— प्रेमचंद —
साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती है, उसकी अटारियाँ, मीनार और गुम्बद बनते हैं, लेकिन बुनियाद मिट्टी के नीचे दबी पड़ी हैl उसे देखने को भी जी नहीं चाहेगा। जीवन परमात्मा की सृष्टि है, इसलिए अनंत है, अबोध है, अगम्य है l साहित्य मनुष्य की सृष्टि है, इसलिए सुबोध है, सुगम है और मर्यादाओं से परिमित हैl जीवन परमात्मा को अपने कामों का जवाबदेह है या नहीं, हमें मालूम नहीं, लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह हैl इसके लिए कानून है जिनसे वह इधर उधर नहीं हो सकताl जीवन का उद्देश्य ही आनंद हैl मनुष्य जीवनपर्यन्त आनंद ही की खोज में पड़ा रहता है l किसी को वह रत्न-द्रव्य में मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में, किसी को लंबे-चौड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य मेंl लेकिन साहित्य का आनंद, इस आनंद से ऊँचा है, इससे पवित्र है, उसका आधार सुंदर और सत्य है l वास्तव में सच्चा आनंद सुंदर और सत्य से मिलता हैl उसी आनंद को दर्शाना, वही आनंद उत्पन्न करना साहित्य का उद्देश्य हैl ऐश्वर्य या भोग के आनंद में ग्लानि छिपी होती हैl उससे अरुचि भी हो सकती है, पश्चाताप भी हो सकता है; पर सुन्दर से जो आनंद प्राप्त होता है, वह अखंड है, अमर हैl
साहित्य के नौ रस कहे गए हैंl प्रश्न होगा, वीभत्स में भी कोई आनंद है? अगर ऐसा न होगा, तो वह रसों में गिना ही क्यों जाताl हाँ, है l वीभत्स में सुंदर और सत्य मौजूद हैl भारतेंदु ने श्मशान का जो वर्णन किया है, वह कितना वीभत्स हैl प्रेतों और पिशाचों का अधजले मांस के लोथड़े नोचना, हड्डियों को चटर चटर चबाना, वीभत्स की पराकाष्ठा है; लेकिन वह वीभत्स होते हुए भी सुंदर है, क्योंकि उसकी सृष्टि पीछे आने वाले स्वर्गीय दृश्य के आनंद को तीव्र करने के लिए ही हुई हैl साहित्य तो हर एक रस में सुंदर खोजता है, राजा के महल में, रंक की झोपड़ी में, पहाड़ के शिखर पर, गंदे नालों के अंदर, उषा की लाली में, सावन-भादों की अँधेरी रात मेंl और यह आश्चर्य की बात है कि रंक की झोपड़ी में जितनी आसानी से सुंदर मूर्तिमान दिखाई देता है उतना महलों में नहींl महलों में तो वह खोजने से मुश्किलों से मिलता हैl
जहाँ मनुष्य अपने मौलिक, यथार्थ अकृत्रिम रूप में है, वहीं आनंद हैl आनंद कृत्रिमता और आडंबर से कोसों दूर भागता हैl सत्य का कृत्रिम से क्या संबंधl अतएव हमारा विचार है कि साहित्य में केवल एक रस है और वह श्रृंगार हैl कोई रस साहित्यिक दृष्टि से रस नहीं रहता और न उस रस की गणना साहित्य में की जा सकती है जो श्रृंगार-विहीन और असुंदर हैl जो रचना केवल-वासना प्रधान हो, जिसका उद्देश्य कुत्सित भावों को जगाना हो, जो केवल बाह्य जगत से संबंध रखे, वह साहित्य नहीं हैl जासूसी उपन्यास अदभुत होता है; लेकिन हम उसे साहित्य उसी वक्त कहेंगे, जब उसमें सुंदर का समावेश हो, खूनी का पता लगाने के लिए सतत उद्योग, नाना प्रकार के कष्टों का झेलना, न्याय-मर्यादा की रक्षा करना, ये भाव रहें, जो इस अदभुत रस की रचना को सुंदर बना देते हैंl
सत्य से आत्मा का संबंध तीन प्रकार का हैl एक जिज्ञासा का संबंध है, दूसरा प्रयोजन का संबंध है और तीसरा आनंद काl जिज्ञासा का संबंध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का संबंध विज्ञान का विषय है और साहित्य का विषय केवल आनंद का संबंध हैl सत्य जहाँ आनंद का स्रोत बन जाता है वहीं वह साहित्य बन जाता हैl जिज्ञासा का संबंध विचार से है, प्रयोजन का संबंध स्वार्थ बुद्धि सेl आनंद का संबंध मनोभावों से हैl साहित्य का विकास मनोभावों द्वारा ही होता है। एक दृश्य घटना या कांड को हम तीनों ही भिन्न भिन्न नजरों से देख सकते हैंl हिम से ढँके हुए पर्वत पर उषा का दृश्य दार्शनिक के गहरे विचार की