशित हुआ था। समान नागरिक संहिता पर चल रही चर्चा के परिप्रेक्ष्य में यह फिर से गौरतलब है। – सं.)
समान नागरिक संहिता की बात इस बार संघ परिवार के किसी सदस्य ने नहीं, बल्कि उच्चतम न्यायालय ने की। न्यायालय ने इस बात पर असंतोष व्यक्त किया कि ऐसा कानून बनाने में सरकार विलंब कर रही है। संविधान का यह निर्देशक सिद्धांत है (धारा 44) कि समूचे देश के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए। भारत की सभी सरकारें संविधान के कई महत्त्वपूर्ण निर्देशों की अवहेलना करती आयी हैं, लेकिन इस विषय पर बात कुछ दूसरे ढंग की है।
प्रचार के स्तर पर भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के लोग इसके पक्ष में हैं। उनको मजा आता है कि इस पर सेकुलर तबकों की ओर से विरोध होता है। सेकुलर खेमे को लगता है कि इस मुद्दे पर बात होगी तो फायदा हिन्दू सांप्रदायिकतावादियों को मिलेगा। अल्पसंख्यकों के रूढ़िवादी समूहों की नाराजगी से तथाकथित ‘सेकुलर’ वोट बैंक बिगड़ जाएगा। विडंबना यह है कि धर्मनिरपेक्षता का जो कार्यक्रम है वही सेकुलर वोट बैंक को बिगाड़ता है। प्रचलित राजनैतिक (चुनाव) व्यवस्था ऐसी है कि वह अकसर बुनियादी परिवर्तन के रास्ते में रोड़ा अटकाती है। परिवर्तनवादी नेतृत्व अकसर उन प्रश्नों से समझौता कर लेता है जो तात्कालिक चुनावी सफलता के प्रतिकूल हैं। मौजूदा भारत में यह प्रवृत्ति हद तक पहुँच चुकी है, आगामी चुनाव नतीजों की वेदी पर सारे परिवर्तनवादी मूल्यों की तिलांजलि देने के लिए सभी संगठित बौद्धिक और राजनैतिक समूह तैयार हैं। अल्पकालिक पराजय का जोखिम उठाकर दीर्घकालिक जनाधार और मूल्यों की प्रतिष्ठा हासिल करना कभी क्रांतिकारियों की रणनीति हुआ करती थी। आज की रणनीति भय से प्रेरित है। गद्दी खोने का भय हमारी प्रगतिशीलता को परिभाषित करता है। हम प्रगतिशील मूल्यों को प्रचारित नहीं करेंगे, क्योंकि उससे हमारे प्रगतिशील लोगों को गद्दी मिलने की संभावना कम हो जाएगी।
आखिरकार संविधान में किसके आग्रह से यह दर्ज हुआ था कि समान नागरिक कानून बनेगा? परंपरावादी सांप्रदायिक तत्त्वों के आग्रह से या आधुनिकतावादी समूहों के आग्रह से?
निश्चय ही संविधान सभा में उनका पलड़ा भारी था जो आधुनिकतावादी थे, सामाजिक मामलों में प्रगतिशील थे और राष्ट्रीय एकता के लिए व्यग्र थे। जिनके निर्णायक प्रभाव के चलते अस्पृश्यता निवारण तथा पिछड़ों-दलितों को आरक्षण आदि का प्रावधान संविधान में दर्ज हुआ, और पहली लोकसभा में ही हिन्दू कोड बिल जैसा विधेयक पेश हुआ. उन्हीं के प्रभाव से धारा 44 भी दर्ज हुई थी। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इस पर सबसे ज्यादा जोर दिया था और सारे संशोधनों को निरस्त किया था।
आप अगर आधुनिकतावादी हैं, सेकुलर हैं, प्रगतिशील हैं, तो आप कैसे इसका विरोध कर सकते हैं कि पारिवारिक संपत्ति के उत्तराधिकार के बारे में तथा परिवार और बच्चों की सुरक्षा के बारे में समूचे राष्ट्र में एक जैसा कानून बने?
