भारतीय परम्परा : सामाजिक प्रासंगिकता 

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— नंदकिशोर आचार्य —

रंपरा को व्याख्यायित करते हुए एक दार्शनिक इतिहासकार ने कहा है कि अतीत से जो उत्तराधिकार हमें मिला है वह सोचने की विधि है, न कि एक नियम संहिता l मैं इस सोचने की विधि को व्यापक संदर्भ में रखकर समझना और उन संवेदनाओं को भी इसमें शामिल करना चाहता हूं जिन्हें संस्कार कहा जाता है l संस्कार किसी आचार व्यवहार के रूप में नहीं, मूल्य संवेदना के रूप में क्योंकि परंपरा अंततः एक सनातन मूल्यचेतना है l भारतीय संदर्भ में तो यह बात और भी सच है क्योंकि भारतीय चेतना सदैव रूप से अधिक महत्व उस अरूप को देती आई है जो सभी रूपों में खिलता है l जो परंपरा मानवीय देह को भी एक नश्वर अभिव्यक्ति मानती हुई आत्म को सनातन मानती हो, उसे वर्ण, जाति, संप्रदाय और भूगोल के स्थूल संस्थागत रूपों पर आश्रित कर देखना एक बुनियादी भ्रांति है जिसका शिकार परंपरा के अधिकांश व्याख्याकार होते आए हैं l उनकी भ्रांत दृष्टि ही परंपरा को एक अतीत की तरह प्रस्तुत करती है और अतीत की कुछ संस्थाओं को वर्तमान में अनुपयोगी या अप्रभावी पाकर या तो परंपरा या वर्तमान को, कभी कभी दोनों के प्रति खीज से भर उठती है l परंपरा का अर्थ अतीत के चौखटे में वर्तमान को जड़ना नहीं है और न ही वह वर्तमान की खिड़की से अतीत की ओर मुग्ध भाव से निहारना है l परंपरा की तलाश वर्तमान की दृष्टि से अतीत का नवीकरण नहीं है l परंपरा का अर्थ है बदलती हुई परिस्थितियों की चुनौती के सम्मुख एक सनातन जीवनदृष्टि के अनभिव्यक्त आयामों का उदघाटन l
एक सनातन मूल्यचेतना के रूप में भारतीय चेतना के समाजदर्शन का निरूपण किस प्रकार होता है? भारतीय चेतना के लिए समाज शब्द का अर्थ ही विवेकशील मनुष्यों का समुदाय है l संस्कृत में एक शब्द है समज और दूसरा शब्द है समाज l समज का एक अर्थ पशुओं का समुदाय और दूसरा अर्थ मूर्खों का समुदाय है l समाज को“विवेकशील मनुष्यों का समुदाय”माना गया है l स्पष्ट है कि भारतीय दृष्टि समाज संरचना का आधार उस मानवीय विवेक को मानती है जो एक मनुष्य को दूसरे से जोड़ता है l यह विवेक मनुष्य और मनुष्य के बीच के अनिवार्य रिश्ते और उससे उद्भूत उत्तरदायित्वों की पहचान है – बल्कि इसका दायरा मनुष्य से आगे बढ़कर मानवेतर सृष्टि तक फैल जाता है क्योंकि हिरयन्ना के शब्दों में“जिन प्राणियों में नैतिक चेतना का अभाव है, उनके चाहे कोई भी कर्तव्य न हों, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके प्रति भी किसी का कोई कर्तव्य नहीं है l … व्यक्ति की स्वार्थ परायणता के अतिरिक्त एक ऐसी चीज भी है जिसे जाति की स्वार्थ परायणता कहा जा सकता है और जो अनिवार्यरतः इस विश्वास को जन्म देती है कि अमानवीय सृष्टि का मनुष्य के हित के लिए दोहन किया जा सकता है l यदि मनुष्य को सचमुच मुक्त होना है तो इसका भी त्याग करना होगा और वह ऐसा केवल तभी कर सकेगा जब वह मानवकेंद्रित दृष्टिकोण से ऊपर उठ जाएगा तथा गीता के शब्दों में“विद्या और विनय से संपन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, श्वान तथा श्वान का मांस खाने वाला चांडाल, सब के प्रति समदर्शी हो सकेगा l”