वस्तु है, वैज्ञानिक के लिए अनुसंधान की, और साहित्यिक के लिए विह्वलता की। विह्वलता एक प्रकार का आत्मसमर्पण है। यहाँ हम पृथकता का अनुभव नहीं करते l यह ऊँच-नीच, भले-बुरे का भेद नहीं रह जाताl श्रीरामचंद्र शबरी के जूठे बेर क्यों प्रेम से खाते हैं, कृष्ण भगवान विदुर के शाक को क्यों नाना व्यंजन से रुचिकर समझते हैं? इसीलिए कि उन्होंने इस पार्थक्य को मिटा दिया है? उनकी आत्मा विशाल हैl उसमें समस्त जगत के लिए स्थान है। आत्मा, आत्मा से मिल गयी है। जिसकी आत्मा जितनी ही विशाल है, वह उतना ही महान पुरुष हैl यहाँ तक कि ऐसे महान पुरुष भी हो गए हैं, जो जड़ जगत से भी अपनी आत्म का मेल कर सके हैंl
आइए देखें, जीवन क्या है? जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना नहीं हैl यह तो पशुओं का जीवन हैl मानव जीवन में भी यह सभी प्रवृत्तियाँ होती हैं; क्योंकि वह भी तो पशु हैl पर इनके उपरांत कुछ और भी होता हैl उनमें कुछ ऐसी मनोवृत्तियाँ होती हैं, जो प्रकृति के साथ हमारे मेल में बाधक होती हैं, कुछ ऐसी होती हैं, जो इस मेल में सहायक बन जाती हैंl जिन प्रवृत्तियों में प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य बढ़ता है, वह वांछनीय होती हैं, जिनसे सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित हैं। अहंकार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियाँ हैं l यदि हम इनको बेरोक-टोक चलने दें, तो निस्संदेह वह हमें नाश और पतन की ओर ले जाएँगी, इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिसमें वे अपनी सीमा से बाहर न जा सकेंl हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हैं, उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता हैl
किंतु नटखट लड़कों से डाँटकर कहना, तुम बड़े बदमाश हो, हम तुम्हारे कान पकड़कर उखाड़ लेंगे, अक्सर व्यर्थ ही होता है; बल्कि उस प्रवृत्ति को और हठ की ओर ले जाकर पुष्ट कर देता हैl जरूरत यह होती है, कि बालक में जो सद्वृत्तियाँ हैं उन्हें ऐसा उत्तेजित किया जाय कि दूषित वृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से शांत हो जाएँl इसी प्रकार मनुष्य को भी आत्मविकास के लिए संयम की आवश्यकता होती हैl साहित्य ही मनोविकारों के रहस्य खोलकर सद्वृत्तियों को जगाता हैl सत्य को रसों द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, ज्ञान और विवेक द्वारा नहीं कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार-पुचकार कर बच्चों को जितनी सफलता से वश में किया जा सकता है, डाँट-फटकार से संभव नहींl कौन नहीं जानता कि प्रेम से कठोर से कठोर प्रकृति को नरम किया जा सकता हैl साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु हैlजहाँ ज्ञान और उपदेश असफल होता है, वहाँ साहित्य बाजी ले जाता हैl यही कारण है, कि हम उपनिषदों और अन्य धर्म ग्रंथों को साहित्य की सहायता लेते देखते हैंl हमारे धर्माचार्यों ने देखा कि मनुष्य पर सबसे अधिक प्रभाव मानव जीवन के दुख सुख के वर्णन से ही हो सकता है और उन्होंने मानव जीवन की वे कथाएँ रचीं, जो आज भी हमारे आनंद की वस्तु हैंl बौद्धों की जातक कथाएँ, तौरेह, कुरान, इंजील ये सभी मानवी कथाओं के संग्रहमात्र हैंl उन्हीं कथाओं पर हमारे बड़े बड़े धर्म स्थिर हैं l वहीं कथाएं धर्मों की आत्मा हैं l उन कथाओं को निकाल दीजिए, तो उस धर्म का अस्तित्व मिट जाएगाl क्या उन धर्म प्रवर्तकों ने अकारण ही मानव जीवन की कथाओं का आश्रय लिया? नहीं, उन्होंने देखा कि हृदय द्वारा ही जानता की आत्मा तक अपना संदेश पहुंचाया जा सकता है। वे स्वयं विशाल हृदय के मनुष्य थेl उन्होंने मानव जीवन से अपनी आत्मा का मेल कर लिया थाl समस्त मानवजाति से उनके जीवन का सामंजस्य था, फिर वे मानव चरित्र की उपेक्षा कैसे करते?