क्या आप चाहेंगे कि सदियों पुरानी प्रथाओं को आज भी मान्यता दी जाए जिनका प्रभाव तब खास प्रकार की सामंती अर्थव्यवस्था और सामाजिक संस्कृति के लिए उपयोगी या आदर्श भी रहा होगा, लेकिन जो आज सिर्फ धार्मिक भावनाओं के साथ जोड़कर ही चलायी जा सकती हैं। क्या आप नहीं चाहेंगे कि परिवार में व्यक्ति की सुरक्षा और संपत्ति के बँटवारे से संबंधित कानूनों को धार्मिक रूढ़िवाद के बंधन से मुक्त किया जाए? यह सवाल हम संघ परिवार के सदस्यों से नहीं पूछ रहे हैं, सेकुलरवादियों से पूछ रहे हैं।
यह भी जरूरी नहीं कि कानून को धर्म से बिलकुल अलग कर दिया जाए। कानून का नैतिक आधार तो वे शाश्वत मानवीय मूल्य हैं जिनका व्यापक प्रचार धर्मों ने किया था। जो भी नागरिक कानून समूचे राष्ट्र के लिए बनेगा, राष्ट्र में विभिन्न धर्मों के द्वारा प्रचलित मानवीय मूल्यों के अनुरूप होगा। डॉ आंबेडकर ने यह भी कहा था कि ऐसा कानून सब पर लाद नहीं दिया जाएगा। यह उन्हीं पर लागू होगा जो इसकी स्वीकृति देंगे। संभवतः आंबेडकर संक्रमणकाल की रणनीति बना रहे थे। उनका इरादा था कि सबसे पहले प्रयोग हिन्दुओं पर किया जाए। इस मायने में वे हिन्दू थे। आजाद भारत में समाज सुधार के लिए संसद के प्रयोग की आखिरी घटना हिन्दू कोड बिल पर अधूरी चर्चा हुई। उसके बाद राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण के संदर्भ में उलटी धारा शुरू कर दी। संसद ने धार्मिक रूढ़िवाद के आगे आत्मसमर्पण का कानून बना दिया। आज का सेकुलर खेमा उसी धारा में टिका हुआ है।
आश्चर्य की बात है कि किसी संगठित समूह के पास यह सोच नहीं है कि समान नागरिक कानून का एक प्रारूप (मसविदा) होना चाहिए। संभवतः संघ परिवार के पास भी नहीं है। लेकिन होना तो चाहिए धर्मनिरपेक्षता के खेमे में;उसके बौद्धिक, राजनीतिक कार्यकलाप में और दस्तावेजों में।
किसी संगठन ने इस पर एक अध्ययन दल तक भी नियुक्त नहीं किया है। सारी बातचीत सतही स्तर पर छिटपुट ढंग से होती है। अभी तक कोई विधेयक तैयार नहीं है, न कोई प्रारूप चर्चा के लिए है।
एक प्रारूप अवश्य होना चाहिए। उसमें कुछ बातें होंगी जो बिलकुल विवादित नहीं होंगी। बंगलूर के हमारे वकील मित्र रवि वर्मा कुमार ने सुझाया था कि पहला सूत्र यह होगा कि हरेक शादी का पंजीकरण होगा। शादी, तलाक, जन्म, मृत्यु, इन सब का किसी सार्वजनिक केंद्र में पंजीकरण हो, इस पर शायद कोई विवाद नहीं होगा। दूसरे कदम पर वैसे सूत्र होंगे जिनका कोई मौलिक विरोध किसी भी धार्मिक कानून से नहीं होगा। अंत में कुछ सूत्र होंगे जिनको लेकर काफी विरोध होगा। विवादित हिस्सों के बारे में प्रावधान रहेगा कि असहमत समूह पर ये नियम तब तक लागू नहीं होंगे जब तक उनका मत परिवर्तन नहीं होता है। उपरोक्त प्रक्रिया के माध्यम से समाज और संसद के बीच जो बहस होगी वह सबके लिए उपयोगी होगी।
यह लिखने के साथ हम अपने कानून के जानकार प्रगतिशील मित्रों से अनुरोध करते हैं कि वे समान नागरिक कानून के लिए विधेयक तैयार करने की दिशा में एक प्रारूप बनाने का दायित्व स्वीकार करें ताकि ठोस सुझावों पर बहस हो।
(अगस्त, 2003)