— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
शादी, सालगिरह, जन्मदिवस, शादी के 25-50 साल पूरे होने, नए मकान की तामीर वगैरह के मौके पर अपनी हैसियत के मुताबिक दावत देने, पार्टियां करने का रिवाज तेजी से आगे बढ़ा है। हालात यहां तक है कि दिल्ली में ऐसी पार्टियों में मेहमानों की संख्या सैकड़ों से बढ़कर हजारों तक पहुंच चुकी है। बड़े होटलों, फार्म हाउसों, डेस्टिनेशन सेंटर, रिसॉर्ट वगैरह पर आयोजित शान-शौकत से झिलमिलाते इन स्थानों पर पहुंचने के लिए मीलों पहले संकेत बनाकर बोर्ड लगा दिए जाते हैं। दरवाजे पर ही देशी-विदेशी, वक्त की मारी गरीब लड़कियां देर रात तक हाथ में पकड़ी हुई थाली या डलिया में हर आने वाले पर फूलों की वर्षा करती रहती हैं। हॉल के अंदर कानफाडू संगीत और उसके साथ दावत के लिए बनी, सजी हुई मेजों पर छप्पन भोग की पुरानी कहावत को बहुत पीछे छोड़ अनगिनत अनलिमिटेड खाने की आइटम से अटी पटी रहती है।
जानकारी करने पर पता लगा कि 5000 रुपए पर प्लेट तक इसकी वसूली की जाती है। (हॉल का किराया भी इसमें शामिल रहता है।) खाने के आइटमों का मुलायजा एक सिरे से दूसरे सिरे तक अगर किया जाए तो गिनती में गड़बड़ी होना लाजमी है। पचास तरह के अचारों की हंडिया, तरह-तरह की मिठाइयों के थाल, देसी विदेशी खानों के काउंटर, हिंदुस्तान के दक्षिण से पूर्व, उत्तर से पश्चिम इलाके के विशेष खानों के नमूने वहां पर विराजमान रहते हैं। आए हुए मेहमानों के लिए डिनर का खाना एकदम नहीं खुलता, उससे पहले लंबी कतार में लगे हुए खोमचे स्टॉल जिसमें कॉन्टिनेंटल आइटम के साथ-साथ देसी चाट पकौड़ी, दही भल्ले, पानी के पतासे, मटर छोले, पिज्जा, नूडल्स, पास्ता, मोमो, कटलेट, छोले भटूरे इत्यादि की तरह के अनेकों आइटम वहां खाने के लिए परोसी जाती हैं।
देखा यह गया है कि आने वाले मेहमानों में अधिकतर इन खोमचों पर टूट पड़ते हैं। पेट भरने का लगभग 60 से 70 पर्सेंटेज कोटा यहीं पूरा कर लेते हैं। अंदर हॉल में घुसने पर वहां पर तैनात वेटर हाथ में या छोटी चलती फिरती बगिया पर सींकों में लगे हुए तले हुए चटपटे पदार्थ बार-बार लगातार मेहमानों को खाने का इसरार करते रहते हैं। डिनर खुलने पर हाथ में प्लेट पकड़े हुए हिंदुस्तानी मेहमान गिनी- चुनी आइटमों की ओर बढ़ता है। मटर पनीर, पालक पनीर चावल, नान, तंदूरी रोटी रायते, गिनती के चुने हुए खानों हालांकि यह बूफर खाना है जितना मर्जी लो, बार-बार लो कोई रोक नहीं, कमी नहीं फिर भी मेहमान अपनी प्लेट को जितनी जगह होती है भरपूर भर लेता है। हॉल में खाने के अतिरिक्त पीने के लिए नाना प्रकार के पेय पदार्थ, शरबत बोतलबंद और हाथोंहाथ तैयार जूस, कोल्ड ड्रिंक इत्यादि तो होते ही हैं वहां भी शौकीन लोग ग्रहण करते रहते हैं। देसी विदेशी मौसमी बिना मौसमी फलों की चाट काउंटर लगना तो लाजमी है। दूध, ताजा बनती जलेबी, इमरती, रसमलाई, रसगुल्ले, गुलाब जामुन, तरह-तरह के हलवे, तवे पर भुनते हुए ड्राई फूड के अनेकों खाद्य पदार्थ। इत्यादि अनेकों आइट मेज पर सजी रहती हैं।
किसी बाहरी आदमी को क्या हक है कि उसकी नुक्ताचीनी करे? मेरा पैसा है, जैसे मर्जी खर्च करूं। पार्टी का आयोजक कह सकता है।
परंतु अफसोस इस बात का होता है, जरा डस्टबिन के नजदीक खड़े हो जाइए, खाने से भरी हुई प्लेटों को उसमें पटक दिया जाता है, हर आइटम के बाहर अब यह भी जरूरी हो गया है कि उसका नाम लिखा जाए। एक दिन मैं एक काउंटर जिस पर बाजरे की खिचड़ी लिखा हुआ था उस पर खाने के लिए गया, उस पर तैनात कर्मचारी पहले मुस्कुराया और बड़े प्रेम से मुझे प्लेट में बाजरे की खिचड़ी को परोसा। वह मुस्कुरा रहा था। मैंने पूछा क्या बात है भाई! वह बोला, बाबूजी कम से कम एक आदमी ने तो मुझे सेवा करने का मौका दिया।
कहने का मकसद है अनेकों ऐसी आइटम वहां परोसी जाती हैं जिनका एक भी खाने वाला वहां नहीं होता। क्या यह पैसे का नंगा नाच नहीं? इस शान-शौकत का एक बुरा नतीजा सामाजिक ताने-बाने पर भी पड़ रहा है। देखने में आया है, दो सगे भाइयों में एक के पास अपार धन दौलत है, और दूसरा भाई माली हालत से बेहद कमजोर, उसके ऊपर मायूसी का आलम छाता है। दोस्तों-रिश्तेदारों, आस-पड़ोस के पड़ोसियों जिनकी हैसियत इस तरह की नहीं होती उनमें निराशा का भाव पैदा होता है।
जिस मुल्क में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करोड़ों इंसान दो जून की रोटी की जुगाड़ में लगे रहते हैं, किसी तरह पेट में अन्न चला जाए। तरह-तरह के पकवान खाने तक तो फिर भी जायज कहा जा सकता है, परंतु उसको डस्टबिन में डंप किया जाए यह कहां तक जायज है?
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