खानपान से धार्मिक अनुभूतियों का कोई रिश्ता नहीं, यही विवेकानन्द की तरुणाई की समझ थी

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Kanak Tiwari

— कनक तिवारी —

(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)

(5) नरेन्द्रनाथ की समझ में खानपान से धार्मिक अनुभूतियों का कोई रिश्ता नहीं था। यही उनकी तरुण समझ थी। श्रीरामकृष्णदेव के बाकी शिष्यों से अलग नरेन्द्र से उनका बेतकल्ल्लुुफ रिश्ता भी था। एक बार नरेन्द्र ने आकर कहा, ‘गुरुदेव मैंने आज वह सब खा लिया है जिसकी धार्मिक लोगों के लिए मनाही है। अद्भुत रहस्यमय, आध्यात्मिक गुरु ने ताड़ लिया कि शिष्य निष्कपट भाव से सांसारिकता के मकड़जाल से ऊपर उठकर साफगोई बात कह रहा है। उन्होंने जवाब दिया कोई बात नहीं, इससे तुमको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यदि कोई व्यक्ति ईश्वर में ध्यान केंद्रित रखकर गोमांस या सुअर का मांस भी खाता है, तो उसके लिए वह भोजन हविष्य अन्न की तरह पवित्र है। कोई अगर सांसारिकता की बुराइयों में डूबा रहे तो उसके लिए तो वही भोजन गोमांस या सुअर के मांस के बराबर है। यदि तुमको छोड़कर किसी अन्य शिष्य ने ऐसा किया होता, तो मैं बर्दाश्त नहीं करता कि वे मुझे छू भी लें। (दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द बाइ हिज़ ईस्टर्न एण्ड वेस्टर्न डिसाइपल्स, खण्ड 1, पृष्ठ 93)।

(6) विवेकानन्द के दिनों में खासतौर पर बंगाल में कायस्थों को शूद्र की श्रेणी में गिना जाता था। वहां के ब्राह्मण इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि एक कायस्थ विवेकानन्द किस हैसियत से धार्मिक कृत्यों में संलग्न है। और उपदेश भी कर रहे हैं। मुसलमानों, ईसाइयों सहित निम्नतर हिन्दुओं के लिए म्लेच्छ शब्द का संबोधन किए जाने की भी ब्राम्हण परंपरा रही है। खासतौर पर पुरोहितों और ब्राह्मणों को जब पता लगा कि विवेकानन्द एक धर्मोपदेशक की भूमिका में अमेरिका गए हैं तब उन्होंने अन्य बातों के अलावा इस बात पर भी आपत्ति की कि वे वहां पर जाति पांति, धर्म, कर्म का शासकीय अनुशासन का उल्लंघन करते किसी के भी हाथ का बना खाना खा रहे हैं। जिसमें मांसाहार भी शामिल है। इससे तो खासतौर पर हिन्दू धर्म की हेठी हो रही है। तब विवेकानन्द ने अपने शिष्यों को लिखा था कि जो लोग मेरी आलोचना कर रहे हैं उनसे कहिए खानपान की कथित आदत के नाम पर वे मेरे लिए अमेरिका में किसी भारतीय या समकक्ष रसोइए का प्रबंध कर दें। तब मैं उसके हाथ का बना हुआ ही खाना खाने में प्रसन्नता का अनुभव करूंगा। लेकिन ऐसा ना होना था और ना हुआ। विवेकानन्द ने कहीं यह भी लिखा है कि प्राचीन धर्मग्रंथों में इस बात का उल्लेख है कि प्राचीन काल में एक ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं कहलाता था यदि वह गोमांस नहीं खाता था। यहां तक कि एक हिन्दू अच्छा हिन्दू नहीं माना जाता था यदि वह गोमांस नहीं खाता था। हालांकि अब वह एक अप्राकृतिक और अनैतिक काम भारत में माना जा रहा है। (वि.सा. 3/174.1 और 536.1)

विवेकानन्द ने यह भी कहा था –

13. जब तक मनुष्य को राजकीय अर्थात क्रियाशील जीवन जीना है जो मौजूदा हालातों में है तब कोई विकल्प नहीं सिवाय इसके कि उसे मांसाहार करना पड़े। (वि.सा.4/86.3)

14. शिष्यों को ताकतवर बनाने के मकसद से उन्होंने कहा था खूब डटकर मांस और मछली खाओ मेरे बच्चो! (वि.सा.5/402.3), (वि.सा. 5/4031)

15. रामायण और महाभारत के कथानक में ऐसी कई घटनाएं हैं। जब मदिरापान करना और मांस खाना राम और कृष्ण के लिए भी दिखाया गया है जिन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। (वि.सा. 5/482.2)

