चमकौर का विलक्षण युद्ध और साहिबज़ादों की शहादत

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— डॉ परनीत जग्गी —

भारत को सोने की चिड़िया माना जाता था और अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण इसे एक आध्यात्मिक और धार्मिक देश मान कर विश्व द्वारा अनुसरण भी किया जाता था। परन्तु जाति और वर्ण-विभाजन, धार्मिक कट्टरता, छूआ-छूत, ऊंच-नीच आदि के कारण भारतीय समाज तहस-नहस हो गया। इसके साथ ही यहां के देशी, रियासती राजाओं की लूटमार, आपसी वैर-विरोध, आर्थिक असमान बंटवारा आदि ने जलती आग में जैसे घी डालने का काम किया। परिणाम यह हुआ कि देश अपने धर्म, गैरत, स्वाभिमान और सरहदों की रक्षा करने में असमर्थ हो गया। इस्लामी हमलों के दौर के चलते  देश ‘इस्लामी शक्ति’ का गुलाम हो गया। अपना धर्म, देश और सामाजिक ताना-बाना बचाने की जगह यहां के राजाओं व देश के लोगों ने गुलामी को ही कबूल कर लिया । 12वीं, 13वीं, 14वीं शताब्दी में पहले सूफी लहर और फिर भक्ति लहर ने लोगों को जगाने का प्रयत्न किया। इस लहर को पूरा बल और सर्वपक्षीय अगुवाई सिक्खों के पहले गुरु श्री गुरु नानकदेव जी के रूप में मिली।

गुरमति के अनुसार आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपनी ‘मैं’ मिटाने की आवश्यकता होती है। यह मार्ग एक महान शूरवीरता का मार्ग है। सिक्ख धर्म के प्रवर्तक श्री गुरु नानक देव जी ने सिक्खी के मार्ग पर चलने के लिए सिर भेंट करने की शर्त रखी। इस रास्ते पर चलते हुए दसम गुरु, श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने मार्च, 1699 ई. में खालसा पंथ की सर्जना की। खालसा एक आदर्श, संपूर्ण व स्वतंत्र मनुष्य है। गुरबाणी में इसको सचियार, गुरमुख, ज्ञानी, ब्रह्म-ज्ञानी, गुरसिक्ख और संत-सिपाही कहा गया है।

मुगल सल्तनत और पहाड़ी राजा मिलकर पहले श्री गुरु गोविद सिंह जी के साथ भंगाणी के युद्ध में टकराए तथा अन्य कई जंगों में भी गुरुजी के विरुद्ध एकजुट रहे। 1704 ई. में मुगल और पहाड़ी राजाओं की फौजों ने साझी कमान तले श्री आनंदपुर साहिब को घेरा डाल दिया। घेरा लंबा होने के कारण दुश्मन फौज द्वारा गुरुजी के साथ समझौता किया गया। समझौते की शर्त यह थी कि गुरुजी श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें, उनको बेरोक जाने दिया जाएगा। इसके बारे में लिखित कसमें भी गुरुजी को भेजी गईं। दीना कांगड़ से बादशाह औरंगज़ेब को गुरु जी द्वारा भेजे जफ़रनामे में किए गए ज़िक्र में इन तथ्यों की पुष्टि होती है। गुरुजी के किला खाली कर जाने पर दुश्मन ने सारी कसमें तोड़कर उनका पीछा किया और धर्महीनता, बेईमानी और वादाखिलाफी का नमूना सामने रखा। सरसा नदी के पास पहुंचते ही घमासान लड़ाई हुई, जिसके दौरान दोनों दलों का भारी जानी और माली नुकसान हुआ। इस घमासान युद्ध के दौरान गुरुजी का परिवार तीन हिस्सों में बँट गया। गुरुजी के दो छोटे साहिबज़ादे अपनी दादी जी, माता गुजरी जी के साथ अलग हो गए और माता सुंदरी जी और कुछ सिंह दूसरी तरफ चले गए।

दुनिया की जंगों-युद्धों के इतिहास में यह मात्र एक ही घटना हुई है, जब मर्द-ए-मैदान, श्री गुरु गोविंद सिंह जी के पास जहां जंग का साजो-सामान तीर, कृपाण, ढाल, बरछा, छवि आदि थे वहां गुरमति संगीत के साज सिरंदा, सितार आदि भी थे। 7 पौष के अमृतवेले दुश्मनों ने भारी हमला किया। दशम् पातशाह ने अपने बड़े सुपुत्र बाबा अजीत सिंह जी, भाई जीवन सिंह (जैता जी), भाई उदे सिंह को अन्य सिंहों सहित हमलावरों का मुकाबला करने का हुक्म दिया। दूसरी तरफ भाई दया सिंह और अन्य गुरसिक्खों को को “अम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु” के अनुसार आसा की वार का कीर्तन करने के लिए कहा। ऐसा कार्य केवल दशमेश पिता ही कर सकते  थे, जब ऐसे अति बिखड़े, खतरनाक हालात में और मैदान-ए-जंग में भी वह अपना ‘फर्ज़-ए-इलाही’ नहीं भूले। विश्व के इतिहास में यह एक विलक्षण एवं अद्वितीय घटना थी।

सरसा नदी में भारी बाढ़ और दुश्मनों के ज़ोरदार हमले में सैकड़ों बहादुर सिंहों सहित भाई जीवन सिंह (जैता जी) और भाई उदे सिंह शहीद हो गए परंतु फिर भी दुश्मन-सेना के दांत खट्टे कर दिए। जिस स्थान पर गुरु-परिवार बिखर गया उस स्थान पर गुरुद्वारा ‘परिवार विछोड़ा’ साहिब सुशोभित है जो इतिहास में इस दर्दनाक घटना की याद को संभाले हुए है।

