—सुनीता नारायण —
हिमालय की गोद में बसे जोशीमठ के धंसने की शुरुआत बताती है कि हमने भौगोलिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों की पारिस्थितिक विशेषताओं को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाने की क्षमता खो दी है। जोशीमठ शुरुआत भर है। भविष्य की तस्वीर भयावह है
हिमालय की ढलानों पर 1,874 मीटर की ऊंचाई पर बसे जोशीमठ शहर के धॅंसने की शुरुआत हो चुकी है। आशंका इस बात की है कि केवल एक यही शहर ही नहीं, बल्कि आसपास के दूसरे कई गांव या कस्बे भी धीरे-धीरे धरती में समा सकते हैं। लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया जा रहा है और सरकारें उन सुरक्षित जगहों की तलाश में जी-जान से जुटी हैं, जहां लोगों को फिलहाल अस्थायी तौर पर स्थानांतरित किया जा सके।
यह सब तब हो रहा है, जब पहाड़ी इलाके क्रूर शीतलहर की भयानक चपेट में हैं। निश्चित रूप से यह एक मानवीय त्रासदी है, लेकिन विडंबना यह है कि इस त्रासदी का कारण भी मनुष्य ही है। सच यह है कि हिमालय दुनिया की सबसे नवीनतम पर्वतमाला है। इसका अर्थ यह है कि इस श्रृंखला के ढलान अस्थिर हैं। ये भुरभुरी मिट्टी से निर्मित ढलानें हैं और भूस्खलन और अपक्षरण की दृष्टि से बेहद खतरनाक समझे जाते हैं।
यह बात भी गौरतलब है कि यह पूरा भूक्षेत्र भूकंप की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। उस पर जलवायु परिवर्तन जैसे कारक भी हैं जिनके कारण इस क्षेत्र में असमय और भारी वर्षा की आशंका हमेशा बनी रहती है। निष्कर्ष यह है कि यह बिल्कुल एक ‘भिन्न’ इलाका है। यह कछार मिट्टी पर बसा भारत का मैदानी इलाका नहीं है, यह भारतीय प्रायद्वीप का भूभाग भी नहीं, जहां कठोर पत्थर पाए जाते हैं, और न यह आल्पस के ढलान हैं जिनकी पर्वतमालाएं दुनिया में सबसे पुरानी हैं।
आप कह सकते हैं कि ये तो प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों को बताई जाने वाली बुनियादी बातें हैं और मैं आपको यह सब क्यों बता रही हूं। लेकिन मुझे यह बताना होगा, क्योंकि हम इस भूभाग की पारिस्थितिकी विशिष्टता को दिमाग में रखकर योजनाएं बनाने की अपनी काबिलियत को खो चुके हैं। विकास के नाम पर हमने अंधाधुंध रफ्तार में और सोचे-समझे बिना निर्माण का काम किया है।
इसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि इन इलाकों को सड़क, पानी, नालियों और आवासों जैसी बुनियादी सुविधाओं से दूर रहना चाहिए, बल्कि इसका अभिप्राय यह है कि योजनाओं को सुसंगति और उपयुक्तता की दृष्टि से देखे जाने की आवश्यकता है।
ये निर्माण किस रूप में होने चाहिए, कहां होने चाहिए और किस संख्या में होने चाहिए और इन निर्माणों का क्रियान्वयन सुनिश्चित ढंग से होना चाहिए। इस बारे में विस्तृत रूप से सोचे जाने की जरूरत है। यहां जलविद्युत परियोजनाओं के उदाहरण लिये जा सकते हैं।
इस बात की आशंका आरंभ से ही थी कि 520 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना जमीन के धॅंसने का एक कारण बन सकती है। लेकिन बाॅंध के इंजीनियरों ने इस आशंका को सिरे से खारिज कर दिया था।
2021 से लेकर आज तक इस क्षेत्र में कई बार बहुत तेज बाढ़ आईं और भूस्खलन हुए। इन हादसों में न केवल ऋषिगंगा पनबिजली परियोजना बह गई बल्कि करीब 200 लोगों को अपनी जानें भी गंवानी पड़ी। हर एक विनाश ने हमें यही आगाह किया कि सुरंगें, सड़कें और घर बनाने से पहले हम पहाड़ों के अस्तित्व का सम्मान करना सीखें।
वास्तविकता तो यह है कि इस इलाके में यह क्षमता प्राकृतिक तौर पर उपस्थित है कि वह अपनी महान नदियों की सहायता से स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन कर सके। प्रश्न यह है कि हमें कितनी संख्या में जलविद्युत इकाइयां बनानी चाहिए और बनाई जा चुकी परियोजनाओं से होने वाले नुकसान को हम कैसे कम कर सकते हैं?