इस प्रकार भारतीय सामाजिकता केवल मानव केंद्रित या मात्र मानवीय एकता पर आधारित नहीं बल्कि संपूर्ण सृष्टि की एकता पर आधारित है l जब हम मनुष्य को शेष सृष्टि से पृथक मानने से शुरू करते हैं तो यह पृथकतावाद हमें एक मानवसमाज को दूसरे मानवसमाज से, एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय से, एक प्रदेश या भाषा के मानवों को अन्य प्रदेश या भाषा के मानवों से, एक जाति को दूसरी जाति से तथा अंततः एक मनुष्य को दूसरे मनुष्यों से अलग मानने की ओर ले जाता है और पृथकता का यह बोध अंतः मानवीय संबंधों का आधार शक्ति या हिंसा को बना देता है क्योंकि पृथकता के बोध पर आधारित तर्क पद्धति की संरचना अपने समूह की पृथक पहचान और उसके हितों की रक्षा के प्रयोजन से ही होती है और इस तरह की दो संरचनाओं के बीच यदि कभी कोई समन्वय होता है तो उसका आधार समान स्वार्थ ही होते हैं, कोई तात्विक एकता नहीं l इसलिए स्वार्थों की टकराहट का अंतिम फैसला हिंसा के आधार पर ही होता है जो मनुष्य समाज को अंततः पशुप्रवृत्ति की ओर ले जाती है l
लेकिन जब सामाजिकता की हमारी भावना का आधार सम्पूर्ण सृष्टि की एकता की अनुभूति हो तो हमारी तर्कप्रणाली और मूल्यचेतना बिलकुल भिन्न होगी l यह दृष्टि मानव की अवमानना नहीं करती बल्कि उसे श्रेष्ठ नैतिक चेतना से युक्त मानने के कारण उस पर बड़ा उत्तरदायित्व डालती हैl यदि सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य को कुछ विशेष हैसियत प्राप्त है तो उससे कुछ विशेष नैतिक उत्तरदायित्व भी जुड़े हैं क्योंकि भारतीय दृष्टि हैसियत को उन अधिकारों से नहीं उन कर्तव्यों से आंकती है जिनका दायित्व किसी व्यक्ति, वर्ग या समाज पर है l सम्पूर्ण सृष्टि की एकता की यह संकल्पना और अनुभव भारतीय जीवनदृष्टि का ही नहीं, उस भावना का भी अधिकार है जिसे आध्यात्मिकता कहा जाता है l “स्व” का बोध जीवन का प्रयोजन है पर यह “स्व” समष्टि से पृथक नहीं है, अतः इसकी पहचान में समष्टि और “स्व” के अनिवार्य रिश्ते का बोध भी शामिल है l यह पहचान केवल विचारगत या सूचनात्मक नहीं बल्कि  संवेदात्मक और अनुभवगम्य है, अतः जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसका प्रतिफलन हुए बिना इसका वास्तविक बोध संभव नहीं है l
लेकिन यदि हम फिलहाल किसी आध्यात्मिक विचार में न पड़ें और आत्मा परमात्मा की शब्दावली से परहेज़ करना चाहें तो भी भौतिकवादी दृष्टि भी सृष्टि की एकता के सिद्धांत को ही पुष्ट करती प्रतीत होती है l “सृष्टि एकतत्त्वात्मक है” इस धारणा की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करता है l प्रकृतिवाद, कारण कार्याश्रित निश्चयवाद और एकतत्त्ववाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण के स्वीकृत सिद्धांत है l इसी एकतत्त्ववाद के आधार पर मार्क्सवाद के बरक्स मानवेन्द्रनाथ राय जैसे विचारक वैज्ञानिक मानववाद का दर्शन रचते हैं तथा कार्य-कारण आश्रित प्रकृतिवाद से उपजा होने के कारण मनुष्य को एक विवेक संपन्न प्राणी मानते और सभी मानवीय संबंधों में इस विवेक के प्रतिफलनको ही नैतिकता कहते हैं l