उपरांत सरसा नदी पार करके गुरु जी रोपड़ के पास निहंग खान की गढ़ी (कोटला निहंग खान) में रुके और रात को आगे चल पड़े तो दुश्मनों की फौजों ने पीछा करना शुरू कर दिया। गुरुजी ने चमकौर की कच्ची गढ़ी में दाखिल होकर मोर्चाबंदी कर ली। गुरुजी के साथ बड़े साहिबज़ादे एवं पांच प्यारों सहित लगभग चालीस सिंह थे। दुश्मन की लाखों की फौज ने गढ़ी को घेरा डाल लिया। सारा दिन जंग होती रही। शाम तक गुरु जी के पास लगभग सारा गोली-सिक्का खत्म हो गया। अब सिंहों ने गढ़ी से बाहर आकर लड़ना आरंभ कर दिया। गुरुजी ने बारी-बारी बाबा अजीत सिंह जी और बाबा जुझार सिंह जी को पूरे अस्त्र-शस्त्र सजाकर मैदान-ए-जंग में भेजा। अंत बहादुर योद्धाओं वाले जौहर दिखाते हुए सिंहों सहित गुरुजी के दोनों बड़े साहिबजादे गुरुजी के सामने मैदान-ए-जंग में शहीद हो गए। गुरुजी के लिए सिंहों और सुपुत्रों के मध्य कोई अंतर नहीं था। गुरुजी ने दोनों साहिबजादों की शहादत पर चेहरे पर शिकन तक नहीं आने दी और अकाल पुरख का शुक्राना किया। लाखों की संख्या में शत्रु सेना मुठ्ठी भर सिंहों का हौसला कम करने की हिम्मत न कर सकी। श्री गुरु गोविंद सिंह जी की रणनीति कमाल की थी। दुश्मन फौज को चंद सिक्खों ने धूल चटा दी। यह अमृत की शक्ति थी कि खालसा फौज ने रणभूमि में कौशल दिखलाए।

गुरु जी की तरफ से मैदान-ए-जंग में जूझते हुए शहीदी प्राप्ति के लिए की गई तैयारी और रहते महत्त्वपूर्ण पंथक कार्यों की पूर्ति के मुख्य रखते हुए पांच सिंहों ने गुरु-रूप होकर गुरुजी को गढ़ी छोड़कर चले जाने का आदेश दिया। खालसे का हुक्म मानते हुए गुरु जी वहां से निकल गए। मुगल सेना के लिए यह करारी चपत थी, क्योंकि इतनी बड़ी सेना तथा सात महीने तक श्री आनंदपुर साहिब को घेरा डालने के बावजूद शत्रु-सेना न तो गुरुजी को पकड़ सकी और न ही उन्हें अपने अधीन कर सकी।

चमकौर की जंग दुनिया की सबसे असमान एवं अतुलनीय जंग थी। गुरुजी ने अपना सर्वस्व देश-धर्म हेतु न्यौछावर कर दिया और इतनी विकट परिस्थितियों में भी जो कहा उसे कर दिखाया :

चिड़ियों से मैं बाज तुड़ाऊं। गीदड़ों से मैं शेर बनाऊं।
सवा लाख से एक लड़ाऊं। तबै गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।

अल्लाह यार खां जोगी तो दुनिया के तीर्थ स्थानों से साहिबज़ादों के शहीदी स्थानों को धर्म यात्रा के लिए उच्चतम मानता है, क्योंकि ऐसी शहीदी दुनिया के इतिहास में पहले न कभी हुई और न कहीं भविष्य में कोई उम्मीद है :

बस एक हिंद में तीरथ है यात्रा के लिए।
कटाए बाप ने बच्चे जहां खुदा के लिए।। (गंजि-शहीदां, 117)

चमकौर साहिब की ऐतिहासिक जंग की याद में गुरुद्वारा कतलगढ़ साहिब, गुरुद्वारा कच्ची गढ़ी साहिब, गुरुद्वारा दमदमा साहिब, गुरुद्वारा ताड़ी साहिब, गुरुद्वारा रणजीतगढ़ साहिब सुशोभित हैं। इस महान पावन शहीदी स्थान पर प्रत्येक वर्ष सिक्ख संगत जोड़ मेले के रूप में एकत्र होकर उन महान शहीदों को श्रद्धा और सत्कार भेंट करती है।

आज ज़रूरत है ऐसी जंग और ऐसे महान योद्धाओं को याद करने की, जब मनुष्य चारों ओर से नफरत, घृणा और कुरीतियों से घिरा हुआ है। आज का हमलावर चाहे लाज़ो-लश्कर वाला घुड़सवार न हो, पर स्वाभिमान और धर्म की रक्षा का खतरा तो आज भी हर पल बना हुआ है।  संत और सिपाही की जो कल्पना गुरु साहिब ने की, आज भी वह उतनी ही सार्थक और प्रासंगिक प्रतीत होती है।  ज़रूरत है इन परिस्थितियों को अपने जीवन के नज़रिये में ढालने की। धर्म की परिभाषा केवल ग्रन्थ, शब्द या उपदेश मात्र तक ही सीमित नहीं परन्तु सही, सरल, निडर, निर्वैर जीवन जीने की कला को ही धर्म कहते हैं।

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