अलविदा सर्व सेवा संघ परिसर वाराणसी !

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Sarv seva sangh

— केशव शरण —

ल सुबह दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर जब मैंने व्हाट्सएप खोला तो जो सूचनाएँ, विडियोज और अपीलें सर्वोदय जगत और सर्व सेवा संघ तथा समता मार्ग ग्रुप से प्रसारित हो रही थीं वे एक के बाद एक और पहले से बढ़कर धक्का पहुँचाने वाली साबित हो रही थीं। गांधी-विनोबा-जयप्रकाश के कार्यों और विचारों को फैलाने वाली संस्था सर्व सेवा संघ वाराणसी के सुरम्य परिसर में भारी पुलिस फोर्स की आतंककारी उपस्थिति थी। पुलिस की गाड़ियाँ, एम्बुलेंस, फायर ब्रिगेड और आज के दौर में अपनी एक अलग पहचान और प्रसिद्धि के साथ बुलडोजर परिसर के बाहर तैनात थे। परिसर के रहवासियों और आंदोलनकारियों से अधिक पुलिस थी। बताया जा रहा था कि सूर्य के आगमन के साथ ही पुलिस परिसर में आ धमकी थी और बलपूर्वक तत्काल घरों को ख़ाली कराने लगी थी। निहत्थे कार्यकर्ता विरोध जता रहे थे।

सर्वोदय जगत पत्रिका के सम्पादक प्रेम प्रकाश पुलिस वैन के अंदर से नारे लगा रहे थे तो परिसर के संयोजक वरिष्ठ गांधीवादी कार्यकर्ता रामधीरज जी अधनंगे बदन गेट के सामने सर्व सेवा संघ पोस्ट आफिस की बगल में सड़क पर अपने कुछ साथियों के साथ जिनमें अखिल भारत सर्व सेवा संघ के अध्यक्ष चंदन पाल और सर्व सेवा संघ प्रकाशन के संयोजक अरविंद अंजुम भी थे, विरोध किए जा रहे थे। पुलिस उन्हें मना रही थी। अपना अस्तित्व मिटवाना प्रेम और सम्मान से मंजूर करें। जब उन्हें मंजूर नहीं हुआ तो पुलिस जबरन उन सब को वैन में बैठाकर ले गई। इसके बाद दो महीने से दिन-रात जबरदस्त विरोध प्रदर्शन में लगी जुझारू गांधीवादी नेत्री जागृति राही को देखा एक वीडियो में बिलखते हुए और बिलखते-बिलखते मोदी को कोसते हुए जिनके कथित ड्रीम प्रोजेक्ट में उनका प्रियदर्शी परिसर चला गया। यह संस्था शुरू में गया में थी। वहाँ से विनोबा जी इसे बनारस ले आये थे।

दोपहर तक कई लोग अपने सामान के साथ नये ठिकाने की ओर जा चुके थे। हमारे मित्र कवि-कथाकार और फिल्म विशेषज्ञ अनुपम ओझा भी दोपहर तक परिसर छोड़ दिए थे। वे इस हरियाली युक्त परिसर में किराए पर रहते थे। उनकी बेटी गंगा पार एक कालेज में पढ़ती है। गांधी, लोकतंत्र और परिसर बचाओ अभियान में वे भी लगे रहे और उनकी गणितज्ञ पत्नी और कवयित्री डॉ सुमीता ओझा भी। सुमीता जी ने मार्मिक वर्णन और निवेदन करती कई कविताएँ भी लिखीं जो चार दिन पहले समालोचन वेब पोर्टल पर आई थीं। लेकिन ‘विचारहीन विकास’ के ऊपर किसी चीज का कोई प्रभाव नहीं।

sarva seva sangh

बाकी लोगों का सामान उनके आवासों के आगे पड़ा था ढोए जाने की तैयारी में। शाम पाँच बजे तक परिसर खाली कर देना है और फिर दीखना भी नहीं है। दीखने पर दण्ड के भागी होंगे। परिसर के बाहर बुलडोजर तैनात हैं। सूर्यास्त होने का इंतजार है। प्रकाशन भवन से किताबें निकाली जा रही हैं और गांधी चबूतरे पर गाँजी जा रही हैं। यह चबूतरा हाल में एक गांधीवादी एसडीएम ने बनवाया था और उस पर गांधीजी की मूर्ति के साथ उनके तीन बंदरों की भी मूर्तियाँ लगवाई थीं। इसी प्रकाशन भवन से उन्होंने गांधीजी की आत्मकथा की सैकड़ों प्रतियाँ खरीदीं और लोगों को भेंट कीं। इस समय वे गैर जिले में पोस्टेड हैं।

