कला ने बहुलतावादी संस्कृति को बचाये रखा

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— अरविंद कुमार —

र कला एक तरह का सभ्यता विमर्श है और इस दृष्टि से उसका काम न केवल व्यक्ति और समाज को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करना उसमें एक सांस्कृतिक मूल्य पैदा करना है बल्कि उसका काम लोकतंत्र को बचाए रखना भी है। कला जब लोकतंत्र की बात करती है तो वह विविधता और बहुलता पर जोर देती है। कला चाहती है कि संसार में हर तरह के रंग फैलें और हर तरह की खुशबू फ़िज़ा में व्याप्त हो। वह कला का गुण और धर्म भी है।

आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं उसमें भारत की सांस्कृतिक विविधता और बहुलता के लिए एक खतरा उत्पन्न हो गया है क्योंकि वर्तमान सत्ता पूरे देश में एक धर्म, एक विचार, एक संस्कृति, एक रीति-रिवाज, एक पाठ्यक्रम आदि को लादने की कोशिश में लगी हुई है।इसलिए आज भारत की बहुलतावादी संस्कृति की बात करना बहुत जरूरी है ताकि हम अपने धर्मनिरपेक्ष व बहुलतावादी राष्ट्र की रक्षा कर सकें।

यह एक दिलचस्प संयोग है कि आज जब हम अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तो ऐसे समय में हम आधुनिक भारतीय चित्रकला के भी 75 वर्ष के सफर को पूरा कर रहे हैं। आजादी और कला का समांतर संबंध दिलचस्प है। अगर साहित्य के क्षेत्र में देखें तो उन्हीं दिनों ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन हुआ जिसने हिंदी कविता के 28 रंग दिए। वह दौर साहित्य में आधुनिक मिज़ाज के उद्भव का भी था। शायद आधुनिकता की इस बयार ने कलाकारों को भी प्रेरित किया कि वे कुछ नया करें।

आजादी मिलने के कुछ महीने बाद ही देश के आधुनिक चित्रकारों ने एक ऐसे ग्रुप का गठन किया था जिसका मकसद देश में बहुलतावादी कला को बढ़ावा देना था। इस ग्रुप का नाम था “प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप” जिसमें देश के 6 जाने-माने चित्रकार थे और उन चित्रकारों में से कुछ तो बाद में अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार बन गए। उन्हें पद्मभूषण तथा पद्मविभूषण सम्मान मिले और उनकी कलाकृतियां इतनी लोकप्रिय हुईं कि उनकी बिक्री करोड़ों रुपए में होने लगी। लेकिन अफसोस इन 6 सदस्यों में आज कोई जीवित नहीं बचा है। उनमें से सबकी जन्मशतियाँ मन चुकीं।

इस ग्रुप के 75 साल पूरे होने पर कल शाम राजधानी के बुद्धिजीवियों और कलाकारों ने 30 जून, 2023 को एक यादगार समारोह का आयोजन किया जिसमें उन 6 कलाकारों की स्मृति में एक चित्र प्रदर्शनी लगाई गई और एक कैटलॉग भी जारी किया गया जिसमें मकबूल फिदा हुसेन, सैयद हैदर रजा, एफएन सूज़ा, एचएन आरा और एसएच बाकरे तथा एचए गाड़े शामिल हैं।

समारोह में हिंदी के प्रसिद्ध कवि एवं संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी, प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी और कला इतिहासकार गीति सेन ने इस कैटलॉग का विमोचन भी किया और आरंभिक वक्तव्य दिए।

श्री वाजपेयी ने कहा कि “जब आजादी मिली ही थी और विभाजन हुआ ही था उसके कुछेक महीने बाद देश के 6 कलाकारों ने एक ऐसे ग्रुप का गठन किया जिसने संस्कृति की दुनिया में बहुलतावादी कला की वकालत की। अभी देश में संविधान लागू नहीं हुआ था लेकिन इन कलाकारों ने अपने चित्रों के जरिए बहुलतावादी आवाज को बढ़ावा दिया था और नए संवैधानिक राष्ट्र की कल्पना की। इन कलाकारों में दो मुस्लिम चित्रकार थे तो एक ईसाई, शेष तीन हिन्दू थे जिनमें एक दलित भी थे। इस तरह भारतीय चित्रकला में एक बहुलतावादी रंग देखने को मिला। यह अलग बात है कि उस ग्रुप के कुछ चित्रकार बाद में विदेशों में मसलन पेरिस और लन्दन चले गए और वहीं बस गए।कुछ भारत वापस भी लौटे लेकिन वे हमेशा एक दूसरे के आजीवन मित्र रहे। उनका आपसी संवाद होता रहा और कला में सहयात्री रहे। भले ही यह ग्रुप बाद में खत्म हो गया। इस ग्रुप का भारतीय चित्रकला पर गहरा असर पड़ा।बाद में इस ग्रुप से कृष्ण खन्ना और रामकुमार, गायतोंडे, तैयब मेहता आदि भी जुड़ गए थे।”

इस प्रदर्शनी का संयोजन डॉ गीति सेन ने किया। यह प्रदर्शनी दो गैलरियों में लगाई गई है। 50 से अधिक चित्रों को प्रदर्शित किया गया है। इस प्रदर्शनी का आयोजन प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी, रज़ा फाउंडेशन और त्रिवेणी कला संगम ने किया है। प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी के पास ही प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप के चित्रकारों के चित्र हैं। ये चित्र उसने ही उपलब्ध कराए हैं।

समारोह में पूर्व राज्यपाल बाल्मीकि प्रसाद सिंह, जनता दल (यू) के प्रवक्ता केसी त्यागी, प्रसिद्ध कला समीक्षक व कवि प्रयाग शुक्ल, चित्रकार जतिन दास, नंद कटयाल, विष्णु नागर, कार्टूनिस्ट उदय शंकर, ज्योतिष जोशी, रवींद्र त्रिपाठी, सीरज सक्सेना आदि शामिल थे।

126 पेज के इस रंगीन कैटलॉग की भूमिका गीति सेन ने लिखी है।

इस आर्टिस्ट ग्रुप की खासियत यह रही कि इसमें दो कलाकार देश की आजादी की लड़ाई से जुड़े थे। आरा ने बापू के नमक सत्याग्रह में भी भाग लिया था। सूजा को यूनियन जैक उतारने के आरोप में अपने कॉलेज से निकाल दिया गया था।

बाद में सभी कलाकारों की शैलियां और रंग संयोजन भी अलग-अलग हो गए पर उनकी कला में विविधता और बहुलता बरकरार रही। यह कला की आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष तथा प्रगतिशील आवाज साबित हुई जिसने आजादी के बाद भारतीय कला को एक नई दिशा दी।

आजादी के बाद की चित्रकला पर बंगाल स्कूल का तो असर कम हुआ पर इस ग्रुप के चित्रकारों का प्रभाव बाद की पीढ़ी पर पड़ा।

इस ग्रुप के चित्रकारों ने रामायण पर चित्रों की शृंखला से लेकर लैंडस्केप, अमूर्तन, पोर्ट्रेट, न्यूड पेंटिंग, तंत्रकला आदि पर अपनी कूचियाँ चलाईं और उनमें से कुछ कट्टरपंथी ताकतों के निशाने पर आए। मकबूल फिदा हुसेन को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा यानी जिस बहुलता को उन कलाकारों ने बचाया वह आज अधिक खतरे में है।यह ग्रुप आज और प्रासंगिक हो उठा है।

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