आदिकाल से मनुष्य के लिए सबसे समीप मनुष्य हैl हम जिसके सुख दुख, हँसने रोने का मर्म समझ सकते हैं, उसी से हमारी आत्मा का अधिक मेल होता हैl विद्यार्थी को विद्यार्थी जीवन से, कृषक को कृषक जीवन से जितनी रुचि है, उतनी अन्य जातियों से नहीं; लेकिन साहित्य जगत में प्रवेश पाते ही यह भेद, यह पार्थक्य मिट जाता हैl हमारी मानवता जैसे विशाल और विराट होकर समस्त मानव जाति पर अधिकार पा जाती हैl मानव जाति ही नहीं, चर और अचर, जड़ और चेतन सभी उसके अधिकार में आ जाते हैंl उसे सारे विश्व की आत्मा का साम्राज्य प्राप्त हो जाता हैl श्री रामचंद्र राजा थे, पर आज रंक भी उनके दुख से उतना ही प्रभावित होता है, जितना कोई राजा हो सकता हैl
साहित्य वह जादू की लकड़ी है, जो पशुओं में, ईंट-पत्थरों में, पेड़-पौधों में विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती हैl मानव हृदय का जगत, इस प्रत्यक्ष जगत जैसा नहीं हैl हम मनुष्य होने के कारण मानव जगत के प्राणियों में अपने को अधिक पाते हैं, उनके सुख दुख, हर्ष और विषाद से ज्यादा विचलित होते हैं, कि हम अपने निकटतम बंधु-बांधवों से अपने को इतना निकट नहीं पाते; इसलिए कि हम उनके एक एक विचार, एक एक उद्गार को जानते हैं, उनका मन हमारी नज़रों के सामने आईने की तरह खुला हुआ है l जीवन में ऐसे प्राणी हमें कहाँ मिलते हैं, जिनके अंतःकरण में हम इतनी स्वाधीनता से विचर सकेंl सच्चे साहित्यकार का यही लक्षण है कि उसके भावों में व्यापकता हो, उसने विश्व की आत्मा से ऐसी harmony प्राप्त कर ली हो कि उसके भाव प्रत्येक प्राणी को अपने ही भाव मालूम होंl
साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता हैl जब कोई लहर देश में उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश बंधुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है;पर उसके रुदन में भी व्यापकता होती हैl वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता हैl “टाम काका की कुटिया” गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है; पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमें वह व्यापकता है कि हमलोग भी उसे पढ़कर मुग्ध हो जाते हैंl
सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होताl वह सदा नया बना रहता हैl दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदलते रहते हैं; पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव हृदय में तब्दीलियाँ नहीं होतीl हर्ष और विस्मय, क्रोध और द्वेष, आशा और भय, आज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत हैं, जैसे आदिकवि वाल्मीकि के समय में थे और कदाचित अनंत तक रहेंगे। रामायण के समय का समय अब नहीं है, महाभारत का समय भी अतीत हो गया; पर ये ग्रंथ अभी तक नए हैंl साहित्य ही सच्चा इतिहास है क्योंकि उसमें अपने देश और काल का जैसा चित्र होता है, वैसा कोई इतिहास में नहीं हो सकताl घटनाओं की तालिका इतिहास नहीं है और न राजाओं की लड़ाइयाँ ही इतिहास हैंl इतिहास जीवन के विभिन्न अंगों की प्रगति का नाम है, और जीवन पर साहित्य से अधिक प्रकाश और कौन वस्तु डाल सकती है क्योंकि साहित्य अपने देश काल का प्रतिबिंब होता है l
