— शिवानंद तिवारी —
सरकार के खिलाफ निकलने वाले हर जुलूस और प्रदर्शन का लक्ष्य होता है कि किसी प्रकार जुलूस पर लाठीचार्ज हो जाए। लाठीचार्ज का होना ही कार्यक्रम की सफलता मानी जाती है। कई जुलूसों में भाग लिया है। चार नवंबर 74 को जेपी के जुलूस पर लाठी चलते खुद देखा है। उस कार्यक्रम में जेपी पर लाठी उठी थी। जयप्रकाश नारायण पर उठी लाठी की तस्वीर मशहूर फोटोग्राफ़र रघु राय ने ली थी। दुनिया भर में वह तस्वीर छपी थी।
रेडियो स्टेशन के गेट पर धरना पर लाठी चार्ज भी देखा है। उस लाठीचार्ज में शरद यादव का सर फटा था। लालू, नीतीश के साथ मैं भी उस कार्यक्रम में शामिल था। 83 में जगन्नाथ मिश्र जी की सरकार थी। वह सरकार प्रेस की आजादी को समाप्त करने का कानून बनाने के लिए विधानसभा में एक बिल ला रही थी। उस बिल के विरोध में कई संगठनों ने संयुक्त विरोध का कार्यक्रम बनाया था। जैसा कि होता है कतार में शामिल आगे आगे चल रहे लोग पुलिस से भिड़ते हैं। पुलिस के घेरे को तोड़ने के लिए जोर लगाते हैं। उसमें से कहीं से ढेला पत्थर चलने लगता है। उसके बाद पुलिस लाठी चार्ज करती है। पुलिस दौड़ा दौड़ा कर पीटना शुरू करती है। उत्पाती तो सबसे पहले पलायन कर जाते हैं। पिटने वाले अधिकांश निर्दोष होते हैं।
मुझे याद है। लाठीचार्ज के बाद भगदड़ होने लगी तो नीतीश, कंचन और मैं डॉक्टर ईसा के गेट के पास खड़े हो गए। उस समय पटना के सीनियर एसपी रामचंद्र खान हुआ करते थे। बहुत कड़क अफसर माने जाते थे। उसी समय हम लोगों की नजर कबूतरखाना के सामने माइक लगे एक टेंपो पर पड़ी। पुलिस टेंपो में सवार लोगों को लाठी के हुरा से मार रही थी। रामचंद्र खान जी वहीं खड़े थे। उसके बाद नीतीश और हमलोग टेंपो की ओर बढ़े। वहाँ जो कुछ हो रहा था उसका सीनियर एसपी से मजबूती से विरोध किया। हमलोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। टेंपो पर विजय कृष्ण था। उसको चोट लगी थी। उसको थाना से अस्पताल भेज दिया गया। हमलोग गर्दनीबाग थाना में बैठाये गये।
इस प्रकरण को विस्तार से सुनाने की वजह यह है कि आमतौर पर राजनीतिक कार्यक्रमों में पुलिस लोगों को पकड़ती है। शाम तक बैठाने के बाद छोड़ देती है। इससे आगे की बात हुई तो अधिकांश मामले में गिरफ्तार लोगों को जमानत पर छोड़ दिया जाता है। अगर जेल गए तो अगले दिन से जमानत की कोशिश शुरू हो जाती है। लेकिन जेल में नीतीश और हमलोगों ने सामूहिक रूप से तय किया कि हम लोग जमानत नहीं कराएंगे। जहाँ तक याद है डेढ़ महीना हमलोग जेल में रहे। उस साल का दशहरा हमारा जेल में गुजरा था।
लेकिन आरा के एक साथी ने कुछ ऐसा कर दिया कि जिसकी वजह से माहौल विषाक्त हो गया। तब तय हुआ कि जमानत कराई जाए।
कल भाजपा के जुलूस के साथ भी वही हुआ जो अब तक होता आया हैहै। सरकार के खिलाफ होने वाले सभी प्रतिरोध का केंद्र डाकबंगला चौराहा रहा है। जैसे जुलूस वहाँ पहुँचता है वहाँ का माहौल बदल जाता है। वीडियो वाले पत्रकार तो माहौल को और उत्तेजक बना देते हैं। लाठीचार्ज होता है। लाठी चलती है। चोट लगती है। सर भी फूटता है। पुलिसवाले भी तो इंसान हैं। राजनीतिक कार्यक्रमों को किस तरह सँभालना चाहिए इसकी कोई विशेष ट्रेनिंग तो उनको मिलती नहीं।
ऐसा सभी जुलूसों में होता है। पुलिस से धक्का-मुक्की के बाद कहीं से ढेला पत्थर चलने लगता है। लेकिन भाजपा ने कल एक बहुत चिंताजनक शुरुआत की है। मिर्च का पाउडर पुलिसवालों की आँखों में झोंका गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआथा। यह गंदी शुरुआत कल को तेजाब फेंकने तक पहुँच जा सकती है !
इसलिए भाजपा के लोग कल की घटना का जितना विरोध करना है करें लेकिन दो चार दिन बीतने के बाद मामला जब ठंडा हो जाए उनको अंदरूनी तहकीकात कर मिर्च पाउडर फेंकने वाली जमात का पता लगाना चाहिए। उनके विरुद्ध कार्रवाई करनी चाहिए। सार्वजनिक रूप से कार्रवाई करने में संकोच हो तो अंदरूनी ही हो। हालाँकि अगर इस घटना की सार्वजनिक जाँच कराने का साहस भाजपा दिखाती तो उसको इसका लाभ मिलता। लेकिन भाजपा से मेरी ऐसी अपेक्षा पर लोग शायद हँसेंगे। भाजपा तो ऐसी पार्टी है जिसके नेता सर में झूठी पट्टी लगाकर विधानसभा में दावा करते हैं कि मेरा सर तोड़ दिया गया है। और जब पोल खुलने का डर होता है तो पलायन कर जाते हैं। अगर मेरी बात पर यकीन नहीं हो तो सुशील मोदी से पूछ लीजिए।
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