मैं परिसर के बाहर सड़क पर आ जाता हूँ चाय-पान की दुकानों पर और पानी की बोतल खरीदता हूँ जिसे आज से पहले खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती थी। सड़क की दूसरी ओर भारतीय पुरातत्त्व विभाग का खनन स्थल है। इसमें भी पुलिस के कुछ जवान बैठे हैं और गपिया रहे हैं।

सर्व सेवा संघ परिसर में काफी संख्या में पुलिस के जवान हैं। परिसर के बाहर भी। परिसर बाहर से दीखता है। सड़क से जाते लोग ठिठकते हैं। वे जानना चाहते हैं कि यहाँ क्या हो रहा है क्यों इतनी पुलिस है। ढेर सारी पुलिस होने के बावजूद परिसर में सन्नाटा है। परिसर में पहले भी सन्नाटा रहता था लेकिन वह चिड़ियों के चहचहाने से मनोरम लगता था जिसे हम शांति कहते थे।

कल परिसर में चिड़ियों की चहक विलुप्त थी। केवल मरघटी सन्नाटा था। बाहर चाय-पान की दुकानों पर चर्चाओं का दौर चरम पर है। तरह-तरह की चर्चाएँ हैं। कोई सरकार की तरफ से नहीं बोल रहा है लेकिन सर्व सेवा संघ की सामाजिक निष्क्रियता और आपसी अंतर्द्वंदों की चर्चा कर इसी अंजाम की अपरिहार्यता बता रहा है। लेकिन यह क्या आधार बनता है किसी की सम्पत्ति को हड़प लेने का? कोई यह भी सवाल कर रहा है।

कोई प्रशासन की दलील सुना रहा है कि संस्था तो छोटी जगह में भी चल सकती है क्या जरूरत है इतनी जमीन की? एक सर्वोदयी शुभचिंतक जवाब देते हैं कि क्या जरूरत है डीएम और कमिश्नर को कई-कई एकड़ के बंगलों में रहने की? वे एक छोटे-से बंगले में भी तो रह सकते हैं। इस परिसर में खादी उद्योग का एक दफ्तर और गोदाम भी है। गांधी विद्या संस्थान भी है जो विवादों का विषय बना हुआ निष्क्रिय था। उसे चलाने की जुगत के बीच सारा सर्व सेवा संघ ही चला जायेगा यह कल्पना तक नहीं थी। इन चर्चाओं में मेरा मन नहीं लग रहा है।

मेरे अंदर एक रुलाई-सी उठ रही है। मैं एक बार फिर परिसर को देख लेना चाहता हूँ। पूर्वी गेट से प्रवेश करता हूँ। एक-एक पेड़, भवन, वरुणा नदी का मनमोहक किनारा देखते हुए पोस्ट आफिस वाले मुख्य गेट की ओर बढ़ता हूँ। पाँच बज रहे हैं और पोस्ट आफिस बंद हो चुका है।

एक बार पोस्ट आफिस पर निगाह दौड़ाता हूँ। कभी मैं इसमें पोस्टमास्टर था और पूरे चार साल इस परिसर में तैनात रहा। यहाँ से निकलने वाली पत्रिका सर्वोदय जगत में भी लिखता-पढ़ता रहा और परिसर के लोगों से एक आत्मीयता हो गई थी। मैं उदास और भारी मन से गेट के बाहर आ जाता हूँ। अब यह परिसर और इसका इतिहास मिटा दिया जाएगा लेकिन इसकी यादें कभी समाप्त नहीं होंगी। यहाँ से स्थानांतरित होने पर कभी मैंने एक कविता लिखी थी। उस स्थानांतरण से मुझे कोई अंतर नहीं पड़ा था और मेरा आना-जाना परिसर में लगातार बना रहा। आप चाहें तो उसे पढ़ सकते हैं-

पेड़-पंछी, नील अम्बर छोड़कर
अब कहाँ जाऊँ मैं परिसर छोड़कर

ऐसा भी मधुमास-सावन फिर कहाँ
फूल गम-गम, वृष्टि झर-झर छोड़कर

आँख कब सोने की चिड़िया चाहती
रक़्स करते मोर के पर छोड़कर

दिल लगेगा एलियन के बीच क्या
मानवी ये रूप सुन्दर छोड़कर

उठ खड़ा होता हूँ बुलबुल देखने
और सुनने गीत, बिस्तर छोड़कर

क्या मिलेगा शहर में कंक्रीट के
रेत-पानी का ये मंज़र छोड़कर

ख़ुश रहूँगा किस जगह मैं किस तरह
इस जगह का मोह मन पर छोड़कर

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