
— शंभुनाथ —
दिल्ली विश्व पुस्तक मेला में कुछ भी अजीबोगरीब नहीं है। मेरी भेंट कवि-लेखकों के अलावा बड़ी संख्या में नौजवान पाठकों से हुई जो मेरे लिए अभूतपूर्व था। मुझे उनके खुशहाल उत्सवी मूड ने आकर्षित किया। पुस्तक के अर्थ में पाठक का बराबर का हिस्सा है। मैं फिलहाल इसपर कुछ कहना चाहता हूँ कि पाठक की रुचि की विविधता का आजकल किस तरह बंध्याकरण किया जा रहा है और साहित्य की विविधता का ध्वंस हो रहा है!
यह सही है कि पुस्तक मेला में कई व्यक्ति परिवार और अपनी रुचियों के साथ आते हैं। लेकिन अब प्रकाशकों के बीच यह सर्वमान्य धारणा है कि पाठकों को उपयोगी और हल्की-फुल्की चीजें चाहिए। अब लोगों को गंभीर चीजों की जरूरत नहीं है, ज्ञान की जगह हुनर चाहिए या मनोरंजन चाहिए!
इन दिनों पढ़ने और जानने की स्वाभाविक मानव प्रवृत्ति पर सबसे अधिक उपयोगितावाद का दबाव है। इसलिए एक तरफ ई-माध्यम का आकर्षण बढ़ा है, दिल्ली पुस्तक मेला में ऊपर का एक पूरा तल ई-माध्यमों का है। संभव है आने वाले वर्षों में इसका काफी विस्तार हो।
दूसरी तरफ, ‘बिजनेस ऑफ होप’ का बोलबाला है। जिस किसी बड़े अंग्रेजी प्रकाशन के स्टाल पर जाएं, कैसे सफलता हासिल करें, इसपर बेस्टसेलर किताबों के पहाड़ हैं। अमुक-तमुक सेलेब्रिटी कैसे सफल हुए, इनकी जीवन कथाओं के समुद्र हैं। बेरोजगार-मानुष, इसी तरह आप भी सफल होइए! अब दुनिया दलित, स्त्री और काली आत्मकथाओं तक सीमित नहीं है!
दरअसल आर्थिक मंदी के वर्तमान दौर में लोगों की निराशाओं को एक बाजार बना दिया गया है, इतना निर्मम समय है।
इस ओर भी ध्यान गया कि साहित्यिक रुचि को सीमित करने के लिए कुछ शक्तियां किस तरह लगी हुई हैं। वे अपना काम अप्रत्यक्ष रूप से कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर उपन्यास के बाजार का विस्तार तरह-तरह से किया जा रहा है। इसका नजारा दिल्ली पुस्तक मेला में भी था।
दुनिया में एक समय गद्य का युग था, तर्क और लोकतंत्र के युग के साथ। कविताएं बनी रहीं, लेकिन धीरे-धीरे कविता ही नहीं निबंध, नाटक, आलोचना, कहानी सहित अन्य सभी गद्य विधाओं को सुनियोजित रूप से हाशिये पर भेज दिया गया। गद्य की व्यापक धारणा को सीमित कर दिया गया।
देखा जा सकता है कि उपन्यास को ही पिछले लगभग चार दशकों से केंद्रीय विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है। यह काम अंग्रेजी संसार से शुरू हुआ था। इसके अनुकरण में हिंदी और अन्य भाषाओं ने भी उपन्यास को ही विशेष रूप से गले लगाया है।
उपन्यास ने साहित्य का बाजार बड़ा किया। यह कई बार धार्मिक मिथकों और इतिहास का क्रीड़ांगण बना। उपन्यास बेस्टसेलर हुए, ऐसे उपन्यासों की हजारों-लाखों कापियां बिकने लगीं। कुछ भी चलने के लिए बिकने का कौशल होना चाहिए। अंग्रेजी में लिखे भारतीय उपन्यासों ने पश्चिम में इसी काल में अपना डंका बजाया है।
इधर जो भी लाखों-लाख रुपयों के बड़े पुरस्कार बने हैं, सभी उपन्यास के लिए बने हैं। कविता, निबंध, नाटक, आलोचना, कहानी को ऊर्जस्वित करने वाले लाखों-लाख के पुरस्कार नहीं हैं, क्योंकि ये बाजार की वस्तु नहीं हो सके हैं। लिटरेरी फेस्टिवल में उपन्यासों के लोकप्रियतावाद के लिए कंट्रोवर्सी खड़े किए गए। बिकने के लिए कंट्रोवर्सियल होना जरूरी है, कुछ ऊटपटांग बोलना जरूरी है।
उपन्यास साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है, इसका बहुत अधिक महत्त्व है। लेकिन प्रकाशकों की अंतरराष्ट्रीय दुनिया ने इसे जिस व्यापारिक चतुराई से केंद्रीय विधा की तरह प्रोजेक्ट किया है और इसके लेखकों को उछाला है, यह पाठकों की रुचि और सामान्य आलोचनात्मक सोच को सीमित करने का काम है। इस घटना ने साहित्यिक विविधता को कुछ उसी तरह खतरे में डाला है, जैसे भाषाई और जैव विविधता खतरे में है।
इस मामले ने मनोरंजन को साहित्य का केंद्रीय मूल्य बना दिया है। इसके अलावा, उपन्यासों की अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक दुनिया ने यथार्थबोध को स्थानीयता और सामुदायिकता-केंद्रिक बना दिया। इस दुनिया में खंड-खंड-महाखंड की छवियां हैं, सांस्कृतिक इंटरेक्शन तथा बुद्धिपरक समावेशिकता का अभाव है।
पूरे दिल्ली पुस्तक मेला में सफलता के किस्से और मुख्यतः उपन्यास ही बेस्टसेलर हैं। फिर भी हिंदी बौद्धिकता की अपनी लघु दुनिया में ही सही, कवि-लेखक आपस में मिलजुल रहे हैं। अपनी छोटी-छोटी खुशियों को वे क्यों छोड़ दें! वे लोकार्पण का आनंद ले रहे हैं। उनके चेहरों पर आभा है, विश्वास है और अपनी दूरियों को लेकर कभी झेंप और कभी चिंता है।
दिल्ली के इस पोस्ट-कोरोना मिलन में बहुत कुछ के बचे होने का विस्मय भी है- पुस्तकों के बचे होने का भी!
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