(आचार्य नरेन्द्रदेव से की गयी यह भेंटवार्ता पहली बार ‘समाज’ के 8 अगस्त 1946 के अंक में प्रकाशित हुई थाी)
9 अगस्त को छेड़े गये भारत छोड़ो आन्दोलन की, आपकी राय में, क्या मुख्य विशेषता है?
यह आन्दोलन भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का सबसे बड़ा जन-संग्राम था। किसी पूर्वनिश्चित योजना के अभाव में भी देश की जनता सर्वत्र सरकार के विरुद्ध उठ खड़ी हुई और जैसा कि स्वतःप्रसूत जनक्रांतियों में देखा जाता है, उसने शासन-सत्ता के केन्द्रों पर अधिकार करना और विदेशी शासन के प्रतीकों को नष्ट करना आरम्भ किया। प्रचलित शासन-व्यवस्था के विरुद्ध शान्तिमय प्रदर्शन तथा स्वतः प्रसूत व्यापक जनविद्रोह में जो अन्तर होता है वही ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन तथा उसके पूर्ववर्ती कांग्रेस के आन्दोलनों में दीख पड़ता है।
क्या ‘अगस्त-आन्दोलन’ को काँग्रेस का आन्दोलन कहना उचित होगा? काँग्रेस ‘हाईकमाण्ड’ का अपनी गिरफ्तारी के बाद आन्दोलन चलाने के संबंध में किसी योजना का न छोड़ जाना किस बात का द्योतक है?
यह आन्दोलन काँग्रेस का आन्दोलन था इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है। अपने लेखों और भाषणों द्वारा महात्मा जी तथा काँग्रेस के दूसरे नेताओं ने आन्दोलन के लिए वातावरण पहले से ही तैयार कर रखा था। काँग्रेस-कार्यसमिति के सदस्यों की गिरफ्तारी की बात को ध्यान में ऱखते हुए यह आदेश जारी कर दिया गया था कि नेताओं की गिरफ्तारी के पश्चात् हर व्यक्ति अपने को ही अपना नेता समझे और अहिंसा के दायरे के भीतर रहते हुए जो उचित समझे करे। इस आदेश के बावजूद यह तर्क करना कि महात्मा जी गिरफ्तार हो गये और आन्दोलन छेड़ नहीं सके, अतः जो आन्दोलन आरम्भ हुआ वह काँग्रेस का आन्दोलन नहीं वरन् नेताओं की गिरफ्तारी पर केवल विरोध प्रदर्शन था, मेरी राय में शाब्दिक तर्क मात्र है, कोरी वकालती बहस है।
मेरा अनुमान है कि महात्मा जी राष्ट्रीय माँग को लेकर वायसराय से बातें करने वाले थे, इसी कारण सम्भवतः वे सत्याग्रह का स्पष्ट कार्यक्रम रखना उचित नहीं समझते थे किन्तु देश की अनिश्चित अवस्था को देखते हुए वे चुप भी नहीं बैठ सकते थे। इस कारण उन्होंने बीच का मार्ग अपनाया अर्थात् ‘भारत छोड़ो’प्रस्ताव अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी से स्वीकृत कराया। कार्यक्रम का दिया जाना यद्पि उचित ही होता, किन्तु जनता की तत्कालीन मनोदशा को देखते हुए यह निस्संकोच रूप से कहा जा सकता है कि कार्यक्रम के रखे जाने से भी आन्दोलन के स्वरूप में अन्तर न आता।
अगस्त- आन्दोलन से राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को क्या प्रमुख शिक्षाएँ मिलती हैं?
इस आन्दोलन ने दिखलाया कि जनता बहुत आगे बढ़ गयी है, कार्यकर्तागण पीछे रह गये हैं। प्रचार का कार्य बहुत हो चुका, जनता में क्रांतिकारी चेतना का विकास सन्तोषजनक सीमा तक हो चुका है, आवश्यकता है इस चेतना को संघटनात्मक रूप देने की। कार्यकर्ताओं को क्रांति के स्वरूप का अध्ययन करना चाहिए और उसका संचालन करने के लिए क्रांतिकारी रचनात्मक संघटन-कार्य में जुट जाना चाहिए। क्रांति का संचालन करने की कला के साथ कार्यकर्ताओं को यह भी समझना चाहिए कि सत्ता हाथ में आने पर उसे कैसे बनाये रखा जा सकता है।
क्या आपकी राय में अगस्त-आन्दोलन में अपनायी गयी तोड़-फोड़ की प्रणाली काँग्रेस की अहिंसा नीति के विरुद्ध थी?
मैं हिंसा-अहिंसा की शास्त्रीय बहस में पड़ना नहीं चाहता। हिंसा-अहिंसा का सूक्ष्म विचार बहुत कठिन है। इस विषय में विद्वान भी मोह को प्राप्त होते हैं। किन्तु इस संबंध में मेरा मत यह है कि जितने मानवोचित और प्रभावशाली उपाय हैं उन सबका अवलम्बन किया जा सकता है। उपायों के औचित्य विचार करने में उनकी नैतिकता का भी विचार करना होता है, किन्तु नैतिकता का मापदण्ड ऐसा न होना चाहिए जिसके अनुसार कार्य करना सामान्यजनों के लिए असम्भव हो।
अगस्त–आन्दोलन के अनुभवों के प्रकाश में आपकी राय में काँग्रेस को अपने शान्तिकालीन रचनात्मक कार्यक्रम में क्या परिवर्तन करना चाहिए?
इसमें संदेह नहीं कि सामाजिक सुधार अथवा शिक्षा के प्रचार के लिए जो कार्य किया जाए उससे राष्ट्र की पुष्टि में सहायता मिलती है किन्तु राजनीतिक दृष्टि से हम उसी रचनात्मक कार्यक्रम को महत्त्व देंगे जो प्रत्यक्ष रूप से विदेशी सत्ता को हटाने और अपनी सत्ता को कायम करने में सहायक होता है। इस दृष्टि से किसानों और मजदूरों का उनकी आर्थिक माँगों के आधार पर संघटन, गाँवों में आत्मरक्षा का कार्य करने वाले स्वयंसेवकों का संघटन, ग्राम-पंचायतों की स्थापना, शासन-पद्धति से स्वतन्त्र सहयोग-समितियों की स्थापना, विशेष महत्त्व के हैं, जो अन्य शान्तिकालीन रचनात्मक कार्य हैं उनका महत्त्व तभी है जब कि उन्हें इस कार्यक्रम के साथ आनुषंगिक रूप से रखा जाए।
क्या अगस्त-क्रांति के परिणामस्वरूप आपको स्वाधीनता आन्दोलन के लिए किसी प्रकार का खतरा दिखाई पड़ता है?
इस आन्दोलन में लोगों ने जिस साहस, शौर्य आदि का परिचय दिया उसके लिए उचित आदर रखते हुए भी हमको उसकी त्रुटियों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। एक यह भूल हो सकती है कि हम संग्राम के उस स्वरूप को ही अतिरंजित महत्त्व देने लग जाएँ और उसको महज दुहराने की चेष्टा करें। वास्तविक जनक्रांति के स्वरूप के लिए मजदूरों की आम हड़ताल और किसानों की लगानबंदी का होना बहुत आवश्यक है। इसमें इस बात का ध्यान रखना है कि आन्दोलन कुछ चुने हुए व्यक्तियों के समूहों का आतंकवादी विद्रोह नहीं वरन् देशव्यापी पैमाने पर जनता की क्रांति हो।