बसंत राघव की तीन कविताएँ

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पेंटिंग - विमल दास
पेंटिंग - विमल दास

1. सुनो वसंत

मानचित्र में
स्याही सा फैल गया है
बवाल,
अनुत्तरित
सवाल-दर-सवाल
हो गए हैं
रास्ते जर्जर बेहद खराब
और मौसम भी बदमिजाज
कदम-कदम पर खतरे
अफरातफरी का माहौल
जिधर देखो उधर
हवा में तैर रहे हैं
अराजक नारे बेहिसाब
देखभाल कर आना
अबकी बार
मेरे प्रिय बसंत
…..
मुॅंह फैलायी हुई हैं
सुरसा की तरह
दुर्घटनाओं की
विकराल संभावनाएँ
अजगर सी पसरी हुई हैं
समस्याएँ
शिखर किंकर्तव्यविमूढ़
वातावरण में घुल गई है
एक अजीब सी कड़वाहट
लेकिन फिर भी
पहले की तरह
चुटकी भर मिठास लिये
आना जरूर मेरे प्रिय वसंत

लगभग अब
खत्म हो चला है
टुकड़े-टुकड़े में
प्रतीक्षित
दुआओं का दौर
आह
कितना भयावह है
यह बारूदी जलजला
नीले आसमान में
चील की जगह
अब उड़ते दिख रहे हैं
खतरनाक ड्रोन
न जाने कब छिड़ जाए
न्यूक्लियर जंग
और सब कुछ हो जाए
क्षण भर में स्वाहा
सब कुछ भंग
आजकल
नहीं फड़फड़ा रहे हैं
बिलकुल नहीं फड़फड़ा रहे हैं
कहीं भी कपोत
लेकिन
यह सब जानते हुए भी
भले ही सोच समझकर
आना
मगर आना जरूर
फिर वही
कोयल के गीत लिये
ओ मेरे प्यारे वसंत
मेरे अपने वसंत।

2. नदी बह रही है

बह रही है
लगातार-लगातार
सतत अनवरत
अपनी मंथर गति से
समय की पुरातन नदी
उस पार
मरी पड़ी है
आस्था की बूढ़ी गाय
फटे हुए पेट के भीतर
अस्थिपंजर में फॅंसे हुए हैं
मांस के लोथड़े
कर रहा है
खींचने का असफल प्रयास
अपने स्वभाव के अनुसार
दुर्भिक्ष का लालची श्वान
ऊपर बहुत ऊपर
नीले आसमान में
मॅंडरा रहे हैं
अपने शिकार की तलाश में
अवसरवादी गिद्ध!

3. सागर

शाम ढल गई है मगर
दो पहर की ऑंच बाकी है
जो माधुर्य रचा चॉंद ने
उसका रोमांच बाकी है

कस्तूरी के स्रोत का
पता चल गया मृग को
बावरी हो चली उमंग
अब तो कुलॉंच बाकी है।

मदहोशी परवान चढ़ी तो
सागर चकनाचूर हो गया
अहसासों के साहिल पर
अब भी कॉंच बाकी है।

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