16. मांस खाना निश्चित तौर पर क्रूरतापूर्ण है। इससे कौन इंकार कर सकता है। लेकिन जिन्हें अपनी जिंदगी को चलाने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है। उन्हें मजबूर होकर तो मांस खाना ही पड़ता है। (वि.सा. 5/485.2)

17. पश्चिम में गरीबों का मुख्य भोजन और अमीरों के इलाके में भी गरीबों का मुख्य भोजन डबलरोटी और आलू है। मांस कभी कभी ही खाया जाता है। (वि.सा. 5/492.3)

18. जब तक मिलिटरी की ताकत हुकूमत करेगी। मांसाहार चालू रहेगा। लेकिन विज्ञान के विकास के कारण संघर्ष घटेंगे तब शाकाहार बढ़ेगा। (वि.सा. 7/29.1)

19. मांसाहारी पशु मसलन शेर एक झपट्टा मारता है और फिर खामोश हो जाता है। लेकिन धैर्यवान शाकाहारी बैल पूरे दिन काम करते चलता रहता है। खाता भी है और सोता भी है (वि. सा. 7/28.4)

20. उन्होंने कभी प्रश्नोत्तर में कहा था कि फल और दूध योगियों के लिए सबसे अच्छा भोजन है। (वि. सा.5/319.4)

21. भोजन के लिए चावल, दाल, चपाती, मछली, सब्जी और दूध मिले तो वह पर्याप्त है। (वि. सा. 5/487.1)

22. उन्होंने वार्तालाप में कहा था कि जब तुम सत्व की स्थिति में आ जाओगे। तब मछली और मांसाहार हर तरह से छोड़ देना। (वि. सा. 5/403.3)

23. सारी पसंदगी मछली और मांस के लिए हवा में उड़ जाती है। जब मनुष्य में सत्व का उदय और विकास होता है। और यह आत्मा के विकास का परिचय है। (वि.सा. 5/ 403.3)

24. आजकल सारे संसार में यह खाना है या वह खाना है का विवाद ही प्रचलित हो गया है। (वि.सा. 3/339.3)

25. कोई भी खाद्य मन की पवित्रता को भ्रष्ट नहीं कर सकता यदि अपने आप को पहचान लेता है। (वि.सा.4/39501)

26. पुराने जीवन में और आजकल भी यह विवाद जारी है कि पशु मांस आधारित भोजन अच्छा है या बुरा है या केवल शाकाहार पर ही निर्भर रहा जाए। (वि.सा.5/481.2) (निबन्ध : दी ईस्ट एंड दी वेस्ट)

27. मैंने कई तरह के भोजन बनाने की विधाओं को देखा है। लेकिन उनमें से कोई भी हमारे बंगाल की शानदार भोजन की थालियों का मुकाबला नहीं कर सकती। (वि.सा. 5/490.3) (इसके लिए पुनर्जन्म लेना भी अतिशयोक्ति नहीं है)

28. जैन और बौद्ध किसी भी हालत में मांस और मछली नहीं खाते। (वि.सा. 5/496.2)

संन्यासी अमोघ लीला दास पर इस्काॅन द्वारा एक माह के एकांतवास का बैन लगाना समझ नहीं आया। अमोघ लीला दास को भी अभिव्यक्ति की नागरिक आजादी है। उनसे यह तो कहा जा सकता था कि वे विवेकानन्द के कथित मांसाहार की आदत के चलते तत्कालीन, पारंपरिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और विवेकानन्द की यायावरी से उत्पन्न कठिनाइयों और परिस्थितियों का सम्यक परीक्षण कर वस्तुपरक आकलन करें और फिर अपना स्पष्टीकरण किसी कारण बताओ नोटिस के उत्तर में दे दें। यह इस्काॅन जैसी महत्वपूर्ण संस्था के लिए एक बौद्धिक उपक्रम होता। जिससे उन्होंने जानबूझकर पिंड छुड़ा लिया। महंगे रेशमी वस्त्र पहनकर सात सितारा संस्कृति भोगते अमीरी का धार्मिक प्रचार करते इस्काॅन संस्कृति के प्रवक्ता विश्व के लोकधर्मी यश को समझ भी पाते हैं इसका भी मुझे भरोसा नहीं है। बहरहाल, खानपान बल्कि धूम्रपान सहित अपनी कई निजी आदतों को सामाजिक संदर्भ में रचकर भी खुद विवेकानन्द ने अपने आप का इतनी बार प्रतिपरीक्षण कर लिया है कि किसी अन्य व्यक्ति को इस संबंध में ज्यादा जांच परख किए बिना टिप्पणी करना मुनासिब नहीं होगा।

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