— संजय गौतम —
समाजशास्त्री हिलाल अहमद की नई किताब है अल्लाह नाम की सियासत। हिलाल अहमद विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उन्होंने भारत में इस्लाम और सियासत पर गहन शोध किया है। इसके पूर्व उनकी इन विषयों पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘मुस्लिम पोलिटिकल डिस्कोर्स इन पोस्टकोलोनियल इंडिया : मोनुमेंट्स मेमोरी कंटेस्टेशन’ एवं ‘सियासी मुस्लिम : स्टोरी ऑफ पोलिटिकल इस्लाम्स इन इंडिया’ प्रमुख किताबें हैं। हिंदी में आई यह किताब हिंदुस्तान में मुस्लिम राजनीति को विस्तार से समझने के लिए ठोस आंकड़ों के साथ विश्लेषण प्रस्तुत करती है। एकसाथ शोध एवं वैचारिक विश्लेषण की पद्धति इसे अध्येताओं और भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता के तत्व को समझने की इच्छा रखने वालों के लिए रोचक एवं उपयोगी बनाती है।
हिलाल अहमद ने ‘मुस्लिम समाज का आत्मसंघर्ष : मैं नमाज क्यों पढ़ता हूं?’ शीर्षक से लिखी गई लंबी भूमिका में अपने समुदाय के विकास एवं परिवर्तन को दर्ज किया है। कुछ घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने इस्लाम, गांधी और मार्क्स के बारे में भी लिखा है। अपने जीवनानुभव और अध्ययन से वह जिस मुकाम पर पहुंचते हैं, वहां एक धर्म के रूप में इस्लाम को जीने और अन्य विचारधाराओं में कोई अंतर्विरोध नहीं रह जाता है। सर्वशक्तिमान अल्लाह/ईश्वर में उनका आध्यात्मिक विश्वास है, सर्वधर्म समभाव के गांधीवादी सिद्धांत में उनकी आस्था है और समतामूलक समाज के निर्माण के प्रति उनकी कटिबद्धता है, यानी वे एकसाथ इस्लाम, गांधी और मार्क्स को साधने के पक्षधर हैं। इस तरह वे परंपरागत रूप से सेकुलर शब्द की सीमाओं को रेखांकित करते हैं। अपने इसी मानस के साथ उन्होंने आगे के अध्यायों में तथ्य और विश्लेषण प्रस्तुत किए हैं।
पुस्तक के आलेख चार खंडों में विभाजित हैं। पहले खंड में ‘इस्लाम या भारतीय इस्लाम? विवाद और मुद्दे’ शीर्षक के अंतर्गत इस्लाम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, इस्लाम की सियासत, पसमांदा मुसलमान इत्यादि विषयों पर विचार किया गया है। दूसरे खंड में भारतीय इस्लाम की कुछ प्रमुख शख्सियतों- सैयद अहमद खाँ, मुहम्मद अली जिन्ना, मौलाना अबुल कलाम आजाद, अबू अला मौदूदी और मुहम्मद इक़बाल के जीवन और चिंतन की झलक प्रस्तुत है। तीसरे खंड में भारतीय इस्लाम को विभिन्न नजरिये से देखा गया है। ‘गांधी के मुसलमान, हिंदुत्व के मुसलमान, सैयद शहाबुद्दीन के मुस्लिम इंडियंस, असगर अली इंजीनियर के सर्वहारा मुसलमान, मुशीरुल हसन के सेकुलर मुसलमान जैसे उपशीर्षकों के अंतर्गत हम मुसलमानों के प्रति अलग-अलग नजरिये को जान-समझ पाते हैं। चौथे खंड में मुस्लिम सियासत, चुनावी राजनीति के परिप्रेक्ष्य में वैचारिक नजरिये को प्रस्तुत किया गया है। इस खंड में आंकड़ों व तथ्यों की दृष्टि से वर्तमान मुस्लिम राजनीति, सांप्रदायिकता और मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर विस्तार से चर्चा की गई है। गुजरात एवं मुजफ्फरनगर दंगे के परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम सियासत में आए बदलाव को तो देखा ही गया है, 2019 के चुनाव के बाद मुस्लिम वोटों की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता पर भी विचार गया है।