जीवन में साहित्य की उपयोगिता के विषय में कभी कभी संदेह किया जाता हैl कहा जाता है, जो स्वभाव से अच्छे हैं, वह अच्छे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़ेंl जो स्वभाव के बुरे हैं, वह बुरे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़ें। इस कथन में सत्य की मात्रा बहुत कम हैl इसे सत्य मान लेना मानव चरित्र को बदल लेना होगाl जो सुंदर है, उसकी ओर मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता हैl हम कितने ही पतित हो जाएँ पर असुंदर की ओर हमारा आकर्षण नहीं हो सकताl हम कर्म चाहे कितने भी बुरे करें पर यह असंभव है कि करुणा और दया और प्रेम और भक्ति का हमारे दिलों पर असर ना होl नादिरशाह से ज्यादा निर्दयी मनुष्य और कौन हो सकता है, हमारा आशय दिल्ली में कत्लेआम करानेवाले नादिरशाह से हैl
अगर दिल्ली का कत्लेआम सत्य घटना है, तो नादिरशाह के निर्दयी होने में कोई संदेह नहीं रहताl उस समय आपको मालूम है, किस बात से प्रभावित होकर उसने कत्लेआम को बंद करने का हुक्म दिया था? दिल्ली के बादशाह का वजीर एक रसिक मनुष्य थाl जब उसने देखा कि नादिरशाह का क्रोध किसी तरह नहीं शांत होता और दिल्लीवालों के खून की नदी बहती चली जाती है, यहाँ तक कि खुद नादिरशाह के मुँहलगे अफसर भी उसके सामने आने का साहस नहीं करते, तो वह हथेलियों पर जान रखकर नादिरशाह के पास पहुँचा और यह शेर पढ़ा
कसे न मांद कि दीगरब तेगे नाज कुशीl
मगर कि जिंदा कुनिया खल्क रा ब बाज कुशीl
इसका अर्थ यह है कि तेरे प्रेम की तलवार ने अब किसी को जिंदा न छोड़ाl अब तो तेरे लिए इसके सिवा कोई और उपाय नहीं है कि तू मुर्दों को फिर जिला दे और फिर उन्हें मारना शुरू करेl यह फारसी के एक प्रसिद्ध कवि का श्रृंगार विषयक शेर है; पर इसे सुनकर कातिल के दिल में मनुष्य जाग उठाl इस शेर ने उसके हृदय के कोमल भाग को स्पर्श कर दिया और कत्लेआम तुरंत बंद करा दिया गयाl नेपोलियन के जीवन की यह घटना भी प्रसिद्ध है, जब उसने एक अँग्रेज मल्लाह को झाऊ की नाव पर कैले का समुद्र पार करते देखाl जब फ्रांसीसी अपराधी मल्लाह को पकड़कर, नेपोलियन के सामने लाया और उससे पूछा, तू इस भंगुर नौका पर क्यों समुद्र पार कर रहा था, तो अपराधी ने कहा, इसलिए कि मेरी वृद्धा माता घर पर अकेली है, मैं उसे एक बार देखना चाहता था l नेपोलियन की आँखों में आँसू छलछला आएl मनुष्य का कोमल भाग स्पंदित हो उठाl उसने उस सैनिक को फ्रांसीसी नौका पर इंग्लैंड भेज दियाl
मनुष्य स्वभाव से देवतुल्य हैl जमाने के छल प्रपंच और परिस्थितियों के वशीभूत होकर वह अपना देवत्व खो बैठता हैl साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करता है, उपदेशों से नहीं, नसीहतों से नहीं, भावों को स्पंदित करके, मन के कोमल तारों पर चोट लगाकर, प्रकृति से सामंजस्य उत्पन्न करकेl
हमारी सभ्यता साहित्य पर ही आधारित है l हम जो कुछ हैं, साहित्य के ही बनाए हैं l विश्व की आत्मा के अंतर्गत भी राष्ट्र या देश की एक आत्मा होती हैl इसी आत्मा की प्रतिध्वनि है, साहित्य l योरप का साहित्य उठा लीजिएl आप वहाँ संघर्ष पाएंगेl कहीं खूनी कांडों का प्रदर्शन है, कहीं जासूसी कमाल काl जैसे सारी संस्कृति उन्मत्त होकर मरु में जल खोज रही है उस साहित्य का परिणाम यही है कि वैयक्तिक स्वार्थपरायणता दिन दिन बढ़ती जाती है, अर्थ लोलुपता की कहीं सीमा नहीं, नित्य दंगे, नित्य लड़ाइयाँl प्रत्येक वस्तु स्वार्थ के काँटे पर तोली जा रही हैl यहाँ तक कि अब किसी यूरोपियन महात्मा का उपदेश सुनकर भी संदेह होता कि इसके परदे में स्वार्थ न होl