इस विषय पर इस इलाके की भौगोलिक संवेदनशीलता के प्रति विशेषज्ञों का दृष्टिकोण दुराग्रहपूर्ण दीखता है। बल्कि यह कहना मुनासिब होगा कि वे प्रकृति पर प्रौद्योगिकी का वर्चस्व स्थापित करना और प्रकृति को नए तरीके से दोबारा सृजित करना चाहते हैं।
मैंने सबसे पहले 2013 में इस बात को अनुभव किया। मैं सरकार की एक उच्च-स्तरीय समिति की सदस्य थी और हमें इसी इलाके में (जहां यह हालिया आपदा आई है) बनाई जा रही इन परियोजनाओं के बारे में विमर्श करना था। विशेषज्ञ यहां 9,000 मेगावाट की क्षमता वाली कोई 70 परियोजनाओं के निर्माण की एक महत्त्वाकांक्षी योजना पर काम कर रहे थे।
पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्होंने यह दावा किया कि अपनी टेक्नोलॉजी के जरिए वे इन भुरभुरे ढलानों से होकर गुजरने वाली गंगा और उसकी सहायक नदियों की 80 प्रतिशत धाराओं को सुरंगों के जरिये मोड़ने और कंक्रीट से निर्मित संयंत्रों और टर्बाइन से बिजली के उत्पादन की क्षमता को विकसित कर सकते हैं।
उन्होंने समिति को यह भी बताया कि उन्होंने परियोजना की रूपरेखा कुछ इस तरह से बनाई है कि प्रतिकूल मौसम में इसका जल का बहाव केवल 10 प्रतिशत तक ही हो सकेगा। ऐसी स्थिति में एक के तत्काल बाद दूसरी परियोजना की रूपरेखा बनाने के बाद नदियां केवल एक नाले के रूप में बदलकर रह जाएंगी। उन विशेषज्ञों की दृष्टि में विकास का अर्थ यही था।
मैंने उन्हें इसका दूसरा विकल्प बताया था। मैंने कहा था कि जो परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं, उनमें बदलाव लाकर उन्हें दोबारा इस रूप में पुनर्निमित किया जाए, ताकि वे नदियों के बहाव का अनुकरण कर सकें। इसका परिणाम यह होता कि जब नदी में अधिक पानी होता, तब बिजली का उत्पादन भी अधिक होता और नदी का जलस्तर जब सूखकर क्षीण हो जाता, तब बिजली भी कम पैदा होती। इस स्थिति में नदी अपने सहज और प्राकृतिक रूप में बहती रहती और उसे योजना की अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार करने की आवश्यकता भी नहीं होती।
अधिकारियों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के प्रत्युत्तर में हमने उन्हें यह बताने की भी कोशिश की कि इस बदलाव से परियोजनाओं को प्राप्त होने वाले राजस्व में भी कोई कमी नहीं आएगी। बल्कि इसका सीधा अर्थ था कि तपोवन-विष्णुगढ़ जैसी अन्य दूसरी निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाएं रद्द हो जातीं। बेशक बांध-निर्माण का समर्थन करने वाले लोगों के गले यह बात नहीं उतरने वाली थी।
मैंने अपनी टिप्पणी में यह लिखा भी था और आज भी इसे पुनः दोहरा रही हूं कि अतिप्रतिष्ठित आईआईटी-रुड़की के इंजीनियरों ने आयोग को सही आंकड़ा प्रस्तुत नहीं किया था और सदस्यों को अंधेरे में रखा कि सबकुछ ठीकठाक है। जाहिर है कि उन्होंने मेरे दिए गए सुझावों को भी नकार दिया और विगत एक दशक में लगभग उन सभी 70 परियोजनाओं के निर्माण की दिशा में काम जारी रखा। विनाश हो या विनाश न हो, विकास के पैरोकारों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला नहीं था।
ऐसे में हमारे सामने फिलहाल जो समस्या है वह स्पष्ट संकेत करती है कि हम अभी भी उस विकास को सुनिश्चित करने में अक्षम हैं जो पारिस्थितिकी-अनुकूल और सामाजिक दृष्टि से समावेशी हो। आखिर ऐसा क्यों है कि इन परियोजनाओं की रूपरेखा तैयार करने वाले संस्थान इनके संबंध में तकनीकी परामर्श देने में असमर्थ हैं, जबकि इनमें कई संस्थान तो इसी इलाके में स्थित हैं?
क्या ऐसा इसलिए है कि उनका ‘विज्ञान’ इतना अहंकारी हो गया है वे ‘प्रकृति’ की मामूली गुत्थियों को नहीं समझ पा रहे हैं? या ऐसा इसलिए है कि नीति-निर्माण की प्रक्रिया इतनी हठ और पूर्वाग्रहों से भरी हो गई है कि वह अपनी निर्धारित परिधि और सादृश्यता से बाहर की चीजों को स्वीकार करने में अपनी तौहीन समझती है? नजरिया अगर नहीं बदला गया तो इस तरह के विनाश आगे भी होते रहेंगे। यह सच तो कम से कम हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए।
(डाउनटुअर्थ से साभार)