किताब को समग्रता में और विस्तार से देखा जाए तो मुस्लिम जिंदगी का बड़ा परिप्रक्ष्य अनेक आयामों के साथ उभरता है, मुसलमानों के लिए इस किताब के माध्यम से अपने को जानने की गुंजाइश है तो अन्य लोगों के लिए बहुत से भ्रमों-मिथकों से दूर होने की संभावना। लेखक ने पूरे देश के मुसलामानों को एक इकाई न मानकर क्षेत्रवार भाषावार उनकी विभिन्न अस्मिताओं, पहचानों एवं रुझानों को उजागर किया है। सामान्यत: हमारी राजनीति पूरे देश के मुसलमानों को एक इकाई मानकर उन पर अपना नजरिया तय करती है और सतही टिप्पणियां करती रहती है।
‘आप कौन हैं? सच्चे भारतीय या कट्टर मुसलमान’ शीर्षक के तहत लेखक ने मुसलमानों पर उठाए जाने वाले प्रश्नों और सतही टिप्पणियों के वैचारिक आधार को विस्तार से बताया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों द्वारा समय-समय पर व्यक्त किए गए विचारों के माध्यम से उनकी मुस्लिम दृष्टि को समझा जा सकता है। यह दृष्टि हमेशा ही मुसलमानों को कसौटी पर कसने का हो हल्ला मचाती है और उनसे राष्ट्रभक्ति का प्रमाण मांगती है। कहने को तो ये हिंदुस्तान में रहने वाले हर व्यक्ति को ‘हिंदू’ मानते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से भेदभाव जारी रखते हैं और आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाली कारगुजारियां करते रहते हैं। इनके द्वारा उठाए गए सतही सवालों का जवाब सीएसडीएस-लोकनीति के 2008 में किए गए एक सर्वे से मिल जाता है।
सर्वे में देश भर के प्रतिभागियों से दो सवाल सीधे-सीधे पूछे गए। क्या आपको भारतीय होने पर गर्व है? क्या आपको अपनी प्रांतीय/राज्यस्तर की पहचान पर गर्व है? इन सवालों के माध्यम से जो आंकड़े प्राप्त हुए उसके अनुसार 88 प्रतिशत मुसलमान यह मानते हैं कि उन्हें भारतीय होने पर बेहद गर्व है, केवल एक प्रतिशत लोगों का जवाब नकारात्मक रहता है और 9 प्रतिशत की इस विषय पर कोई राय नहीं होती है। आंकड़ों के अनुसार 82 प्रतिशत मुसलमान अपनी राज्यस्तर की पहचान पर गर्व करते हैं। प्राय: यही आंकड़े अन्य समुदायों के मामले में भी हैं। “इन आंकड़ों से कम से कम यह बात तो स्पष्ट है कि मुसलमानों की राय और देश की आम राय में कोई फर्क नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुसलमान भी आम भारतीयों की तरह सोचता है। ये आंकड़े संघ, जनसंघ, भाजपा, गोलवलकर से भागवत तक के भारतीय गर्व को लेकर व्यक्त चिंताओं को निराधार साबित करते हैं।” (पृ.262)
लोकसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा सातवीं और आठवीं(1980) लोकसभा में था यानी 49 और 46, जबकि 2019 में मात्र 26 संसद सदस्य हैं। “इन तथ्यों को एक अलग तरीके से देखें तो एक जटिल परंतु समझ में आने वाली तस्वीर निकलती है। पहली बात तो यह कि मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में कमी, विशेषकर चुनावी राजनीति के संदर्भ में, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के समन्वयकारी चरित्र पर सवाल उठाती है, लेकिन इसके कारणों को सीधे ‘मुस्लिम विरोधी’ समझ लेना गलत होगा। राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दे, देश के विकास की आम आदमी तक पैठ की राजनीतिक संस्कृति ने कुछ ऐसी परिस्थितियां पैदा कीं जिसकी वजह से राजनीतिक और आर्थिक संसाधनों का बंटवारा समान रूप से नहीं हो सका। इसी वजह से केंद्रीयकरण की प्रवृत्तियों ने जन्म लिया, जिससे आर्थिक संसाधन और राजनीतिक शक्ति कुछ समूहों के हाथ में सिमटकर रह गयी और पिछड़े समूह, दलित, महिलाएं और अल्पसंख्यक समुदाय, बहुआयामी शोषण के शिकार होते चले गए। इस प्रक्रिया ने मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को भी प्रभावित किया।” (पृ.238) इस तरह प्रचलित धारणाओं से अलग लेखक ने आंकड़ों और स्थितियों का गहन विश्लेषण किया है।
