राकेश कबीर की छह कविताएँ

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पेंटिंग- कौशलेश पांडेय
पेंटिंग- कौशलेश पांडेय

1. तुम तब आना…

बसंत तो कब का बीत गया
जो फूल खिले थे खेतों में
सब पीले दाने बन गए
खेत उजाड़ और नीरस हो चुके

तुम अभी मत आना
धूप सफेद होकर पसरी रहती है
मेरे घर की मुंडेर पर
चिलबिल के पत्ते जलकर
धूप से सफेद हो गए हैं

मोर उन पेड़ों पर अभी नहीं बैठते
वे सुबह खेतों में दाने चुग
चले जाते हैं वापस शाम तक के लिए
कर्कश लगती है उनकी बांग आजकल

तुम अभी मत आना
कि अभी क्यारियों में तुम्हारी पसंद के फूल
नही उग पाए हैं
माली ने बड़े जतन से बोए हैं कुछ बीज
जिन्हें उगने में वक्त लगेगा

सेमल जब लाल फूलों से लदे थे
कौओं ने खूब दावत उड़ाई थी
अब फूल झड़ गए तो
उनमें नए कोमल पत्ते निकल आए हैं
तुम्हें पता है??
पतझड़ सभी दरख्तों पर एकसाथ नहीं आते
देखा है मैने
पत्तों को अलग अलग मौसम में झड़ते हुए

तुम अभी मत आना
कि इस सफेद धूप के जले भुने मौसम को
मैं जरा अकेले निपटा दूं
जब चिलबिल में नई पत्तियां उग आएं

और उनकी डालियों बैठकर
मोरनी मल्हार राग गाते हुए निहारे
अपने प्रियतम मोर को
और वह भाव विह्वल हो
सतरंगी पंखों को आसमान में उठाये
नृत्य करने लगे

और उसके नृत्य से आह्लादित हो
आसमान से कुछ बूॅंदें बारिशें बरसने लगें
क्यारियों में पौधे कलियों को पोसने लगें
तुम तब आना
ग्रीष्म के उत्तरकाल में

जब खेतों में धान की हरियाली
पसर जाए दूर तक
जिनके बीच
सारस के जोड़े
संग संग विचरने लगें

तुम तभी आना।

2. यात्री और डाकिया

जब घर से दूर
जंगलों और पहाड़ों में भटकते हुए
कुछ बताए गए पतों पर पहुंचा था
और दस्तक दी थी उनके दरवाजों पर

घरों और दरवाजे वालों ने
धीरे से सरकाई थीं सिटकिनियां
और झांका था धीरे से
आंशिक नाक और मुंह निकालकर

उन्होंने अपने पतों को तो
स्वीकार किया था लेकिन मुझे नहीं

मैं डाकिया तो नहीं था
मैं तो यात्री था
मेरे पास चिट्ठी तो थी
लेकिन उसे देने की जरूरत नहीं थी

मैं आंशिक मुस्कुराहटों
और अधखुले दरवाजों को
असहमति और अस्वीकार समझ
उन दरवाजों के पीछे प्यार में डूबे लोगों को

वहीं छोड़ भटकता रहा था
जंगलों और पहाड़ों में
अब देखता हूँ वही प्यार में डूबे लोग
दिल टूटने की शिकायतें कर
कोस रहे हैं पहाड़ों और जंगलों को
बन्द दरवाजों और आंशिक मुकुराहटों को

पछता रहे हैं
आगन्तुक को वापस लौटाने की गलतियों पर।
नमी
बारिशें गीली
गीले आसमान
गीला मौसम
दरख़्त, दूब, जमीन सब गीले

सीली हवा
नम आंखें
सीली-सीली हैं
घर भीतर दीवारें

गीला सीला मौसम
और मौसम जैसे हम।

3. सई

नदी बह रही थी
धीमे धीमे धीमे
दरख्तों की पहरेदारी में
छुप छुप के

सूरज गवाह बनकर
आसमान में खड़ा था
कि कम कम बारिशों में
नदी नहीं चढ़ सकी थी
मंदिर की सीढ़ियां

मंदिर के देवता को
अब भी यकीन था कि
सई सीढ़ियां चढ़ उसे
दर्शन जरूर देगी।

4. पुल

यात्राओं में बड़ी उम्मीद से
निहारता हूँ पुलों को
जिन पर गुजर जाती हैं
रेलगाड़ियां धड़धड़ाते हुए