लेकिन सम्पूर्ण सृष्टि की तात्विक एकता का यह विचार मानवीय कर्म की प्रेरणा तभी बनता है जब वह मनुष्य की संवेदना की एक सहज क्रिया या संस्कार बन जाए l जब यह विज्ञानाधारित तात्विक एकता एक मानवीय संवेदना की सहज क्रिया या मानवीय संस्कार बन जाती है तो वह वस्तुत: एक आध्यात्मिक आयाम ग्रहण कर लेती है चाहे उसके लिए हम आत्मा परमात्मा की शब्दावली का इस्तेमाल न भी करें l दुनिया के सभी रहस्यवादियों में यदि कोई एक बात समान रूप से पाई जाती है तो वह है सम्पूर्ण सृष्टि की एकतात्त्विकता का अनुभव- चाहे वे पुनर्जन्म, आत्मा के अमरत्व या परमात्मा में आत्मा के विलीन होने के सिद्धांतों पर एक मत न भी रखते हों l
इसलिए भौतिकवादी आधार पर देखा जाए या आध्यात्मिक आधार पर, भारतीय सामाजिकता सृष्टि की एकतात्त्विकता के बोध से उपजती है और सभी मानवीय संबंधों में इसी बोध के प्रतिफलन को ही सामाजिक जीवन का प्रयोजन स्वीकार करती है l यही आध्यात्मिकता का सामाजिक पहलू है l
जाहिर है कि इस प्रकार से विचार करने पर सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था, संस्थाओं और रिश्तों का आधार अहिंसा हो जाती है- स्थूल नहीं अपने सूक्ष्म और गुरुतर अर्थों में l हम जानते हैं कि मनुष्य में पशुत्व भी है और स्वार्थपरता भी और स्वार्थों की टकराहट भी अवश्यंभावी है l इसलिए जब तक मनुष्य अहिंसा को एक बुनियादी मानव मूल्य के रूप में स्वीकार नहीं कर लेता तब तक विनाशकारी संघर्ष और शोषण दमन से कोई बचाव नहीं है l भारतीय परंपरा इस बात को पहचानती है कि सृष्टि की एकता की अनुभूति का प्रतिफलन सृष्टि मात्र के प्रति अहिंसा के व्यवहार में ही हो सकता है क्योंकि स्वार्थों की टकराहट भी तब घृणा और प्रतिशोध को नहीं विकसित होने देगी जो हिंसा के प्रेरक कारण हैं l
भारतीय परंपरा इस बात को पहचानती है कि हिंसा ही सर्वोच्च धर्म, सर्वोच्च तप और सर्वोच्च सत्य है और इसी से बाकी सब गुणों का जन्म होता है l सामाजिक व्यवस्था के केंद्रीय आधार के रूप में अहिंसा को स्वीकार करने का अर्थ है एक शोषणविहीन समतामूलक समाज की स्थापना जिसमें न केवल रंग, जाति, लिंग, भाषा, संप्रदाय और राजनीतिक-आर्थिक ताकत आधार पर अन्य के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार न किया जा सके बल्कि प्रत्येक मनुष्य की अंतर्निहित सर्जनात्मकता को अभिव्यक्ति के तमाम अवसर मिल सकें l
अहिंसा के सिद्धांत को सामाजिक व्यवस्था के आधार रूप में स्वीकार करने का तात्पर्य सामाजिक अन्याय के खिलाफ अप्रतिरोध नहीं है l भारतीय परंपरा में अहिंसा का अर्थ सबके प्रति प्रेममय व्यवहार है, शत्रु के प्रति भी l लेकिन शत्रु के विरुद्ध बलप्रयोग की मनाही नहीं है, यदि हम बिना घृणा के बलप्रयोग कर सकें l जैसा कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन का कथन है,“कई बार प्रेम की भावना के कारण भी बुराई का प्रतिरोध