— रामजी प्रसाद ‘भैरव’ —
कभी पढ़ा था –
उर में माखन चोर गड़े,
अब कैसेहुँ निकसत नहीं उधौ! तिरछे ह्वै जु अड़े।।
उर माने तो हृदय ही होता है न भाई, तो हृदय में माखन चोर माने कृष्ण बसे हैं। चलिए जैसे तैसे पहली सफे का अर्थ निकाल लिया। मन को सुकून मिला कि खोपड़ी में खाली भूसा ही नहीं भरा है। चार आठ आना की बुद्धि सुद्धि भी है। काम सरक जाएगा, नहीं काम चल जाएगा। अब अगली सफ़े के लिए कब से माथा खपा रहा हूँ। बात बन नहीं पा रही है। अब किस उद्भट विद्वान का चरण वंदन करूँ। हे तात ! कृपा करके मुझ मूरख का कल्याण कर, मार्ग दर्शन करें।
कृष्ण को छलिया भी कहा गया है, अब छलिया का अर्थ ज्यादातर लोग छल करने वाला से लगाते हैं, पर मुझे कुछ और ही सूझ रहा है। छलिया का अर्थ छइलना यानी फैल जाना। व्यष्टि का समष्टि में परिवर्तित हो जाना ही वास्तव में छलिया है। आप खुद ही देखिए कि कृष्ण हर गोपी के संग रास रचा रहे हैं। और किसी गोपी को कृष्ण से यह शिकायत नहीं होती कि वह फलां गोपी के संग क्यों हैं। जब कि एक स्त्री दूसरी स्त्री को एक पुरुष से प्रेम करने पर आपत्ति होती है। केवल आपत्ति नहीं बल्कि घोर जलन होती है। ईर्ष्या होती है। द्वेष होता है।
लेकिन यहाँ वह बात नहीं है। यहाँ बराबर प्रेम है। सम भाव। प्रायः दाम्पत्य भाव वाला। इसमें गोपियों की कोई भूमिका नहीं है। भूमिका में केवल कृष्ण हैं। सबके साथ, एक समय। फिर भला क्यों आपत्ति होगी। आपत्ति के लिए कृष्ण कोई जगह ही नहीं छोड़ते। यही तो उनके चरित्र का फैलाव है। और छलिया है। दूसरे अर्थ में देखें तो छैल छबीला भी हैं। बांका नौजवान, गबरू यानी जिस पर गर्व हो। ऐसा विराट हृदय वाला जिसमें सब समाहित हो। कृष्ण नटखट और शरारती भी हैं। वह गोपियों संग केवल रास ही नहीं रचाते बल्कि शरारतें भी करते हैं। उनकी शरारतों को छेड़खानी नहीं कहा जा सकता। छेड़खानी में लम्पटता होती है। कृष्ण का विराट व्यक्तित्व कहीं से लम्पट नहीं लगता। कृष्ण का व्यक्तित्व का विस्तार है, वह जब तक ग्वाल बालों या गोपियों संग रहते हैं। गाय चराते हैं, बाँसुरी बजाते हैं, गेंद खेलते हैं, रास रचाते हैं। लेकिन जब मथुरा चले जाते हैं, उनका व्यक्तित्व परिवर्तित हो जाता है। वह राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, राजा, उपदेशक और योद्धा हो जाते हैं। इसलिए वह जिसके हृदय में जैसे घुस जाते हैं, वैसे रहते हैं।
बात इतने पर खत्म नहीं होती। कृष्ण की आठ पत्नियों के अलावा सोलह हजार एक सौ अन्य पत्नियां थीं। और किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। कहते हैं कि वह सबके साथ यहाँ भी एक समय में एकसाथ रहते हैं।
गोपियाँ उधौ जी से कहती हैं उर में माखन चोर गड़े, तो इसका आशय कदापि यह नहीं कि उनकी छवि चोर की है , यह तो गोपियों का प्रेम है, जो उन्हें माखन चोर के रूप में देखती हैं। मुझे नहीं लगता माखन इतनी कीमती चीज थी, जो कृष्ण को चोर बना दे। प्रेम के वशीभूत मनुष्य क्या से क्या नहीं बन जाता है, फिर वो तो कृष्ण हैं। लोगों ने जो भी नाम दिए, सब स्वीकार किया।
तिरछे ह्वै जु अड़े, गोपियाँ कहती हैं वो कृष्ण हमारे हृदय में अड़ गया है। किसी प्रकार नहीं निकलता। एक छवि जो पहले से विराजमान है। उसे निकालना कठिन ही नहीं, अत्यंत दुष्कर है। आपके निर्गुण ब्रह्म का भले कोई आकार न हो परन्तु मेरे कृष्ण तो त्रिभंगी हैं। हम गांव की सीधी हृदय की ग्वालिनें, उसमें समाए हुए त्रिभंगी कृष्ण कैसे निकलेंगे। इसीलिए वो अड़े हुए हैं। भक्त भगवान के लिए अड़े, यह तो समझ में आता है। परंतु भगवान ही भक्त के लिए अड़ जाय, यह कितनी विचित्र और दुर्लभ बात है।