बिना ये सोचे कि
उनके पुलों के नीचे कभी
धड़कते थे दिल नन्हीं नदियों के

मुझे यक़ीन है
कयामत के दिन
ये पुल गवाही देंगे नदी की तरफ से
और फैसले होंगे नदी के हक़ में

सांकलें खुलेंगी नदी के पांव से
और बेहिसाब पानी गुजरेगा

वो एक दिन होगा
जब ट्रेनें, पुल और नदी सबके दिल
एक लय में धड़केंगे
और जीवन का संगीत रचेंगे।

पेंटिंग पारस परमार
पेंटिंग पारस परमार

5. नदी के पत्थर

नदी माँ है और
पत्थर उसकी गोद में खेलते बेटे
नदी पत्थर को कांट छांट कर
बना देती है ईश्वर तक

नदी माँ है
वह पत्थर को नहला धुलाकर
हिला डुलाकर रखती है
शिशु सा प्यारा

2.

सूखी हुई नदी के
वक्षस्थल से निकालकर
देखे हैं हमने
जंग खाये हुए बेजान पत्थर

नदी माँ है
उसकी निस्सीम ममता के आगोश में
खेलते शिशु हैं
ये कठोर पत्थर।

6. केंचुआ महल

सावन आया, बादल छाए
बारिश हुई, मिट्टी गीली हुई

केंचुओं के राजा ने सोचा
हवा महल बनाने का समय आ गया है
दरबार लगा, दरबारी जन जुटे
महल बनाने का प्रस्ताव
सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ

मजदूर-मिस्त्री सब बुलाये गए
और काम पर लगाये गए
राजा के वादे और
प्रजा के सपनों का ऊँचा महल
लेने लगा आकार

प्रजा ने भी अपने लिए बनाए
छोटे-छोटे हवादार मिट्टी-महल
रेंगने वाले केचुओं के महल
और बढ़ते दखल की खबर
दौड़ने वाली चींटियों को हुई

मिट्टी खोदकर ‘मृतकों का टीला’ बनाने में
सिद्धहस्त ईर्ष्यालु, धूर्त चींटियों ने
अपने टीलों को घोषित किया
‘बारिशों के देवता का मंदिर’
लंबी कतारों में पंक्तिबद्ध हो
चींटियों ने देवता की साधना की

2.

आसमान में उड़ते चुगुलखोर कौओं ने भी
केंचुओं के हवामहल पर डाली टेढ़ी नजर

कौओं को पसंद था
केंचुओं का लचीला गोश्त
वे भी नाराज से थे केंचुओं की खुशी से
चोंच आसमान की तरफ कर
उन्होंने भी बारिश देवता से गुहार की

चींटियों की सेना ने
केंचुओं के हवा महल पर
आक्रमण कर मृतकों के टीलों में बदल दिया
राजा के वादों और प्रजा के सपनों का महल
तबाह हो गया

जल देवता ने भी
साजिश में साथ दिया
मूसलाधार बारिश हुई
चीटियाँ कौओं की मदद से
पेड़ों की बांबियों में घुस पानी उतरने का
इंतज़ार करने लगीं

बेचारे उजड़े हुए महल के केंचुएं
पानी पर तैरने की नाकाम कोशिश में
कौओं के शिकार बने

पानी उतरा तो चींटियां
मृतक केंचुओं को कंधों पर लाद
अपने टीलों पर ले गईं
चालाक धूर्त चींटियों ने
आयोजित किये महाभोज और
कई दिन खुशी से नंगा नाच किया

इस तरह राजा के वादों और
प्रजा के सपनों का महल जमींदोज हुआ
यही सच है कि
गरीबों के
वादे, सपने, महल और राजभोग
होते हैं
सब बर्बाद, तबाह होने के लिए ही
क्योंकि धूर्त चींटियों और चुगुलखोर कौवों को
पसंद नहीं कमजोर केंचुओं का सुख।

2 COMMENTS

  1. राकेश कबीर की कविताएं सम समायिकता से संवाद करती हैं, उनकी कविताओं में बेजबानों की आवाज मुखर होती है, जिधर ज्यादातर कवियों का ध्यान नहीं जाता, राकेश कबीर अपनी कविताओं में उन्हें ही बिंब और प्रतिक के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं, हमारे दौर के सचेत कवि को साधुवाद🫡🫡🫡🫡🫡

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