— कुमार प्रशांत —
अब जब ‘भारत’ अमरीका से लौट आया है और ‘अमरीका’ में भारत सरकार द्वारा प्रायोजित ज्वार भाटे में बदल चुका है, हम प्रधानमंत्री मोदी की ऐतिहासिक अमरीका यात्रा का विश्लेषण करें, तो इसे राष्ट्रद्रोह नहीं माना जाना चाहिए।
2014 से आज तक के बीच प्रधानमंत्री कई बार अमरीका गए और हर बार कहा गया कि अमरीका पलक-पाँवड़े बिछाए जिस यात्रा का इंतजार कर रहा था, उसके साकार होने के बाद सारा अमरीका एक पाँव पर खड़ा तालियाँ बजा रहा है। यह भी कहा गया कि किसी दूसरे भारतीय प्रधानमंत्री का अमरीका ने कभी ऐसा इस्तकबाल नहीं किया था! इतनी यात्राओं और उनके इतने प्रचार के बाद भी यह तथ्य छुपाया नहीं जा सका कि 9 सालों में प्रधानमंत्री की यह पहली आधिकारिक अमरीका यात्रा थी जो बार-बार के कूटनीतिक दवाब के बाद, माँग-माँग कर आयोजित करवाई गई थी।
इस प्रायोजित यात्रा का एक सिरा 2024 के आसन्न आम चुनाव से जुड़ता है तो दूसरा सिरा प्रधानमंत्री की गिरती निजी छवि से। इसके अलावा इस यात्रा का कोई उद्देश्य नहीं था। यह पूर्णतः दिशाहीन यात्रा थी।
प्रयास, प्रचार और प्रायोजन की थिगली इस यात्रा के हर चरण पर चिपकी हुई थी। कुछ भी स्वाभाविक नहीं था। सब कुछ नकली, प्रायोजित व बैसाखी पर खड़ा था। प्रधानमंत्री की हर विदेश-यात्रा में वहाँ के प्रवासी भारतीयों का जिस तरह इस्तेमाल किया जाता है, वह भारत की और भारतीयों की छवि को कैसे व कितना कलंकित करता है, इसका आकलन कोई नहीं करता है क्योंकि सरकार द्वारा उपकृत एजेंसियों, तथाकथित मीडिया व रीढ़विहीन धनकुबेरों की जमात के अलावा कोई है नहीं जिसे कहीं सुनाया, दिखाया या बताया जाता हो। सब ओर सरकार प्रायोजित ऐसा शोर सुनाई व दिखाई देता है कि आप बिदक कर आँख व कान बंद कर लें।
70 से अधिक अमरीकी सांसदों ने प्रधानमंत्री के संसद संबोधन का लिखित बहिष्कार किया और अपने राष्ट्रपति से आग्रह किया कि ‘इस मेहमान’ की नंगा-झोरी करें। आगमन से विदाई तक हर अवसर पर सड़कों पर उतरकर लोगों ने, जिनमें भारतीय भी बड़ी संख्या में शामिल थे, उनका सार्वजनिक निषेध किया।
यह सब कुछ छुपाया तो गया, छिप नहीं सका, यह बात दीगर है। संसद में जो तालियाँ पिटवाई गईं वे सब उसी तरह प्रायोजित थीं जिस तरह भारतीय संसद में बजने वाली तालियाँ होती हैं। तालियों के पीछे छिपी विवशता व कृत्रिमता सुनाई भी देती थी, दिखाई भी देती थी। और वैसे भी संसद में बहुमत भेड़ों का ही होता है- फिर संसद भारत की हो या किसी दूसरे देश की। गांधी की याद कीजिए जिन्होंने संसद को ‘बाँझ व वेश्या’ जैसा तीखा नाम दिया था।
तालियों के पीछे का सच बराक ओबामा के बयान में प्रकट हुआ। अमरीका में सामान्यतः ऐसा होता नहीं है कि पूर्व राष्ट्रपति किसी विवादास्पद मसले से खुद को जोड़े। मोदी के ‘बराक’ ने यह किया तो बराक ओबामा की पीड़ा समझी जा सकती है। मोदी-ब्रिगेड ने उन्हें जब ‘बराक हुसैन ओबामा’ कहकर अपमानित करने की कोशिश तो उससे मोदी को कोई पीड़ा हुई कि नहीं, पता नहीं चला।
सबरीना सिद्दिकी ने प्रेसवार्ता के दौरान वह पूछा कि जिसके डर से डरे मोदी प्रेस से बात करने के बजाय किसी अक्षय-अरनब कुमारों से बात करते हैं। सबरीना ने अल्पसंख्यकों की बात ही नहीं की, नागरिक स्वातंत्र्य की बात भी की। इसके बाद प्रेस को भारतीय प्रधानमंत्री व अमरीकी राष्ट्रपति की जैसी मक्कारी झेलनी पड़ी, उसका वर्णन भी संभव नहीं है। वह अर्थहीन शब्दों का अनियंत्रित वमन था। फिर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के लोग जिस तरह बराक-सबरीना पर टूट पड़े उसने इस अनकही कहानी को ज्यादा ही बयां कर दिया।