करने की आवश्यकता पड़ती है l हम लड़ते हैं आंतरिक शांति से भरे हुएl” हमें चिकित्सक और डाकू की हिंसा में अंतर करना होगा l आदर्श तो पूर्ण अहिंसा ही है, हिंसा को केवल आपद्धर्म के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है और वह भी तब जब हमारा हृदय आंतरिक शांति से भरा और प्रेममय हो l घृणा और प्रतिशोध की भावना पर आधारित हिंसा किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं l अधिकांश क्रांतियां प्रतिक्रांतियों में इसलिए बदल जाती हैं कि वे उत्कृष्टतर परिवर्तन की भावना से कम और घृणा व प्रतिशोध की भावना से अधिक प्रेरित होती हैं l
हिंसा ‘स्व’ के संकुचन से पैदा होती है जबकि अहिंसा का तात्पर्य है ‘स्व’ की सार्वभौमिक व्याप्ति l भारतीय परंपरा में ‘स्व’ की पहचान को ही जीवन का प्रयोजन माना गया है l  लेकिन इस “स्व” या “अस्मिता” के कई वृत्त हैं जिनका विस्तार अपनी देह से लेकर अनंत दृष्टि तक है l मैं एक नाम से जानी जा रही देह हूं, मैं एक परिवार का सदस्य हूं, मैं एक जाति हूं, मैं एक अध्यापक, मजदूर, व्यापारी, लेखक या कुछ और हूं, मैं एक प्रदेशविशेष का निवासी हूं, में एक राष्ट्र विशेष का निवासी हूं, मैं एक संप्रदायविशेष का अनुयायी या दलविशेष का कार्यकर्ता हूं आदि सभी मान्यताएं अस्मिता के छोटे बड़े घेरे हैं जो अनंत सृष्टि के साथ मेरी एकता की धारणा तक फैलते हैं l
सभी सामाजिक असमानताएं, विद्वेष और तनाव अपनी अस्मिता को किसी न किसी घेरे में बांधना है l अनंत सृष्टि के साथ एकता का अनुभव करते हुए भी मैं देह तो रहता हूं लेकिन तब देह मेरी अस्मिता के उन्नयन का साधन बनती है जबकि केवल देह होना मेरी अस्मिता की वास्तविक संभावनाओं का दमन करना है l जाति, लिंग, संप्रदाय, और अन्य ऐसी सभी सामाजिक पहचानें यदि मेरे “स्व” का संकुचन करती हैं तो उन्हें न्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता क्योंकि उनसे जो सामाजिक व्यवस्था विकसित होगी वह अनिवार्यतया हिंसक होगी और जीवन के एक विकृत दृष्टिकोण का विकास करेगी और हम प्रकृति से संस्कृति की ओर बढ़ने की बजाय विकृति की ओर गिर रहे होंगे l
आज जिस समाज व्यवस्था में हम रह रहे हैं वह स्पष्टतया एक विकृत व्यवस्था है क्योंकि वह हमें किसी न किसी छोटे घेरे में बांध देने का प्रयास करती है, वह घेरा जाति, उपजाति का भी हो सकता है और रंग, संप्रदाय, दल, प्रदेश, या राष्ट्र का भी l पराशर के हवाले से डॉ. राधाकृष्णन कहते हैं कि आत्मा के सत्य सनातन हैं पर नियम युग-युग में बदलते रहते हैं l हमारी ललित संस्थाएं नष्ट हो जाती हैं l वे अपने समय में धूमधाम से रहती हैं और उसके बाद समाप्त हो जाती हैं l वे काल की उपज होती हैं और काल की ही ग्रास बन जाती हैं। परंतु हम धर्म को इन संस्थाओं के किसी भी समूह के साथ एक या अभिन्न नहीं समझ सकते l धर्म इसलिए बना रहता है कि इसकी जड़ें मानवीय प्रकृति में हैं और यह अपने किसी भी ऐतिहासिक मूर्त रूप के समाप्त हो जाने के बाद भी बचा रहेगा l

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