जितनी विचित्र और दुर्लभ बात यह है, उतनी ही विचित्र और दुर्लभ बात है भगवान के लिए भक्त का अड़ जाना। एकमात्र रीतिसिद्ध कवि बिहारी ने अपने दोहे में कितना शानदार जिक्र किया –
करौ कुबत जग, कुटिलता तजौ न दीनदयाल।
दुःखी होएंगे सरल हिय, बसत त्रिभंगी लाल।।
संसार चाहे लाख कुबत (बुरी बात) कयास लगा ले, चाहे बुरी बात कहै, निंदा करे, आलोचना करै, चाहे अपनी कूबत (शक्ति) लगा ले, ताकत लगा ले, जोर लगा ले, मैं अपने हृदय की कुटिलता का त्याग नहीं करने वाला हूँ। एक भक्त के रूप में यही मेरा धर्म है। मेरे सीधे और सरल हृदय में वह त्रिभंगी स्वरूप विराजमान है। मैं थोड़े से स्वार्थ में आकर उन्हें दुखी नहीं कर सकता। क्योंकि मेरे जैसे भक्त के लिए पूर्णतया अनुचित कदम है। मैंने अपने दीनदयाल श्रीकृष्ण से वादा किया है, मेरे ऊपर चाहे लाख विपत्ति आए , दुख आए, समस्या आए, मैं अपनी कुटिलता त्यागने वाला नहीं हूँ। क्यों इस रहस्य को मैं जान चुका हूँ, मेरे सरल हृदय से निकलने में आपको कितना कष्ट उठाना पड़ेगा।
चलो मान लिया कृष्ण ने माखन चोरी की है। चोरी जैसा कर्म तो कोई अभाव व जरूरत पर करता है। परंतु कृष्ण के घर में तो दूध, दही, माखन की नदियां बहती थीं। नन्द बाबा के यहाँ सम्पन्नता कूट कूट कर भरी थी। माता यशोदा खुद अपने हाथों से दही को विलोय कर माखन निकालती थीं। कृष्ण को भरपेट खिलाती थीं। उनके ना नुकुर करने के बाद भी, फिर कृष्ण को चोर कैसे कहा जा सकता है। उनके इस कार्य के पीछे कुछ और निहित था। बात यह है कि दही और माखन मथुरा के बाजारों में बिकने जाया करता था। जो कृष्ण को पसंद नहीं था। वह चाहते थे, यह सब चीजें गाँव में रहें ताकि गाँव के हर बच्चे को पर्याप्त मात्रा में दूध, दही, माखन मिले, वो हृष्ट पुष्ट हों। कृष्ण की मित्र मंडली में सब बच्चे दही और माखन के लिए लालायित रहते थे। कृष्ण उनके लिए ही चोरी करते थे।
एक बात और ध्यान में आ रही है। कृष्ण ने नदी में निर्वस्त्र नहाती हुई गोपियों के वस्त्र चुरा लिये थे। इससे उनके ऊपर लम्पटता का आरोप लगता है। यह भी कितना मिथ्या और भ्रामक है। कृष्ण के समझाने पर गोपियों ने स्वीकार किया, उनसे गलती हो रही थी। उन्होंने निर्वस्त्र नहाना छोड़ दिया। यदि किसी की निगाह में यह लम्पटता है तो वह निरा मूर्ख है। क्योंकि वही गोपियाँ कृष्ण के महारास में नंगे पाँव दौड़ी चली आती थीं। कृष्ण उन्हें बुलाने नहीं जाते थे। यदि लम्पट होते तो कोई गोपी भला क्यों जाती। कृष्ण के मथुरा जाने पर वही गोपियाँ वियोग करती हैं। रोती, कलपती और आँसू बहाती हैं। किसी लम्पट पुरुष को कोई सभ्य स्त्री अपने हृदय में नहीं बसाती। कृष्ण जैसे भी थे गोपियों के थे, सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के थे, अपने भक्तों के थे। वो जिसके हृदय में बस गए तो बस गए, फिर कैसा निकलना, क्यों निकलना, किसके लिए निकलना।
आइए कुछ बातें उनके त्रिभंगी स्वरूप पर भी कर ली जाएं। कृष्ण के जीवन का उनके भक्तों और चाहने वालों पर अलग अलग प्रभाव है। इस विविधता की चर्चा मैं ऊपर कर चुका हूँ। बात यह है कि जब किसी के व्यक्तित्व की विविधता रहेगी, तो स्वाभाविक है उसका प्रभाव अलग अलग ही होगा। कृष्ण के जितने नाम हैं उनके व्यक्तित्व की विविधता को लेकर हैं। चाहे वह रणछोड़ हो, चाहे माखन चोर।
कृष्ण का त्रिभंगी रूप तब परिलक्षित होता है, जब वो तन्मय होकर बाँसुरी बजाते हैं। उनके पैर मुड़कर एक दूसरे पर चढ़े होते हैं। कटि थोड़ी टेढ़ी होती है। बाँसुरी बजाते समय गर्दन कुछ झुकी होती है। ऐसे स्वरूप को गोपियाँ अपने हृदय में समाहित किये हैं, कृष्ण का यह मोहक रूप भला किसके हृदय में नहीं अटक जाएगा।
और एक बार जो अटक गया तो निकाले नहीं निकलेगा चाहे जितना जतन कोई कर ले। उधौ जी को अंततः निराश होकर लौटना पड़ा।