— केशव शरण —
उज्ज्वल विचार काले ख़याल
देहधारी गाँधी
आज़ाद थे
ग़ुलाम बनाने वाली सत्ताओं में ताक़त नहीं थी
कि वे उन्हें
अपने अधीन कर लेतीं
देहधारी गाँधी
आज़ादी के लिए लड़े
और हुए ग़ुलाम बनाने वाली सत्ताओं से बड़े
आज़ाद देहधारी गाँधी
मानवता के उज्ज्वल विचारों को
फैलाते हुए मारे गए
मानवता के उज्ज्वल विचार उनके
जो फैल चुके हैं
जगत में
विदेह गाँधी की ताक़त हैं
देहधारी गाँधी से भी ज़्यादा,
काले ख़याल
उन्हें मिटाने पर हैं आमादा
जिस भूमि पर
गाँधी के मानस फूल खिलते हैं
जिस भवन में
गाँधी के विचार-दीप जलते हैं
उन पर क़ब्ज़े का लेकर इरादा
वे अभी आए हैं ताक़त में
और हमेशा-हमेशा के लिए
टिके रहना चाहते हैं भारत में
हक़ीक़त में वे नहीं जानते हैं
इससे ज़लज़ले आएँगे
और ज्वालामुखी फूटेंगे
और उन्नीस सौ सैंतालीस
फिर अपने को दोहराएगा
अगर काले ख़यालों को समझ में नहीं आएगा !
— श्रवण गर्ग —
रोकना होगा इस आदमी को !
समझाया जाना चाहिए इसे
पागल हो गया है यह आदमी
बाँटने बैठ गया है सुर्ख़ गुलाब
खून से सने मैदानों में !
खोलने लगा है
दुकानें मोहब्बत की
नफ़रत के बाज़ारों में
देखा है पहले कहीं-कभी !
पागलपन इस तरह का?
हो गया है ज़रूरी अब
बचाना तानाशाही को
इस आदमी की गिरफ़्त से
कर देगा तबाह यह
एकसाथ सारी चीज़ें —
बारूदों के गोदाम, खूनी तलवारें
आस्तीनों में छुपे साँप !
रोकना चाहिए इस आदमी को
और आगे बढ़ने से !
क्या करेंगी अदालतें?
ये ही बचा लेगा जब
आईन और आईना मुल्क का !
ज़मीर अवाम का !
हो गया है ज़रूरी अब
बांध देना इसे मज़बूती से
बाँट देगा वरना दोनों हाथ भी
लगाने पौधे इंसाफ़ के,
बोने बीज जम्हूरियत के !
कौन लगेगा क़तारों में
घर ढोने के लिए
मुफ़्त का अहसान !
हिल जाएँगी यूँ तो
सल्तनतें सारी, हर जगह
टिकी हुई हैं जो
सूई की नोकों पर !
हो गया है यह आदमी
बहुत ख़तरनाक
सिखा रहा है जनता को
निकलना सूई के छेद से !
रोकना ज़रूरी है इसे
रोक नहीं पाएगी
अदालत दुनिया की कोई !
— लखन चौधरी —
बदलाव
ज़माने के साथ चलना,
स्वयं को बदलना,
कदमताल करते रहना,
असल में बदलाव तो है,
लेकिन यह महज,
बाहरी बदलाव होता है।
बदलाव को परिवर्तन,
विकास, सुधार, नवाचार,
नवप्रवर्तन के पैमाने से
मापा जा सकता है।
आंकड़ों, तालिकाओं, चित्रों,
विश्लेषणों से
प्रस्तुत और प्रदर्शित
किया जा सकता है,
लेकिन,
यह भौतिक बदलाव है।
बदलाव और परिवर्तन को,
प्रगति के मानदण्ड पर,
प्रतिस्थापित, परिभाषित
किया जा सकता है,
लेकिन,
यह आभासी मात्र है।
बदलाव की प्रगति को
अखबारों, रेडियो, टीवी
और मीडिया माध्यमों में
विज्ञापन देकर
प्रचारित किया जा सकता है,
लेकिन,
यह प्रायोजित मात्र है।
मूल्यों, मान्यताओं, सिद्धांतों
के बदलाव से व्यक्तित्व
बदलता तो है,
पर चेतना, संवेग और संवेदना
नहीं बदलती है।
दरअसल में असल बदलाव,
सोच का होता है।
दृष्टि और दृष्टिकोण का है।
मन का बदलाव,
आंतरिक बदलाव,
असली बदलाव होता है।
बाहरी, आभासित,
परिभाषित बदलाव से
चेतनाएं नहीं बदलती हैं।
संवेदनाएं नहीं बदलती हैं।
दृष्टिकोण नहीं बदलता है।
याद रहे!
भावनाएं नहीं,
चेतनाएं, संवेदनाएं,
दृष्टिकोण में बदलाव ही
परिवर्तन के लिए,
इंसानियत गढ़ते हैं।
— केयूर पाठक —
बचपन
घर था
आंगन था
आकाश था
और भी तो कुछ
हमारे आसपास था!
धूप थी
छांव थी
फूल थे
शूल थे
और उड़ते धूल थे
जीवन कई रंगों में
हमारे आसपास था!
किस्से थे
कहानियां थीं
और भागती रेलगाड़ियां थीं!
बाग थे
बगीचे थे
आंधियां थीं और
गिरते उनसे, टिकोरे भी थे!
गाय थी
बैल थे
कुत्ते थे
बिल्लियां थीं
छिपकली और
फुदकती गिलहरियां थीं
तीतर थे
तितलियां थीं
इनके बीच
अपनी भी, अठखेलियाँ थीं!
थपकी थी
झपकी थी
नींद थी
लोरियाँ थीं
जीवन जैसे
बरगद की डालियां थीं!
घर था
आंगन था
आकाश था
और भी तो कुछ
हमारे आसपास था!!!