साहित्य सामाजिक आदर्शों का स्रष्टा हैl जब आदर्श ही भ्रष्ट हो गया, समाज के पतन में बहुत दिन नहीं लगतेl नई सभ्यता का जीवन डेढ़ सौ साल से अधिक नहीं पर अभी से संसार उससे तंग आ गया हैl पर इसके बदले में उसे कोई ऐसी वस्तु नहीं मिल रही है, जिसे वहाँ स्थापित कर सकेl उसकी दशा उस मनुष्य की सी है, जो यह तो समझ रहा है कि वह जिस रास्ते पर जा रहा है, वह ठीक रास्ता नहीं है; पर वह इतनी दूर आ चुका है, कि अब लौटने की उसमें सामर्थ्य नहीं हैl वह आगे ही जाएगाl चाहे उधर कोई समुद्र ही क्यों न लहरें मार रहा होl उसमें नैराश्य का हिंसक बल है, आशा की उदार शक्ति नहींl भारतीय साहित्य का आदर्श उसका त्याग और उत्सर्ग हैl यूरोप का कोई व्यक्ति लखपति होकर, जायदाद खरीद कर, कंपनियों में हिस्से लेकर और ऊँची सोसायटी में मिलकर अपने को कृतकार्य समझता है, जब वह इस माया बंधन से मुक्त हो जाता है, जब उसमें भोग और अधिकार का मोह नहीं रहताl
किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान संपत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैंl व्यास और वाल्मीकि ने जिन आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर ऊँचा किए हुए हैंl राम अगर वाल्मीकि के साँचे में न ढलते, तो राम न रहतेl सीता भी उसी साँचे में ढलकर सीता हुईंl यह सत्य है कि हम सब ऐसे चरित्रों का निर्माण नहीं कर सकते; पर एक धनवंतरि के होने पर भी संसार में वैद्यों की आवश्यकता रही है और रहेगीl
ऐसा महान दायित्व जिस वस्तु पर है, उसके निर्माताओं का पद कुछ कम जिम्मेदारी का नहीं हैl कलम हाथ में लेते ही हमारे सिर बड़ी भारी जिम्मेदारी आ जाती हैl साधारणतः युवावस्था में हमारी निगाह पहले विध्वंस करने की ओर उठ जाती हैl हम सुधार करने की धुन में अंधाधुंध शर चलाना शुरू करते हैंl खुदाई फौजदार बन जाते हैंl तुरंत आँखें काले धब्बों की ओर पहुँच जाती हैंl यथार्थवाद के प्रवाह में बहने लगते हैंl बुराइयों के नग्न चित्र खींचने में कला की कृतकार्यता समझते हैंl यह सत्य है कि कोई मकान गिराकर ही उसकी जगह नया मकान बनाया जाता हैl पुराने ढकोसलों और बंधनों को तोड़ने की जरूरत है; पर इसे साहित्य नहीं कह सकते l
साहित्य तो वही है, जो साहित्य की मर्यादाओं का पालन करे l हम अक्सर साहित्य का मर्म समझे बिना ही लिखना शुरू कर देते हैंl शायद हम समझते हैं कि मजेदार, चटपटी और ओजपूर्ण भाषा लिखना ही साहित्य हैl भाषा भी साहित्य का एक अंग है, पर साहित्य विध्वंस नहीं करता, निर्माण करता हैl वह मानव चरित्र की कालिमाएँ नहीं दिखाता, उसकी उज्ज्वलताएँ दिखाता हैl मकान गिरानेवाला इंजीनियर नहीं कहलाताl इंजीनियर तो निर्माण ही करता हैl हममें जो युवक साहित्य को अपने जीवन का ध्येय बनाना चाहते हैं, उन्हें बहुत आत्मसंयम की आवश्यकता है, क्योंकि वह अपने को एक महान पद के लिए तैयार कर रहा है, जो अदालतों में बहस करने या कुर्सी पर बैठकर मुकदमे का फैसला करने से कहीं ऊँचा हैl उसके लिए केवल डिग्रियाँ और ऊँची शिक्षा काफी नहींl चित्त की साधना, संयम, सौंदर्य, तत्त्व का ज्ञान,इसकी कहीं ज्यादा जरूरत हैl
साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए l भावों का परिमार्जन भी उतना ही वांछनीय है जब तक हमारे साहित्य सेवी इस आदर्श तक न पहुँचेंगे तब तक हमारे साहित्य से मंगल की आशा नहीं की जा सकतीl अमर साहित्य के निर्माता विलासी प्रवृत्ति के मनुष्य नहीं थेl वाल्मीकि और व्यास दोनों तपस्वी थेl सूर और तुलसी भी विलासिता के उपासक न थेl कबीर भी तपस्वी ही थे l हमारा साहित्य अगर आज उन्नति नहीं करता तो इसका कारण यह है कि हमने साहित्य रचना के लिए कोई तैयारी नहीं की l दो चार नुस्खे याद करके हकीम बन बैठे l साहित्य का उत्थान राष्ट्र का उत्थान है और हमारी ईश्वर से यही याचना है कि हममें सच्चे साहित्य सेवी उत्पन्न हों, सच्चे तपस्वी, सच्चे आत्मज्ञानी।