समाज में एक सतही भ्रम यह भी है कि मुसलमान एक वोट बैंक के रूप में एक ही जगह वोट देते हैं और भाजपा को तो एकदम नहीं देते, लेकिन पृ.320 और 335 पर उपलब्ध तालिकाओं से यह स्पष्ट है कि मुस्लिम अलग-अलग पार्टियों का चयन करते हैं और पांच से 10 प्रतिशत मुस्लिम भाजपा को भी वोट करते हैं।
इस तरह इस किताब ने अनेक धारणाओं-भ्रांतियों को दूर किया है। मुजफ्फरनगर दंगों से जुड़े अध्ययन में यह साफ हुआ है कि सिर्फ विधानसभाओं में मुस्लिम प्रतिनिधित्व से दंगे नहीं रोके जा सकते हैं।
भूमिका में हिलाल अहमद लिखते हैं, “मुसलमान, मुसलमान होते हैं और अगर वह पढ़ लिखकर भी अपनी निजी जिंदगी में इस्लाम के उसूलों के मुताबिक जिंदगी बसर करना चाहें, तो उसमें क्या बुराई है। वैसे भी हिंदुस्तानी सेकुलर विमर्श का दायरा इतना बड़ा है कि एक सच्चा, पक्का मुसलमान बेहद आसानी से सेकुलर हो सकता है। तब शक किस बात का?” इस कथन की पाद टिप्पणी में लेखक ने कहा है ‘हालांकि ये बात हिंदू सेकुलर पर लागू नहीं होती। उसके लिए सेकुलर होने के लिए अधार्मिक होना लाजिमी है।’ पाद टिप्पणी में ऐसा क्यों कहा गया है, समझ में नहीं आता। हिंदू के लिए भी अधार्मिक होना जरूरी नहीं है और मुसलमान या किसी और धर्म को मानने वाले के लिए भी अधार्मिक होना जरूरी नहीं है। सेकुलरवाद के नाम पर अधार्मिक होने की जो कोशिशें की जाती हैं, वह अधिकांश मामलों में पाखंड में बदल जाती हैं। वास्तव में सेकुलर स्टेट को होना चाहिए न कि नागरिक को। एक सेकुलर स्टेट में सभी धर्मों के नागरिक अपनी धार्मिक परंपराओं के साथ रह सकते हैं, जबकि एक धार्मिक स्टेट में अन्य धर्मों के नागरिक अपने को ‘अन्य’ की श्रेणी में यानी अजनबी पाते हैं, इसलिए स्टेट को सेकुलर होना चाहिए। हाँ नागरिक के ‘धार्मिक’ होने का अर्थ किसी श्रेष्ठता बोध और दूसरे को आक्रांत करने के भाव से जीना नहीं है, दूसरी बात यह कि नागरिक के रूप में यह कर्तव्य भी है कि हम अपने धर्म को लगातार पुन: परिभाषित करते रहें, जैसे गांधी ने किया था। उनके लिए दरिद्र नारायण की सेवा और सत्य ही सबसे बड़ा धर्म बन गया। इसलिए वह रूढ़ियों और पाखंडों से बच सके। खैर!
अंत में एक बात और कहना चाहूंगा कि यदि यह किताब अपने शीर्षक के हिसाब से नए सिरे से लिखी गई होती तो इसका स्वरूप कुछ और ही होता और जनसामान्य के लिए ज्यादा ग्राह्य होता। यह समय ऐसा है जब हमें ‘धर्म’ के नाम पर सियासत को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में किंतु सहज-सरल तरीके से समझने-समझाने की जरूरत है और जब हम धर्म कहें तो उसके वृत्त में सभी प्रमुख धर्म आने चाहिए। तभी हम समग्रता में धर्म के नाम पर सियासत और सियासत के धर्म को समझ पाएंगे। जनसामान्य को संबोधित लेखन की शैली भी अलग होगी। हिलाल अहमद जैसे अध्येताओं से ही हम इस तरह के लेखन की उम्मीद कर सकते हैं।
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किताब – अल्लाह नाम की सियासत
लेखक – हिलाल अहमद
मूल्य – 449.00 रु. मात्र
प्रकाशक – सेतु प्रकाशन, सी-21, सेक्टर 65, नोएडा,
ईमेल : [email protected]