यह बात बिल्कुल सही है कि अमरीका और भारत के बीच मैत्री व भरोसे के अच्छे संबंध हों तो संसार का दिल व दिमाग बदल सकता है। लेकिन सवाल है कि कौन-सा अमरीका और कौन-सा भारत? नहीं, आज के अमरीका व भारत नजदीक आकर भी वैसा असर पैदा नहीं कर सकते कि जिससे विश्व का मन-मिजाज बदले। अमरीका की वैश्विक राजनीति धन व धमकी के बल पर चलती आई है जिसका असर उसके समाज पर भी गहरा है। इस बल पर दोनों ने ऐसे-ऐसे अपराध किए हैं कि उन्हें किसी सभ्य बिरादरी में खड़े होने की जगह भी नहीं मिल सकती है। इसलिए स्वतंत्र भारत की विदेश-नीति की प्रारंभिक टेक रही कि भारतीय व एशियाई मामलों में अमरीका व यूरोप की कैसी भी पैठ बनने न दी जाए।
जवाहरलाल ने चीन के साथ रिश्तों की गाँठ खोलने की जैसी साहसपूर्ण कोशिश की थी, उसके पीछे भी और तटस्थ राष्ट्रों का तीसरा खेमा तैयार करने के पीछे भी यही टेक थी। जवाहरलाल की कमजोरी यह थी कि वे नीतियाँ तो बना लेते थे, उन पर टिक व डट नहीं पाते थे। फिर भी सारे धनकुबेर राष्ट्र जानते थे कि जवाहरलाल को धन व धमकी से न झुकाया जा सकता है, न साथ लिया जा सकता है। आज का भारत ऐसा नहीं है। वह धन और धमकी की ताकत के पीछे अंधा हुआ भाग रहा है। और इसलिए वह दोनों के आगे झुकता भी है, छिपता भी है। वह विकास को अरबों-अरब डॉलर के अर्थतंत्र से नापता है।
यह अकारण नहीं था कि प्रधानमंत्री के कुनबे में जो लोग अमरीका में थे वे अधिकांशतः धनपति थे, हिन्दुत्व के सफऱमैना थे। प्रधानमंत्री ने अमरीकी धनपतियों के साथ सबसे अधिक समय बिताया तथा जो समझौते-करार आदि हुए वे सब अधिकांशतः व्यापारिक थे।
ऐसा भारत अमरीका को भाता है क्योंकि अमरीका समेत यूरोप को आज किसी पाकिस्तान की सख्त जरूरत है। जो था पाकिस्तान उसे कब्रिस्तान में बदल देने के बाद अब उन्हें ‘नया पाकिस्तान’ चाहिए।
अमरीका देख व तौल रहा है कि यह जो ‘नया भारत’ बनाया जा रहा है, क्या यह उसकी जरूरत पूरी कर सकता है? अमरीका जानता है कि व्यापार में धन, धमकी, झाड़ पर चढ़ाना, यशोगान, फूल-फल, तालियाँ-भोज आदि सब जायज होते हैं यदि अंततः वे लाभ पहुँचाते हों। इसलिए अमरीका आज के भारत से कभी सामाजिक मूल्यों की, लोकतांत्रिक शील की, नागरिक स्वातंत्र्य की बात नहीं करता है। ओबामा ने भी राष्ट्रपति रहते कभी ऐसे सवालों की टेक नहीं रखी। व्यापारी जानता है कि ग्राहक से कब, कैसी बात करनी चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय जगत में अमरीका की साख गिरी है, गिरती जा रही है। धन पर उसका वैसा एकाधिकार अब नहीं रहा, धमकी वाली शैली की पोल जगह-जगह खुल रही है। इसलिए वह चाहता है एक ‘भारत’ जो बड़े अमरीका का छोटा भाई बनने को तैयार हो। आज का भारत उसके लिए तैयार बैठा है। मोदी-बाइडन जिसे रिश्तों की नई ऊँचाई कह रहे हैं, उसमें ऊँचाई का माद्दा है ही नहीं। यह तो सिर्फ ‘बड़ा अमरीका’ और ‘छोटा अमरीका’ बनने की बात है। यह वह राजनीतिक प्रहसन है जिसका खोखलापन जल्दी ही उभर आएगा। वह भारत हमारे अलावा किसी को क्यों चाहिए होगा कि जिसकी आर्थिक नैतिकता हो, जिसकी लोकतांत्रिक निष्ठा हो, जिसमें नागरिकता का निःशर्त सम्मान हो, जो अपनी संस्कृति की गहरी समझ ही न रखता हो बल्कि जो सांस्कृतिक समरसता को तत्परता से कबूल भी करता हो, जिसके पाँव अपनी सांस्कृतिक जमीन पर गहरे धँसे हों तथा जिसका सर मानवता की साझी विरासत के आसमान को छूता हो। ऐसा भारत सिर्फ हमें चाहिए और ऐसा भारत बनाने का माद्दा हममें होना चाहिए।
ऐसा भारत जब अमरीका से सम्यक रिश्ता बनाएगा तो उससे अमरीका समेत सारे विश्व का मन व मत प्रभावित होगा।