1. हूँ तो मैं एक अतिथि ही
आखिर हूँ तो मैं एक अतिथि ही
फिर क्यों मेरा-मेरा करता रहता हूँ
ना कुछ लेकर आया था यहाँ पर
ना ही कुछ लेकर जा पाऊँगा मैं
मोह-माया में लिप्त रहता अक्सर
विशुद्ध मोती न पहचान पाता हूँ
विडम्बना इससे बड़ी क्या होगी देखो
खरे से खोटा न निकाल पाया हूँ मैं
जिस आँगन ने पाला-पोसा मुझे
उसके आलिंगन में बैठ, बेच आया हूँ मैं
बहुता-बहुता के चक्रव्यूह में फँस
सादी खुशियाँ कहीं दूर छोड़ आया हूँ मैं
जैसा पाया था जहान, न वैसा रखा उसे
स्वार्थपरायण में विलिप्त बढ़ता रहा
आने वाली नस्लों का नहीं
खुद के भविष्य का भी न सोचा मैंने
अब जो वापिस जाना चाहूँ भी मैं
बाधाओं का भण्डार राह रोके खड़ा है
क्यों न समय रहते कभी सोचा मैंने
अस्तित्व मेरा केवल अतिथि सा है
स्थायित्व क्यों आज़माने चला था मैं
2. नारी का जीवन
जीवन मेरा नदी सा है
बहते रहना दस्तूर सा है
उदगम से मुहाना तक मेरा
सफर एक उम्र का है
बाबुल के घर से चली
दर नए में बसेरा है
गाँव जो पीछे छूट गया
अब कहाँ वह मेरा है
नाम मिला जो नई जगह
पहले कभी न मेरा था
नामों की अदला-बदली में
नियंत्रण कोई न मेरा है
बहाव के साथ बहना मेरा
हित में सभी के है
भटका दी गई मैं जो
आपदा से कम न है
समय संग बदल रही हूँ
बदलना मानो नसीब सा है
प्रार्थना बस इतनी सी है
बाधित कर नष्ट न करो राह जो मेरा है
3. प्रतिकूल समय में लुप्त स्वयं
कई बार वक़्त कुछ ऐसा बन आता है
आदमी खुद को खुद से जुदा पाता है
खोया हुआ हालात की आँधियों में
तट निकट होते हुए भी धुॅंधला जाता है
स्थिति से अवगत, बेबस खुद को पाता है
पैरों के नीचे की ज़मीन में धॅंसा जाता है
सहारा भले ही तिनके से कहीं ज़्यादा हो
अपने हाथों को अपने हाथों में बॅंधा पाता है
खिड़की भले खुली हो, कमरे में घुटन पाता है
देहलीज़ भले ही नीची हो, लाॅंघ न पाता है
अंदरूनी सुरंगों के जंजाल में खोया जाता है
चक्षु में ज्योति होते हुए भी, अँधेरा भाता है
अपनों के बीच रहते भी खुद को तन्हा पाता है
भीतर से चिंघाड़ता, आवाज़ को खोया पाता है
सशक्त होते हुए भी, खुद को खोखला पाता है
निरंतर उमड़ते खयालों के जाल में जकड़ा जाता है
क्यों दुविधाओं के भवंडर में उलझ जाता है
चंचल मन जाने क्यों यह समझ न पाता है
प्रत्येक पौधा अंततः ख़ाक में मिल जाता है
क्यों सत्य अस्वीकृत कर मोह में फॅंस जाता है
कई बार वक़्त कुछ ऐसा बन आता है
आदमी खुद को खुद से जुदा पाता है
खोया हुआ हालात की आँधियों में
तट निकट होते हुए भी धुॅंधला जाता है

4. जंगलराज – कब तक?
कारोबार-ए-दहशत में कहाँ खुश रहता है कोई
खौफ आँखों में कहीं, तो क्रूरता बसती है कहीं
इन वहशत के नुमायंदों से कहीं पूछे तो कोई
पीते हैं वह दूध जो, उसका रंग लाल तो नहीं
करीबी रिश्तों से उनके जो मारा जाता है कोई
तपिश खून की रगों में ज़्यादा बढ़ती तो नहीं
हर ओर विद्रोही हाहाकार जब मचाता है कोई
ज़मीर की धीमी आवाज़ सुनाई पड़ती है कभी
बंदूकों के बल पर जो दबंग कहलाता है कोई
नाक ऊँची करने पर निगाहें झुकतीं तो नहीं
कमज़ोरों को एकत्रित होते जो देखता है कोई
भय का भाव उनको कहीं महसूस होता तो नहीं
विरोध की उमड़ती ऑंधी कहाँ रोक पाया है कोई
यलगार जो पीड़ित अवाम की हो, दबती वो नहीं
मासूमों की लाशों पे हुकूमतें कहाँ टिकी हैं कोई
ऐसे हाकिमों के वारिसों को मिलती है अक्सर
छे फुट नीचे ज़मीं
छे फुट नीचे ज़मीं
5. हमारा मार्गदर्शक
आकाश के विस्तार के
भव्य रंगमंच में,
सूर्य, चंद्रमा और तारे करते हैं,
अपने ब्रह्मांडीय नृत्य का नेतृत्व।
निभा रहा है भूमिका प्रत्येक
हमारी पृथ्वी की खुशहाली के लिए ,
कभी मार्गदर्शन करते हुए,
कभी आगोश में लेते हुए।
सूर्य, पितातुल्य समान साहसी है,
उग्र किरणों से गर्म होता और ढलता है।
हम पर कड़ी, लेकिन परवाह भरी रखता है
व विशाल आकाश से प्रकाश बिखेरता है।
खुद भीषण आग में जलता है, किन्तु,
जीवन के ज्वलंत प्रतिफल का अनुस्मारक है।
तो फिर कभी अपने बचपन को बाहर निकाल,
बादलों को आड़ बना, वह लुकाछिपी खेलता है।
फिर भूमि की तपन को शांत करने के लिए
रात में वह चाँद को आगे करता है।
शांत चाँद अपनी सौम्य चमक,
और उज्ज्वल में, हमें आग़ोश में लेता है।
साथ ही, चमकते तारे हमारी नींद में
सपनों का ताना-बाना सिलते हैं।
जीवन को सुचारू रखने के लिए,
आशा की कहानियाँ फुसफुसाते हैं।
कहीं लम्बी न लगने लगे घनी रात,
तो अँधेरे की पकड़ तोड़ते हुए,
नित दिन सूर्य हमें नई कहानियाँ,
व नए अवसरों का उपहार देता है।
अंधकार-प्रकाश के चक्रों से गुज़ारते,
इस ब्रह्मांडीय स्वर-समता में,
पाते हैं हम अपना स्थान,
आलिंगित, सूर्य की शाश्वत कृपा से।
यह सूर्य ही है जो सिखलाता है कि
हर अनमोल क्षण को संजोना सीखें,
और समय अनुसार, खुद के भीतर
अपने सूर्य का निर्माण करना सीखें।
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